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Magazine - Year 1948 - Version 2

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सन्तों के लक्षण।

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(पं. तुलसीरामजी शास्त्री, वृन्दावन)

सत्यं तपो ज्ञानमहिंसता च विद्वत्प्रणामंच सुशीलता च। एतानि योधारयते स विद्वान् न के वलंयः पठते स विद्वान्।

सत्य, तप (अपने धर्म से न डिगना) ज्ञान, अहिंसा (किसी का दिल न दुखाना) विद्वानों का सत्कार, शीलता, इनको जो धारण करता है वह विद्वान् है केवल पुस्तक पढ़ने वाला नहीं।

शास्त्रारायधीत्यपि भवन्तिमूर्खायस्तु क्रियावान् पुरुषः सविद्वान्। सुचिन्तितंचौषध मातुराणाँ न नाममात्रेण हरोत्यरोगम्।।

शास्त्र पढ़ कर भी मूर्ख रहते हैं परन्तु जो शास्त्रोक्त क्रिया को करने वाला है वह विद्वान् है। रोगी को नाम मात्र से ध्यान की हुई औषधि निरोग नहीं कर सकती।

अहो किमपिचित्राणि चरित्राणिमहात्मनाम्। लक्ष्मीं तृणाय मन्यन्ते तद्भारेणनमन्ति च।।

अहो! महात्मा पुरुषों के चरित्र विचित्र हैं ये लक्ष्मी को तृण समान समझते हैं यदि लक्ष्मी इन महापुरुषों को प्राप्त हो जाती है तो उसके बोझ से दब जाते हैं अर्थात् नम्र हो जाते हैं।

गंगापापं शशीतापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा। पापंतापंचदैन्यं च घ्नन्ति सन्तोमहाशयः।।

गंगा पाप, चन्द्रमा ताप, और कल्पवृक्ष दरिद्रता को नष्ट करता है परन्तु सज्जन पुरुषों का संसर्ग पाप, ताप, और दीनता इन तीनों का हरण करता है।

मुखेन नोद्गिरत्यूर्ध्वं हृदयेन नयत्यधः। जरयत्यन्तरे साधुर्दोषंविषमिवेश्वरः।।

साधु पुरुष किसी के दोष को मुख पर नहीं लाते मन में ही धारण कर लेते हैं जैसे शिवजी ने विष को पचा लिया।

विकृतिं नैवगच्छन्ति संग दोषेण साधवः। आवेष्टितं महासर्पैश्चन्दनं न विषायते।।

साधु पुरुष संग के दोष से (दुर्जनों के संग होने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होते जैसे सर्पों के लिपटे रहने पर भी चन्दन में विष नहीं आता।)

साधोः प्रकोपितस्यापि मनोनायाति विक्रियाम्। नहि तापयितुँ शक्यं सागराम्भस्तृणोल्कया।।

किसी के कोप कराने पर भी साधु पुरुष के मन में विकार नहीं होता जैसे तिनका की अग्नि से समुद्र का जल गरम नहीं होता।

स्नेहच्छेदेपिसाधूनाँ गुणा नायान्ति विक्रियाम्। भंगेनापि मृणालानामनु वघ्नन्ति तन्तवः।।

प्रेम के टूटने पर भी साधु पुरुषों के गुण विकार को प्राप्त नहीं होते कमल की डंडी के टूटने पर भी उसमें तन्तु (सूत) रहता है।

सन्तः स्वतः प्रकाशन्ते गुणा न परतोनृणाम्। आमोदोनहिकस्तूर्याः शपथे न विभाव्यते।।

सन्त पुरुष अपने गुण से प्रकाशित (जाहिर) होते हैं औरों के कहने से नहीं। कस्तूरी की सुगंध स्वतः प्रकाशित होती है सौगन्ध से नहीं।

किमत्र चित्रंयत्संतः परानुग्रहतत्पराः। नहि स्वदेह शैत्याय जायन्तेचन्दनद्रुमाः।।

यदि सन्त पुरुष दूसरों पर कृपा करते हैं तो इसमें अचंभा किस बात का? क्या चन्दन का वृक्ष अपने शरीर की शीतलता के लिये होता है? नहीं, वह औरों को शीतल करता है।

यथा चित्तं तथावाचो यथा वाचस्तथा क्रिया। चित्तेवाचिक्रिया याँ च साधूनामेकरुपता।।

साधु पुरुषों के जो बात मन में होती है उसी को वाणी से कहते हैं और करते भी वही हैं। मन, वाणी और शरीर का एक सा ही व्यवहार साधुओं का होता है।

निर्गुणेष्वपि सत्वेषु दयाँ कुर्वन्तिसाघवः। नहि संहरते ज्योत्स्नाँ चन्द्रचाँडाल वेश्मनि।।

साधु पुरुष निर्गुण पुरुष पर भी दया करते हैं। क्या चन्द्रमा चाँडाल के मकान में चाँदनी प्रकाशित नहीं करता?

उपकारिषुयः साधुः साधुत्वे तस्यकोगुणः। अपकारिषुयः साधुः स साधुः सदभिरुच्यते।।

भलाई करने पर यदि भलाई की तो उसके साधुपन का क्या गुण हुआ? अपकार (बुराई) करने पर यदि भलाई करे उसको सज्जन साधु कहते हैं।

संत एव सताँनित्यमापदुद्धरणक्षमाः। गजानाँ पंक मग्नानाँ गजाएव धुरंधराः।।

सज्जन पुरुष ही सज्जन की आपत्ति दूर करने में समर्थ होते हैं। कीचड़ में रुंदे हुए हाथी को हाथ ही निकाल सकता है।

स्वभावं नैवमुँचन्ति सन्तः संसर्ग तोऽसताम्। नत्यजन्ति रुतंमंजु काकसंपर्कतः पिकः।।

दुर्जनों के संसर्ग से सज्जन पुरुष अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। कोयल कौआ के संसर्ग से अपनी मीठी बोली को नहीं छोड़ती।

स्वभाव न जहात्येव साधुरापद् गतोपिसन्। कर्पूरः पावकर्स्पश सौरभंलभते तराम्।।

साधु पुरुष आपत्ति पड़ने पर भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। कपूर अग्नि में डालने पर और भी सुगन्ध देता है।

उपचरितव्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैक मुपदेशम्। यास्तेषाँ स्वैर कथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि।।

संत पुरुष यदि तुमको कुछ उपदेश न दे तो भी उनकी सेवा करो क्योंकि उनकी नित्य प्रति की बोलचाल व व्यवहार है वही तुम्हारे लिए शास्त्र है-शिक्षा दायक है।

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