
कल्याण-कुँज
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(श्री शिव)
पुराने इतिहासों, पुराणों और अन्य ग्रन्थों से पता लगता है कि किसी जमाने में मनुष्य प्राप्त भोग सुखों को छोड़कर परमात्मसुख के लिये लालायित था। उसने अपने जीवन का उद्देश्य ही मान रखा था आत्मा को जानना-परमात्मा को प्राप्त करना। गर्भाधानकाल से इसी के लिये तैयारी होती थी और जीवनभर इसी की शिक्षा दी जाती थी। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास-ये चार आश्रम और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-ये चार वर्ण मनुष्य के इस अन्तिम ध्येय की प्राप्ति के लिए ही बनाये गये थे और इनकी सुव्यवस्थापूर्ण पद्धति मनुष्य को क्रमशः परमात्मा की ओर ले जाती थी। शिक्षा का उद्देश्य ही था मनुष्य को पूर्ण सुख की प्राप्ति के साधन बतला देना।
समय ने पलटा खाया, मनुष्य की दृष्टि नीचे उतरी, ध्येय पदार्थ नीची श्रेणी का हो गया, अब तो यहाँ तक हुआ कि भोग सुख ही जीवन का लक्ष्य समझा जाने लगा। अपना सुख या देश का सुख- जो छोटे दायरे में है, वह अपने सुख के लिए यत्नवान है, जो बड़े दायरे में है वह देश के सुख के लिये चेष्टा कर रहा है, इसके अन्दर भी निज सुख की इच्छा तो छिपी है ही। फिर उस सुख का स्वरूप क्या है? खूब धन हो, सम्मान हो, सत्ता हो, अधिकार हो, प्रभुत्व हो। इनकी प्राप्ति के लिये चाहे जिस साधन का प्रयोग करना पड़े, चाहे जिस उपाय से काम लिया जाय, झूठ, कपट, छल, द्रोह, हिंसा किसी के लिये रुकावट नहीं, काम होना चाहिये, सफलता मिलनी चाहिए। आश्चर्य तो इसी बात का है कि मरणधर्मा मनुष्य दूसरे को लूटकर, मारकर स्वयं सुख शान्ति से (!) जीना चाहता है।
परन्तु क्या किया जाय! विद्यालय, विश्व-विद्यालय, आश्रम, मठ, मन्दिर, सभी जगह यही शिक्षा मिल रही है, बस, धनवान बनो, अधिकार प्राप्त करो, सत्ता लाभ करो, इस लोक का सुख ही, सुख है, यहाँ का अधिकार ही जीवन का लक्ष्य है, यह न हुआ तो जीवन वृथा गया। परिणाम प्रत्यक्ष है। आज चारों ओर अधिकार की लड़ाई शुरू हो रही है, लोगों के जीवन दुःख-मय बन गये हैं, कोई अधिकार प्राप्ति के लिये व्याकुल है तो कोई अधिकार रक्षा के लिए। क्या कहा जाय! हमारा तमाम जीवन ही बाह्य हो गया, बाह्य वस्तुओं के लिये- इन्द्रिय भोगों के लिये बिक गया। माँस के टुकड़ों के लिए चील-कौओं की सी लड़ाई होने लगी।
किसी जमाने में परमात्मा की प्राप्ति के लिए तप होते थे । आज भोगों की प्राप्ति के लिये होते हैं! कभी भगवान के प्रति आत्मसमर्पण होता था, आज भोगों की प्रतिमा पूजी जाती है! कभी देहात्मबोध छोड़कर ब्रह्मत्मबोध किया जाता था। अब ब्रह्मत्मबोध की अनावश्यकता समझी जाकर उस मार्ग के पथिकों को भी देहात्मबोध की शिक्षा दी जाती है! बड़े-बड़े मनीषी, तपस्वी, संयमी पुरुष भी आज भोगों की प्राप्ति करने कराने के लिये जीवन की और धर्म की बाजी लगाये बैठे हैं, और इसी को धर्म समझा जा रहा है! इस भोगपरायणता- इंद्रियसुखपरता का परिणाम क्या होता है? मनुष्यों में राक्षसी भावों का उदय, द्वेष-हिंसा-प्रतिहिंसा का प्राबल्य, घोर अशान्ति और सुख के नाम पर दुःखपूर्ण जीवन-यापन।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भोग सुख और भौतिक सत्ता सामर्थ्य से सम्पन्न समुन्नत कहाने वाले देशों की भीतरी दशा है। परन्तु इस दशा को भी देखना होगा ईश्वराभिमुखी ज्ञानसम्पन्न ऋषि-नेत्रों से, हमने ये नेत्र खो दिये, कम से कम हमारे इन नेत्रों पर जाले छा गये, इसी से हम विपरीत-दर्शी हो रहे हैं। वहाँ की सभी बातें हमें अच्छी लगती हैं चाहे वह बुरी से बुरी हों, ऐसा जादू छाया है कि उसने हृदय को ही ‘पराया’ बना दिया। इसी के परिणामस्वरूप आज हम वहाँ के अनाचार में सदाचार, पाप में पुण्य, स्वार्थान्धता में देशभक्ति, अवनति में उन्नति, अधर्म में धर्म और पतन में उत्थान का विपरीत दृश्य देख रहे हैं, और सब ओर उसी के प्रवर्तन की अन्धचेष्टा में तत्पर हैं।
जहाँ सुख है ही नहीं, वहाँ सुख को खोजना वैसा ही है जैसा तप्त मरुभूमि में जल समझ कर भटकना। भगवान श्री कृष्ण ने तो इस जगत् को ‘अनित्य’ और ‘असुख’ अथवा ‘दुःखालय’ और ‘अशाश्वत’ बतलाया है और इसके प्रत्येक पदार्थ में ‘जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि’ रूप दुःख-दोष देखकर इससे वैराग्य करने की आज्ञा दी है और वैसा बनकर ही जगन्नाटक के सूत्रधार भगवान के आज्ञानुसार अपने-अपने स्वाँग के अनुकूल अभिनय करने को निष्काम कर्म बतलाया है। आज हम भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा मानकर लड़ने मरने को तो प्रस्तुत हैं परन्तु भोगेच्छा छोड़कर वैराग्य ग्रहण करने के लिए जरा भी तैयार नहीं। फलस्वरूप निष्काम कर्मयोग के स्थान पर विकर्म-पापकर्म होते हैं-भोग सुखेच्छा से प्रेरित होकर राग द्वेष वश किये जाने वाले असत्य, कपट और हिंसायुक्त कर्म पाप न होंगे तो क्या होंगे? पाप का फल दुःख होता ही है, उसी का भोग भी हम खूब भोग रहे हैं। आश्चर्य और खेद तो यह है कि गीता की दुहाई देकर आज मनमाने आचरण किये जा रहे हैं।
आज जो कुछ हो रहा है इसके अधिकाँश में न ज्ञान है, न निष्काम कर्म है और न भक्ति है। ज्ञान में प्रधान बाधा है देहाभिमान की, सो उसको खूब बढ़ाया जा रहा है। निष्काम कर्मयोग में प्रधान बाधक है स्वार्थबुद्धि। जिसकी वृद्धि के लिये प्रत्येक सम्प्रदाय और दल जोरों के साथ संगठित हो रहे हैं, और भक्ति में प्रधान प्रतिबन्धक है शरणागति में कमी-भगवान् पर पूर्ण निर्भर न होना, सो यह भी प्रत्यक्ष ही है। सच्चा ज्ञानी सच्चा निष्काम कर्मी और सच्चा भक्त कभी छल, कपट, दम्भ, असत्य, अन्याय और हिंसा आदि का अवलम्बन नहीं कर सकता।
क्योंकि ज्ञान के साधन में देहात्मबुद्धि का-शरीर में ‘मैं’ बुद्धि का त्याग करना पड़ता है, उसके लिये आत्मा शरीर से उसी प्रकार अलग है, जिस प्रकार दूसरे शरीर से हमारा शरीर। यह स्थिति प्राप्त होने पर अर्थात् देहात्मबुद्धि के छूट जाने पर पापकर्म नहीं बन सकते। इस प्रकार स्वार्थबुद्धि के परित्याग हो जाने पर ईश्वरार्थ किये जाने वाले निष्काम कर्म भी पापयुक्त नहीं हो सकते और भगवद्भक्ति में तो मनुष्य भगवान के शरण ही हो जाता है, उस अवस्था में उसके दूषित भावों का त्याग स्वाभाविक ही होता है। जहाँ दुष्कर्म होते हैं, सफलता के लिए शास्त्र-विरुद्ध कर्मों का, पापों का आश्रय लिया जाता है, वहाँ ज्ञान, निष्काम कर्म और भक्ति स्वप्न देखना मोह मात्र है।
इस मोह का भंग होना आवश्यक है, परन्तु हो कैसे? अज्ञानजनित भोग लोलुपता के अन्धकार ने हमारे ज्ञान को ढक लिया है और चारों ओर से इस अन्धकार को और भी घना करने का अथक प्रयत्न हो रहा है। इस अन्धकार की घनता को ही ज्ञान का प्रकाश कहा जाता है। मनुष्य की बुद्धि आज उल्लू और चमगादड़ की दृष्टि जैसी हो गयी है, जैसे इन पक्षियों को दिन में अंधेरा और रात को प्रकाश दिखता है, वैसे ही हम भी आज अन्धकार में ही प्रकाश का भ्रम हो रहा है, इसी से हम ‘कामोपभोग परायण’ होकर सैकड़ों आशा की फाँसियों में बंधे हुए काम क्रोधादि साधनों से ‘कामभोगार्थ’ ‘अन्यायपूर्वक अर्थप्राप्ति’ के उपायों में लग रहे हैं। मोह ने हमें घेर लिया है। अभिमान ने हमें अन्धा कर दिया है। लोभ न हमारी वृत्ति को बिगाड़ दिया है। मद ने हमें उन्मत्त बना दिया है। इसी से आज हम अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध, का आश्रय लेकर ‘सर्वभूतस्थित’ भगवान के साथ द्वेष करने लगे हैं। इन आसुरी भावों का परिणाम नरक की यन्त्रणाएं और अधम गति के सिवा और क्या हो सकता है?
उपाय क्या है? उपाय है-भगवदाराधन! जिन लोगों को भगवान में कुछ भी विश्वास है वे सबकी ऐसी बुद्धि होने के लिये भगवान से सरल श्रद्धायुक्त अकृत्रिम प्रार्थना करें। उठते हुए भगवद्विश्वास को अपने शुभ आचरण और सच्ची भक्ति के द्वारा फिर जमावें। भगवत् श्रद्धा के सूखते हुए वृक्ष की जड़ को सच्ची निर्भरता की अश्रुजल-धारा से सींचें। आप्त वचनों पर श्रद्धा करें। ऋषि मुनियों को भ्रान्त मानना छोड़ दें। जीवन को तप संयम से पूर्ण बनाकर भगवत्कृपा का आश्रय ग्रहण करें। अटल विश्वास तथा परम श्रद्धा के साथ भगवान् के चरणों की सेवा करें और उनके पवित्र नाम का जप करें।
मनुष्य को सावधान होकर यह सोचना चाहिये कि यहाँ सभी भोग सुख अनित्य हैं, बिजली की भाँति चंचल हैं। शरीर कच्चे घड़े के समान अचानक जरा सी ठेस लगते ही नष्ट हो जाने वाला है, इसलिए भोगों से मन हटाकर भगवान में प्रेम करें। भगवान के लिये ही जगत् के सारे कारे कार्य करें। जगत् के लिये भगवान् को कभी नहीं भुलाया जाय। भगवान् के लिए जगत् को छोड़ना पड़े तो आपत्ति नहीं, परन्तु जगत् के लिये भगवान् कभी न छूटें। यदि मनुष्य इस प्रकार निश्चय कर ले तो फिर जगत् के छोड़ने की भी जरूरत नहीं पड़ती, सारा जगत् भगवन्मय ही तो है।