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Magazine - Year 1948 - Version 2

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दान में विवेक की आवश्यकता

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भिक्षा वृत्ति एक प्रकार का महान उत्तरदायित्व है, जिसका भार उठाने के लिए बिरले ही व्यक्तियों को साहस होना चाहिए। शास्त्रकारों ने भिक्षा को अग्नि से उपमा दी है, जैसे अग्नि को बड़ी सावधानी से स्पर्श करने की, पूर्ण सतर्कता के साथ यथोचित स्थान में रखने की और विवेकपूर्वक प्रयोग में लाने की आवश्यकता होती है, वैसे ही भिक्षा को ग्रहण करना, ग्रहण करके उसे रखना और फिर उसे उपयोग में लाना बहुत ही सावधानी का काम है। जिस प्रकार थोड़ी सी असावधानी बरतने पर अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी बड़े भयंकर, घातक परिणाम उपस्थित कर देती है वही हाल भिक्षा का है, यदि इस “अग्नि वृत्ति” का थोड़ा भी गलत उपयोग किया जाय तो बड़े व्यापक पैमाने पर भयानक अनिष्ट उत्पन्न हुए बिना नहीं रहते।

(1) यज्ञार्थाय और (2) विपद् बारणाय, इन दो कार्यों के लिए ही शास्त्रकारों ने भिक्षा का विधान किया है। इन दो कार्यों के लिए ही भिक्षा दी जानी चाहिए। यज्ञ का अर्थ पुण्य, परोपकार, सत्कार्य, लोक कल्याण, सुख शाँति की वृद्धि, सात्विकता का उन्नयन। जिन कार्यों से समष्टि की-जनता की-संसार में श्रेय और अभ्युदय की, अभिवृद्धि होती हो उन लोकोपयोगी कार्यों के लिए भिक्षा ली जानी चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, सहयोग, सुख, सुविधा बढ़ाने के कार्यों के लिए जो प्रयत्न किये जाते हैं वे तथा मानवीय स्वभाव में सत् तत्व को-प्रेम-त्याग, उदारता, क्षमा, विवेक, धर्मपरायणता, ईश्वर, प्राणधान, दया, उत्साह, श्रम, सेवा, संयम आदि सद्गुणों को बढ़ाने के लिए प्रयत्न किये जाते हैं, इन दोनों ही प्रकार के कार्यों को अनुष्ठान को यज्ञ कहा जाता है। आजकल अनेक संस्थाएं इस प्रकार के कार्य कर रही हैं। प्राचीन समय में कुछ व्यक्ति ही जीवित संस्था के रूप में जीवन भर एक निष्ठा से काम करते थे। स्वर्गीय श्री गणेश-शंकर विद्यार्थी की मृत्यु पर महात्मा गाँधी ने कहा था कि “विद्यार्थी जी एक संस्था थे।” जिसका जीवन एक निष्ठा पूर्वक, सब प्रकार के प्रलोभनों और भयों से विमुक्त होकर यज्ञार्थ-लोक सेवा के लिए-लगा रहता है वे व्यक्ति भी संस्था ही हैं। प्राचीन समय में ऐसे यज्ञ रूप, ब्रह्म परायण व्यक्तियों को ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, पुरोहित, आचार्य, योगी, संन्यासी आदि नामों से पुकारते थे। जैसे संस्था की स्थापना के लिए आजकल दफ्तर कायम किये जाते हैं और इन दफ्तरों का मकान भाड़ा खर्च करना होता है उसी प्रकार उन ‘संस्था व्यक्तियों’ ऋषियों की, आत्मा के रहने के मकान-उनके शरीर-का मकान भाड़ा, भोजन, वस्त्र आदि का निर्वाह व्यय, खर्च करना पड़ता था। जैसे मकान भाड़े के लिए और संस्थाओं के अन्य कार्यों के लिए धन जमा किया जाता है वैसे ही दान, पुण्य, भिक्षा, आदि द्वारा उन ऋषि संस्थाओं को पैसा दिया जाता था। उन ऋषियों का व्यक्तित्व, उच्च, अधिक उच्च, इतना उच्च, होता था जिसके सम्बन्ध में किसी प्रकार के संदेह की कल्पना तक उठने की गुंजाइश न होती थी, इसलिये जनता उन्हें पैसा देकर पैसे के सदुपयोग के सम्बन्ध में पूर्णतया निश्चित रहती थी, उसका हिसाब जाँचने की आवश्यकता न थी। ऋषि लोग भिक्षा द्वारा प्राप्त धन का उत्तम सदुपयोग स्वयं ही कर लेते थे।

देव पूजन, दान दक्षिणा आदि के नाम पर लोग स्वयमेव समय समय पर कई बहानों से संस्कार, पर्व, कथा, तीर्थ, पूजा, अनुष्ठान, व्रत, उद्यापना आदि के समय ब्राह्मणों का दान देते थे। उन ब्रह्म परायण संस्था व्यक्ति ब्राह्मणों- के द्वारा होने वाले लोकोपयोगी कार्यों से जनता पूरी तरह प्रभावित रहती थी और उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए उनके लिए समुचित साधन जुटाने के लिए धन व्यवस्था करने में कोई कभी न रहने देती थी।

व्यक्तिगत रूप से इन ब्राह्मणों की आवश्यकताएं बहुत ही स्वल्प होती थीं, पीपल के छोटे छोटे फल-पिप्पली-खाकर निर्वाह करने वाले पिप्पलाद ऋषि थे। खेत काटने पर जो अन्न के दाने खेतों में फैले रह जाते थे, उन्हें बीन कर वे गुजारा कर लेते थे। रहने की फूँस की झोंपड़ी, पहनने को कटिवस्त्र, भोजन में कंद मूल, इस निर्वाह को जुटा लेना कुछ खर्चीला न था। दान दक्षिणा में प्राप्त धन वे लोग प्रायः लोकोपकारी कार्यों के लिये ही लगा देते थे। तक्षशिला जैसी युनीवर्सिटियाँ जिनमें तीस 2 हजार छात्र पढ़ते थे और एक एक हजार आचार्य पढ़ाते थे एक दो नहीं सैकड़ों की संख्या में थी, जहाँ छात्रों और गुरुजनों का भोजन व्यय उन युनिवर्सिटियों की ओर उठाया जाता था, यह धन-दान द्वारा ही प्राप्त होता था। सर्जरी और चिकित्सा के सर्वोत्तम साधनों से सम्पन्न वृहत्तम अस्पताल इन ऋषियों द्वारा चलते थे। ज्योतिष, मनोविज्ञान, योग, धर्म, शिक्षा, नीति, कृषि, वाणिज्य, पशुपालन, शिल्प, राजनीति आदि के सम्बन्ध में उन ऋषियों की विचार सभाएं बैठती थीं और महत्वपूर्ण अनुसंधान करके तत्सम्बन्धी खोजों को ग्रन्थों के रूप में, उपदेशों के रूप में, अनुभवशालाओं के रूप में जनता के सामने उपस्थित करते थे। वायुयान, जलयान, रेडियो, युद्ध अस्त्र, रसायन आदि नाना प्रकार के वैज्ञानिक अनुसंधानों के करने के लिए ऋषियों के आश्रमों में ही प्रयोगशालाएं रहती थीं। उनमें सदैव वैज्ञानिक अनुसंधान होते रहते थे। इस प्रकार के कार्यों का व्यय इन दान पर ही निर्भर रहता था।

वे प्रातः स्मरणीय ब्राह्मण लोग केवल जनता के द्वारा दिया जाने वाले दान पर ही निर्भर न रहते थे वरन् उनके घरों पर जाकर द्वार द्वार पर भिक्षा भी माँगते थे। इस भिक्षाटन में बड़ा भारी रहस्य, महत्व और लाभ सन्निहित होता था। भिक्षा प्रयोजन को लेकर महात्मा लोग उन व्यक्तियों के घर पर भी स्वयमेव पहुँचने थे जो सत्संग के लिए ऋषि आश्रमों में पहुँचने का समय नहीं निकाल पाते थे। इन घरों में जाकर वे अधिक से अधिक पाँच ग्रास तक भिक्षा ग्रहण करते थे, इससे अधिक इसलिए नहीं लेते थे कि देने वाले पर अधिक भार न पड़े, उसकी आर्थिक स्थिति को आघात न पहुँचे। भिक्षा लेकर वो चम्पत न हो जाते थे वरन् दाता के घर की स्थिति मालूम करते थे और उसकी कठिनाइयों को हल करके महत्वपूर्ण पथ प्रदर्शन करते थे। कहना न होगा कि इस प्रकार का भिक्षाटन उन लोगों का स्वर्ण सौभाग्य होता था जिनके घर पर ऐसे भिक्षुक जा पहुँचते थे। दो चार ग्रास अन्न देना या लेना कुछ महत्व नहीं रखता पर इस बहाने थोड़े समय के लिए भी जिन्हें उन महात्माओं को अपने दरवाजे पर पधारने का सौभाग्य मिल जाता था वे उनके बहुमूल्य उपदेशों से कृत्य कृत्य हो जाते थे। बीमारी गरीबी, क्लेश, कलह, अनीति, भीति, भ्रान्ति आदि की दारुण कठिनाइयों से वह सत्संग, गृहस्थों को अनायास ही पार लगा देता था। आज वकील, डॉक्टर, वैज्ञानिक, प्रोफेसर आदि की सलाह या सेवा लेनी हो तो उसके बदले उनकी खुशामद के साथ मोटी रकम अदा करनी पड़ती है, परन्तु उस समय इन सब योग्यताओं के भंडार ऋषि लोग पाँच ग्रास भिक्षा माँगने के लिए जनता जनार्दन के द्वार द्वार पर पहुँचते थे और इस बहाने से जनता को अपनी अमूल्य सम्मतियों से उपकृत करते थे।

इसके अतिरिक्त भिक्षा के दो और भी प्रयोजन हैं एक तो वह कि दान देने से देने वाले को त्याग का, परोपकार का, पुण्य का, आत्म संतोष प्राप्त होता था दूसरा यह कि उन ऋषि कल्प ब्राह्मणों को अपने अभिमान एवं अहंकार के परिमार्जन करते रहने का अवसर मिलता था। भीख माँगकर जीविका ग्रहण करने से विनय, नम्रता, निरभिमानता कृतज्ञता एवं ऋणी होने का भाव उनके मन में जाग्रत बना रहता था। वे अपने में लोक सेवक, परोपकारी तथा महात्मापन की अहंमन्यता उत्पन्न न होने देने के लिए भिक्षुक की तुच्छ स्थिति ग्रहण करते थे। ऐसे भिक्षुकों को दान देते हुए देने वाले अपना मान अनुभव करते थे और लेने वाले निरभिमान बनते थे। इससे उन दोनों के बीच सुदृढ़ सौहार्द उत्पन्न होता था। भिक्षा वृत्ति करने वाले की अपेक्षा, देने वाले को ही अधिक लाभ रहता था। इस परमार्थ और परमार्थ की भावना से ब्रह्मजीवी महात्माओं के लिए भिक्षा का विधान किया गया था।

इस प्रकार यज्ञार्थ भिक्षा ब्राह्मणों द्वारा ग्रहण की जाती थी, वे इस प्राप्त हुए धन को लोक कल्याण के, जनता की सुख समृद्धि की वृद्धि के कार्यों में व्यय करते थे, अपना शरीर और मन उन्होंने परमार्थ में लगा रखा होता था, इन शरीरों को क्षुधा, तृषा, शीत, धूप निवारण से रक्षा के लिए भी कुछ व्यय हो जाता था तो वह भी यज्ञ की आहुति के समान ही फलदायक होता था। ब्राह्मणों को दान दक्षिणा या भिक्षा देने का यही वास्तविक तात्पर्य था, ब्राह्मण इसीलिए भिक्षा जीवी होते थे। जो व्यक्ति या जो संस्था, लोक हित के कार्यों में लगे हैं, वह ब्राह्मण है, उसे भिक्षा माँगने या प्राप्त करने का अधिकार है। यज्ञार्थ के लिए भिक्षा उचित है, शास्त्र सम्मत है। ब्रह्म कार्यों के लिए या ब्रह्म जीवी व्यक्तियों के लिए भिक्षा का प्रयोजन धर्म सम्मत है।

इसके अतिरिक्त दूसरी श्रेणी ‘विपद् वारणाय’ है। संकट ग्रस्तों का संकट दूर करने के लिए, सहायता देना मानवीय अन्तःकरण का दैवी तत्व को सुरक्षित रखने एवं विकसित करने के लिए आवश्यक है। इससे मनुष्य में दया उत्पन्न होती है। दुखियों का दुख देखकर हर एक सच्चे मनुष्य का हृदय करुणा से पूरित हो जाता है और आँखें छलक पड़ती हैं। इस दैवी प्रेरणा को तृप्त करने से ही मनुष्य परमात्मा के निकट पहुँचता है। दूसरों को कष्ट में देखकर जो लोग अपना कलेजा पत्थर का कर लेते हैं-निष्ठुरता धारण कर लेते हैं- अनुदारता एवं स्वार्थपरता में निमग्न होकर उनकी ओर उपेक्षा प्रकट करते हैं ऐसे मनुष्य असुरता को प्राप्त होकर नर पिशाच का जीवन बिताते हैं। पीड़ितों की सहायता करना, दुखियों को दुख से छुड़ाना, आवश्यक है, इसके लिए शरीर से, बुद्धि से, धन से जैसे भी बन पड़े सहायता करनी चाहिए। विपद् वारणाय भिक्षा देनी चाहिए।

अग्निकाँड, जल प्रवाह, अकाल, चोरी, आक्रमण, अन्याय, दुर्दैव आदि किसी आकस्मिक कारण से जो लोग असहाय हो गए हों, जिनकी अपनी सामर्थ्य नष्ट हो गई हो, गिर पड़े हों, अपने पैर पर आप खड़े न हो सकते हों, उनको सहायता देने की आवश्यकता है। जिनका शरीर एवं मस्तिष्क उपार्जन शक्ति के लिए बिल्कुल अनुपयुक्त हो गया हो उनको सहायता की जरूरत है। इस प्रकार के व्यक्तियों को पैसे की सहायता जरूरी होती है। परन्तु अन्य अनेक प्रकार के पीड़ित ऐसे हैं जिन्हें पैसे की नहीं, शरीर एवं बुद्धि की सहायता आवश्यक होती है। शोक, चिन्ता, उद्विग्नता, क्लेश, कलह, निराशा, भय, ईर्ष्या, क्रोध, लोभ, तृष्णा, अहंकार, द्वेष, दम, अज्ञान आदि मानसिक संकटों से अनेक मनुष्य ग्रसित होते हैं, वे उतना ही कष्ट पाते हैं जितना कि कठिन रोगों के रोगियों को कष्ट होता है। ऐसे लोगों की पैसे से सहायता हो जाय तो कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, उनके लिए बुद्धि द्वारा, विवेक द्वारा, जो सहायता पहुँचाई जाती है वही सच्ची सहायता है। जिनके पास पैसा है, जो आसानी से अपने स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त पैसा खर्च कर सकते हैं उन्हें मुफ्त दवा बाँटना निरर्थक है। उन्हें उपयोगी चिकित्सा विधि का मार्ग बताना एवं उस मार्ग तक पहुँचने में क्रियात्मक सहायता देना पर्याप्त है। किसी करोड़पति अमीर को तपैदिक हो जाय तो उसे मुफ्त दवा की आवश्यकता नहीं, उत्तम चिकित्सक तथा उत्तम चिकित्सा स्थान के परिचय की आवश्यकता है। इस प्रकार की सहायता देना और उपयुक्त साधन से मिला देना पर्याप्त है।

गरीब आदमी को पैसा देने मात्र से काम नहीं चलता। उसे गरीबी से छुड़ाने के लिए किसी कारोबार से लगा देना होगा बहुत से गरीब ऐसे हैं जिनकी शारीरिक योग्यताएं कुछ काम करने योग्य हैं, बहुत से अंग भंग मनुष्य, अंधे, असमर्थ, भी ऐसे होते हैं जो शरीर के अन्य अंगों से काम लेकर जीविका उपार्जन कर सकते हैं। जैसे लंगड़े आदमी, हाथ से हो सकने वाले धंधे कर सकते हैं, अंधे, गूँगे, बहरे, कुबड़े भी किसी न किसी प्रकार की मजूरी कर सकते हैं। जिनके शारीरिक अंग असमर्थ हैं उन्हें यदि पढ़ा लिखा दिया जाय तो वे वाणी, विचार और बुद्धि से हो सकने वाले अध्यापकी आदि कार्य कर सकते हैं। गरीबों या असमर्थों को तात्कालिक आरंभिक कुछ सहायता की आवश्यकता आवश्यक होती है पर उनकी सच्ची सहायता यह है कि उन्हें समझा बुझाकर काम करने, स्वतंत्र जीविका उपार्जन के लिए तैयार किया जाय और उनके उपयुक्त काम ढूँढ़ देने की व्यवस्था बनाई जाय। इसी प्रकार अग्निकाण्ड-जल प्रवाह, अकाल, आक्रमण चोरी आदि से पीड़ित व्यक्तियों को आरंभ में तात्कालिक सहायता पहुँचाने के बाद अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य बनाने में मदद करनी चाहिए। विपत्ति में पड़े हुए व्यक्तियों को आरंभ में कुछ धन की सहायता होती है। परन्तु वस्तुतः उन्हें उठाकर खड़े कर देने के लायक साधन और मनोबल देने की अधिक जरूरत रहती है।

स्थायी रूप से उन विपद् ग्रस्तों को भिक्षावृत्ति ग्रहण करने का अधिकार है जो शरीर और बुद्धि की दृष्टि से बिलकुल असमर्थ हैं। जिनको निकट कुटुम्बियों से सहायता प्राप्त करने की भी सुविधा नहीं हैं। अनाथ, बालक, गरीब, रोगी, पागल, अतिवृद्ध, अपाहिज तथा कोढ़ आदि अस्पर्श्य रोगों वाले व्यक्ति स्थायी रूप से दान के अन्न से अपना निर्वाह कर सकते हैं। ऐसों की जीवन रक्षा करने के लिए जीवनोपयोगी अन्न वस्त्र एवं निवास स्थान आदि की सुविधाएं देना समाज का कर्तव्य है।

यहाँ स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि विपद ग्रस्तों को दूसरों की वही सहायता लेनी चाहिए जो वे अपनी शेष शक्तियों से नहीं कर सकते। वह सहायता उन्हें उतने ही समय तक एवं उतनी ही मात्रा में लेनी चाहिए जिससे वे अपने पैरों पर खड़े हो जावें। फिर जो सहायता लें उसे कर्ज रूप से ग्रहण करें और मन में दृढ़ संकल्प रखें कि समर्थ होते ही उस सहायता को दूसरे पीड़ितों को ब्याज समेत चुका देंगे। असहाय या असमर्थ व्यक्तियों को भिक्षा अन्न के बदले लोक कल्याण की शुभ कामनाएं, आशीर्वादात्मक सद्भावनाएं देते रहना चाहिए और मन में ध्यान रखना चाहिए, इस जन्म में या अगले जनम में समर्थ होने पर इस ऋण को समाज के लिए पुनः लौटा देंगे। इस प्रकार विवेक पूर्वक लिया हुआ और दिया हुआ दान ही सार्थक होता है। उसी को वास्तविक दान कह रह सकते हैं। -अपूर्ण

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