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Magazine - Year 1949 - Version 2

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ब्राह्मणत्व की महान जिम्मेदारी

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संसार में सबसे बड़ी गौरवास्पद वस्तु ‘बुद्धि’ है। बुद्धिबल की अधिकता से ही मनुष्य का बड़प्पन कूता जाता है। बड़प्पन प्राप्त करते ही उसके ऊपर अपने से छोटों के हित का ध्यान रखने की जिम्मेदारी आ जाती है। घर का प्रमुख, जिसे बाबा या दादा कह कर पुकारते हैं, स्वयं बहुत किफायतशारी का जीवन बिताता है और छोटे बाल बच्चों को अपनी कमाई के पैसों से खिला पिला कर पहना उढ़ाकर प्रसन्न होता है। विद्यावान भी ऐसा ही बुजुर्ग है जिसे अपने लिए उस तरह की चमक दमक की चीजें रुचिकर नहीं होती जैसी कि बच्चों को होती है। अपनी विद्या द्वारा अपना ही बड़प्पन बढ़ाना उसे निरा बालकपन और अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल दिखाई पड़ता है। दादी यदि नातनियों की जैसी बेल बूटे की, गोटे पट्टे की पोशाक पहनना आरम्भ कर दे तो लोग उसे देखकर हंसते लोट पोट हो जायेंगे, कहेंगे इस बुढ़िया को बुढ़ापे में कैसा शौक चर्राया है। यह बात उन ज्ञान-वृद्धों के संबन्ध में कही जायेगी जो विद्या का, बुद्धि का विवेक का महान गौरव ग्रहण करके बुजुर्ग बन चुके हैं परन्तु ऐश-आराम शौक-मौज और धन-संचय की बालक्रीड़ा में जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों का अपव्यय कर रहे हैं।

जब हम अपने प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें विद्यावानों की ईमानदारी की निर्मल झाँकी होती है। जो जितना ही ज्ञान संपन्न है वह उतना ही त्यागी बनता है। ठीक भी है जो वृक्ष फलों से जितना लदता है वह उतना ही झुक जाता है, विद्या के भार से झुके हुए ब्राह्मण लोक सेवा के लिए अपना मस्तक झुका देते हैं और एक अकिंचन किंकर की तरह समाज हित के लिए जीवन व्यतीत करते हैं। ऋषियों का, मुनियों का, ब्राह्मणों का, ज्ञानियों का, विवेकवानों का जीवन सदा ही त्यागमय होता है। वनों में घास फूँस की झोपड़ी बनाकर वे अपना निर्वाह करते हैं, शरीर पर वही वस्त्र रखते हैं जो अत्यावश्यक है। घास का बिछौना, लकड़ी के जूते, कट्टू का कमंडल, काठ के पात्र उनकी सादगी के चिह्न हैं। संग्रह को पाप समझना, केवल उतनी ही चीजें रखना जो तात्कालिक आवश्यकता के लिये बहुत ही जरूरी हैं, उनकी नीति है। पीपल-वृक्ष के छोटे-छोटे फलों को खाकर गुजारा करने वाले ऋषि का नाम ‘पिप्पलाद’ पड़ जाता है। खेतों में गिरे हुए दाने-कण-बीज बीन कर काम चलाने वाले महर्षि को ‘कणाद’ कहकर पुकारते हैं। एक बड़े साम्राज्य का महामंत्री होने पर भी महर्षि चाणक्य अपनी कुटिया में ही निवास करते हैं और ब्राह्मणोचित सादगी के साथ त्यागपूर्ण जीवन बिताते हैं। कौरवों के गुरु होते हुए भी द्रोणाचार्य अपने लिए कोई जागीर नहीं लेते वरन् संतों के उपयुक्त सादगी के साथ रहते हैं। रघुवंशियों के गुरु वशिष्ठ जी की सलाह के बिना उन राजाओं का पत्ता नहीं हिलता था फिर भी वशिष्ठ जी का रहन-सहन सच्चे ब्राह्मण की मर्यादा से बाहर जाकर राजसी कभी नहीं हुआ। दो चार उदाहरण देने से काम न चलेगा, आदि से अन्त तक सभी ऋषि, सभी ब्राह्मण एक से एक बढ़कर विद्यावान हैं साथ ही उनका त्याग भी एक से एक का बढ़कर है। उन्होंने अपने लिए अपनी शक्तियों का न्यूनतम भाग खर्च किया है और शेष योग्यताओं को, बचे हुए सारे समय को, जनता के लिए, देश के लिए, समाज के लिए, धर्म के लिए, परमात्मा के लिए लगाया है। तभी तो यह भारत भूमि देव भूमि बन सकी थी, तभी तो वैदिक संस्कृति की ध्वजा आकाश में फहराती थी। तभी तो चक्रवर्ती आर्य साम्राज्य था, तभी तो हमारे घरों पर सोने के कलश रखे रहते थे और मोतियों के चौक पुरते थे। घर-घर में आनन्द मंगल होते थे, कहीं भी किसी प्रकार का कष्ट न था। ब्राह्मणों के तप का फल सारा राष्ट्र भोगता था।

उस स्वर्ग-युग की आज के विद्यावान, बुद्धिमान का, विवेकवान का नाम ही ब्राह्मण है। अमुक वंश में जन्म लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, हाँ, ब्राह्मण बनने का दंभ कर सकता है। ब्राह्मण वही है जिसके पास विद्या, बुद्धि की पूँजी है। इस प्रकार के विद्या के धनी-ब्राह्मण आज कम नहीं हैं। हमारे विद्यालय (कालेज) और विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटियाँ) प्रतिवर्ष सहस्रों स्नातक (ग्रेजुएट) तैयार करती हैं। गैर सरकारी, धार्मिक प्रयोजन से चलने वाली शिक्षा संस्थायें भी प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में सुशिक्षित व्यक्ति तैयार करती है। अध्यवसाय और व्यक्तिगत प्रयत्नों से कितने ही मनुष्य बुद्धिबल प्राप्त करते हैं, यह सब मिलकर बहुत बड़ी संख्या हो जाती है। परन्तु हम देखते हैं कि विद्यावानों का यह ब्राह्मण वर्ग अपनी इस महत्वपूर्ण ज्ञान शक्ति को उस दिशा में प्रवृत्त करता है जिससे उनको अधिक पैसे मिल सकें और उन पैसों को उन कामों में खर्च करता है जिससे उन्हें अधिक ऐश-आराम, शान-शौकत, प्राप्त हो सके। पैसे जितने अधिक मिलते हैं उतनी ही उनकी आवश्यकताएं और तृष्णाएं बढ़ती जाती हैं। अन्ततः उस विद्या के बदले में प्राप्त हुए मर्यादित धन, उन अमर्यादित तृष्णाओं और बढ़ाई हुई आवश्यकता के मुकाबले में कम ही पड़ता रहता है और जी तोड़ प्रयत्न करने पर भी वह अपने को गरीब ही अनुभव करता रहता है।

जो लोग अपनी प्रचंड तर्क शक्ति और न्याय विशेषता के द्वारा लोगों को प्रभावित करके उन्हें अनीति से विरत कर सकते थे, न्याय का प्रचार कर सकते थे, अन्याय का निवारण कर सकते थे, झगड़ों को मिटा सकते थे, वे वकील अपने कानूनी पाण्डित्य को मुकदमेबाजों को प्रोत्साहन देने में खर्च कर रहे हैं। गवाहों को, मुवक्किलों को झूठ बयान सिखाने में अपनी चतुरता खर्च कर रहे हैं। इस रीति से बेशक उन्हें अधिक पैसे मिल जाते हैं पर जन-साधारण के लिए वह विद्या अभिशाप ही सिद्ध होती है। उनसे संसार में द्वेष की, असत्य की, मन मुटाव की, अपव्यय की वृद्धि होती है और लोगों में अशान्ति एवं क्लेश का ही अभिवर्धन होता है। क्या विद्या का यही प्रयोजन है? क्या विद्वानों का यही उत्तरदायित्व है?

कौन डॉक्टर रोगियों को प्राकृतिक आहार-विहार का महत्व समझाता है, निरोग रहने के नियमों पर सदा चलने के लिए रोगी को तैयार करता है। उनका तो कार्य आज इतना ही रह गया है कि मामूली बीमारी को भयंकर बताकर रोगी को डरा दें। जिससे वह घबराकर अधिक से अधिक पैसे देने को तैयार हो जाय, दूसरा कार्य उनका यह रह गया है कि मामूली दवा को भड़कीले नाम और पैकिंग के साथ वेश-कीमती बताकर मनमाने दाम वसूल कर लेना। कुछ समय के लिए वे एक रोग को दवा दे सकते हैं पर धीरे-धीरे रोगी का घर नाना प्रकार की बीमारियों का अजायब घर बनता जाता है। इस डाक्टरी से संसार का क्या लाभ हुआ? वे यदि चाहते तो निरोग रहने के नियमों पर चलने के लिए रोगी को तैयार कर सकते थे जिससे वह तथा उसका अनुकरण करने वाले अन्य लोग बीमारी और दवाई के चंगुल से बच जाते पर आज उस उत्तरदायित्व को कौन डॉक्टर पूरा करता है।

अध्यापक को लीजिए वह चाहे तो कच्ची लकड़ी की तरह मोड़कर, गीली मिट्टी की तरह दबाकर अपने छात्रों को चाहे जैसा बना सकते हैं। पर आज समर्थ गुरु रामदास कहाँ हैं, जिनके शिष्य शिवाजी निकले। आज संदीपन कहाँ हैं जिनके छात्र योगिराज कृष्ण बने, द्रोण कहाँ है, जिनके शिष्य धनुर्धर अर्जुन निकले, विरजानंद कहाँ है जिनके शिष्य दवानन्द बनें। आज तो वेतन भोगी मास्टर रह गये हैं जिनके स्टूडेंट सामने ही मुँहजोरी करते हैं और पीठ पीछे उन्हें उल्लू बनाते हैं। ट्यूटर डरते रहते हैं कि कहीं उनका विद्यार्थी नाराज न हो जाय नहीं तो ट्यूशन की नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। आयोदधौम्य जैसे गुरु ही नहीं तो गुरु की आज्ञा पालन के लिए प्राणों की बाजी लगा देने वाले आरुणि और उपमन्यु जैसे छात्र कहाँ से आवें? अध्यापक वर्ग चाहता तो अपने उज्ज्वल चरित्र की छाप छात्रों के ऊपर लगाकर उन्हें किसी उत्तम साँचे में ढाल सकता था। पर वह दृष्टि हो तब न? ब्राह्मणत्व की आग किसके हृदय में जलती है? विद्या को ईश्वरीय अमानत कौन मानता है? पढ़ाना और बदले में रोटी कमाना एक सीधा सा व्यापार बन गया है। गुरु के महानपद का भार वे कैसे उठा सकते हैं जिनके सामने जीविका ही एक मात्र आधार है।

पंडित, पुरोहित, पुजारी, साधु, संन्यासी आदि का उत्तरदायित्व इन सबसे बड़ा है क्योंकि जनता केवल इसीलिए दान देकर उनके सारे खर्चे अपने ऊपर लेती है कि वे अर्थ उपार्जन की चिन्ता से मुक्त होकर अपना सारा समय मनुष्यों का बौद्धिक स्तर ऊंचा उठाने में लगावें। मन्दिर एक प्रकार से सार्वजनिक संस्था के रूप में स्थापित किये जाते थे जिनमें पाठशाला, व्यायामशाला, आरोग्यशाला, स्वाध्यायशाला, सत्संग, अध्यात्म साधन आदि की अनेकों लोकोपयोगी प्रवृत्तियाँ संचलित होती थी। इन प्रवृत्तियों का संचालन करने के लिए जो विद्वान सदाचारी कर्मनिष्ठ ब्रह्मवृत्ति का लोक सेवक रहता था उसे पुरोहित या पुजारी कहते थे। इस पुरोहित को सम्मान सहित जीविका देने के लिए भगवान का भोग मंदिर का चढ़ावा आदि निमित्त रखे गये थे। जिससे लोग भगवान की नियत पूजा की अनिवार्यता को न भूलें और पुरोहित के खर्च में कमी न पड़ने पावे। यही बात सोलह संस्कार यज्ञ आदि कर्मकाण्ड कथा पर चढ़ावा पर्वदान, ब्रह्मभोज आदि की दक्षिणा के नाम पर अन्य पुरोहितों की जीविका के लिए चालू की गई थी। इस प्रकार इन बुद्धि-जीवी ब्रह्म परायण व्यक्तियों को उपार्जन की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी और वे यजमानों को, उनके स्त्री बच्चों को सदैव बुद्धिदान देकर ज्ञान का प्रसार करते हुए घर-घर में आनन्द की वृद्धि किया करते थे, मनुष्य बना कर संसार की सबसे बड़ी सेवा किया करते थे। इतने बड़े, इतने महान कार्य के उपलक्ष में, उनके त्याग, संयम और बुद्धिबल से प्रभावित हुई जनता ब्राह्मणों में असीम श्रद्धा रखती थी, उनके चरण स्पर्श करती थी, उन्हें बड़े से बड़ा सामाजिक सामान प्रदान करती थी।

आज ऐसे ब्राह्मण कहाँ हैं? वंश विशेष में जन्म लेने मात्र से वे ब्राह्मण होने का अहंकार करते हैं, ब्रह्म सम्मान को प्राप्त करने का दावा करते हैं, यजमानों से दान दक्षिणा पाना अपना अधिकार समझते हैं। जनता श्रद्धा या असम्मान से, इच्छा या मजबूरी से किसी कदर अपना भाग अदा करती है, लाखों करोड़ों रुपया प्रतिमास दान के रूप में दिया जाता है परन्तु हम देखते हैं कि इन दानजीवी व्यक्तियों में से ऐसे लोक सेवक उंगली पर गिनने लायक मिलेंगे जो दान प्राप्त करने के फलस्वरूप स्वभावतः कंधे पर आने वाली लोक सेवा की जिम्मेदारी को पूरा करते हैं। मुफ्त का माल और बिना सेवा का सम्मान प्राप्त करने के फलस्वरूप उनमें नाना प्रकार के दोष दुर्गुण उत्पन्न हो चले हैं। आलस्य, ठगी, याचकता की निर्लज्जता, अहंकार मिथ्या विश्वासों का प्रसार करके अपने लाभ की वृद्धि करना, नैतिकता का पतन, दुर्व्यसन, हीनत्व की भावना, दंभ पाखंड आदि अनेकों दोष दुर्गुणों से दिन-दिन अधिक ग्रस्त होते चले जा रहे हैं। ऐसे लोग अपने आप में एक पाप के, एक पतन के, एक अनैतिकता के, एक बुद्धिहीनता के प्रतीक हैं। फिर वे दूसरों की नैतिकता को, मनुष्यता को, बौद्धिक-स्तर को ऊंचा उठाने में किस प्रकार समर्थ हो सकते हैं।

हम जिधर दृष्टि पसार कर देखते हैं उधर ही ब्राह्मणत्व का लोभ सा हो चला प्रतीत होता है। यों ब्राह्मण वंश के लोगों की संख्या भारतवर्ष में तीन करोड़ से अधिक है पर सच्चे ब्राह्मण जो वस्तुतः ब्राह्मणत्व की जिम्मेदारी पूरी कर रहे हों, अपने ज्ञान बल से जनता का विवेक जागृत करने में (सर्वतोभावेन) लगे हुए हों, उँगलियों पर गिनने लायक मिलेंगे। ऐसी दशा में यदि हमारा सारा समाज गिरी हुई अवस्था में पड़ा रहे तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं। जिस घर का मुखिया, गृहपति, परिवार के प्रति अपना उत्तरदायित्व ठीक प्रकार न चलित कर रहा होगा तो उसके आश्रित अन्य परिजनों को दीन-हीन दशा में रहना पड़ेगा। शराबी मजदूर के बाल-बच्चों को दुख-दारिद्र से ग्रस्त जीवन व्यतीत करना पड़ता है। जिस समाज में उदार हृदय एवं समुन्नत मस्तिष्क नहीं होते, त्यागी नेताओं की कमी होती है उस समाज वालों को पतित अवस्था में रहना पड़ता है। भारतीय समाज को भी चिरकाल से ऐसे ही दुख भोगने पड़ रहे हैं।

संसार में दुख तीन प्रकार के हैं (1) अज्ञान जन्य (2) अशक्ति जन्य (3) अभाव जन्य। लोग अपनी मूर्खता से, कमजोरी या वस्तुओं की कमी से दुख पाते हैं। इन तीनों में भी अज्ञान सर्वप्रधान कारण है। उलझे हुए मस्तिष्क के, भ्रान्त विचारों के, कुसंस्कारी, अविचारी, अन्धविश्वासी मनुष्य साधारण सी बात को लेकर मन में भारी क्लेश की स्थापना कर लेते हैं और उस क्लेश से उद्विग्न होकर अपने लिए तथा दूसरों के लिए भारी संकट उपस्थित कर लेते हैं। जिन बातों को एक विचारवान व्यक्ति बिल्कुल साधारण समझता है और उन्हें हँसकर टाल देता है उन्हीं के लिए अविवेकी मनुष्य इतने उद्विग्न एवं उत्तेजित हो जाते हैं मानों जीवन का ध्रुव केन्द्र वह घटना ही हो। और उन छोटी वस्तुओं के मिलने या चले जाने से उनका सर्वस्व नष्ट हो रहा हो। संसार में प्रतिदिन घटित होती रहने वाली घटनाओं का वास्तविक मूल्याँकन करने की योग्यता का नाम ही तत्व ज्ञान है और उनका न होना भ्रान्ति, माया या अज्ञान है। इस अज्ञान के कारण लोग बहुत छोटी और बाल विनोद जैसी मामूली बात को बड़ा भारी महत्व दे देते हैं और तिल का ताड़ बनाकर अपने चित्त को दुखाते रहते हैं। जो लोग वस्तुस्थिति का मूल्याँकन नहीं कर सकते, उन्हें आये दिन किसी न किसी बहाने संताप होता ही रहेगा। कल्पवृक्ष उनके आँगन में लगा दिया जाये तो भी वे सुखी नहीं रह सकते। जीवन का आनन्द केवल वे ही उठा सकते हैं जो घटनाक्रम का ठीक मूल्याँकन कर सकते हैं, यह योग्यता स्कूल कालेजों की शिक्षा से नहीं आती वरन् जीवन विज्ञान की उस शिक्षा से आती है जो त्यागी, तपस्वी, मनन शील, विद्वान और लोक सेवी ब्राह्मणों द्वारा प्राप्त होती है।

स्कूली शिक्षा की आज खूब वृद्धि हो रही है। गणित, भूगोल, इतिहास, भाषा, शिल्प, रसायन चिकित्सा, व्यापार, कला-कौशल आदि की शिक्षा के लिए अनेकों शिक्षण संस्थान मौजूद हैं। इनके द्वारा शिक्षार्थियों को रोटी कमाने का रास्ता मिल जाता है परन्तु वह रास्ता नहीं मिलता जिस पर चलकर पारस्परिक प्रेम, भ्रातृभाव, उदारता, स्नेह, सदाचार, संयम, नम्रता, शिष्टाचार, सहनशीलता तथा घटनाओं का ठीक मूल्याँकन करना सीखा जाता है और उसके फलस्वरूप साधारण परिस्थितियों में भी सुख, शान्ति पूर्वक जीवन बिताया जाता है और निकटवर्ती लोगों को आनन्दमय रखा जाता है। इस विद्या के ऊपर ही मानव जीवन की सुख शान्ति निर्भर है। जिस व्यक्ति में या जिस समाज में यह विद्या जितनी अधिक मात्रा में होगी वह उतना ही सुखी, स्वस्थ और सम्पन्न रहेगा।

विद्यावान और बुद्धिमानों के पास जो बुद्धि वैभव है उसका उपयोग स्वल्प बुद्धिमानों को अधिक बुद्धिमान बनाने के लिए किया जाना चाहिए। इस कार्य में विद्वानों को अपना निज का स्वार्थ छोड़ना पड़ेगा, ऐश आराम और संयम की तृष्णा को घटाना पड़ेगा। जीवन निर्वाह की वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही सीमित रहना पड़ेगा। उनका यह त्याग बड़ा भारी त्याग है। बुद्धिमान मनुष्य ईमानदारी से भी काफी कमा सकते हैं फिर यदि वे बेईमानी पर उतर आवें तब तो कहना ही क्या है? अनेकों चतुर धनियों की तरह वे भी श्री सम्पन्न हो सकते हैं पर इस प्रलोभन से बचकर गुजारे मात्र से काम चलाना और शेष समय तथा शक्तियों को जनता जनार्दन की सेवा में समर्पित कर देना यही ब्राह्मणत्व का सच्चा आदर्श है, यह त्याग ही सच्चा तप है, तपस्वी ब्राह्मणों की इसी तपश्चर्या के फलस्वरूप सारा देश सारा समाज सुख सम्पन्नता का लाभ उठाता था। थोड़े सी नदियों से बड़े विस्तृत क्षेत्र धन धान्य से, वृक्ष वनस्पतियों से, फल फूलों से भरा-पूरा रहता है। यदि वे नदियाँ सूख जायं अथवा अपना जल दूसरों के उपयोग के लिए मुफ्त देने से इन्कार कर दें त्याग और सेवा के सिद्धाँत की अवहेलना कर दें तो वह नदियाँ पानी से चाहे कितनी ही भरी-पूरी क्यों न रहे यह निश्चित है कि वह प्रदेश शुष्क, कुरूप और श्री-विहीन हो जायगा। दुर्भाग्य से भारत भूमि और हिन्दू जाति को भी ऐसी ही बुरी स्थिति का सामना करना पड़ा है। ब्राह्मणों ने विद्या को अपनी व्यक्तिगत संपत्ति समझकर उसका उपयोग स्वार्थ साधन तक ही सीमित रखा फलस्वरूप उचित नेतृत्व और पथ प्रदर्शन के अभाव में जनता पथ भ्रान्त हो गई और ऐसी दशा में उसकी दीनता, दासता, भ्रान्ति, अनैतिकता, स्वार्थ परता आदि की उलझन भरी झाड़ियों में भटक जाना स्वाभाविक ही था।

श्रेष्ठता के चिन्हों में ‘दया’ सर्वप्रथम गुण है। जो श्रेष्ठ होगा उसके हृदय में छोटों के प्रति, निर्बलों के प्रति, दुखियों के प्रति करुणा की भावना अवश्य ही प्रस्फुटित होगी। कहते हैं कि- “दया बिना सन्त कसाई” कबीर की उक्ति है कि-

कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।

जो पर पीर न जानई सो काफिर बे पीर॥

संस्कृत भाषा में एक सन्त ने अपनी कामना का दिग्दर्शन इस प्रकार कराया है-

नत्वहं कामये राज्यं न सौख्यं न पुनर्भवम्

कामये दुःख तप्तानाँ प्राणिनामार्तनाशनम्॥

अर्थात् मैं राज्य की, सुख की, अच्छे पुनर्जन्म की इच्छा नहीं करता। मेरी तो एक मात्र कामना दुःखी प्राणियों के दुःख दूर करने की है।

यह निश्चित है कि संसार में जितने दुःख शोक, पाप, रोग, क्लेश, कलह, द्वेष, सन्ताप, उद्वेग आदि कष्ट हैं उन सबका प्रधान कारण अज्ञान है। उस अज्ञान का विनाश केवल सद्ज्ञान की स्थापना से ही हो सकता है और इस कार्य को त्यागी, तपस्वी, सदाचारी, परमार्थ परायण, विद्वान-ब्राह्मण ही कर सकते हैं। यह ठीक है कि स्कूल कालेजों की शिक्षा का प्रसार सरकार द्वारा हो रहा है पर उतने से ही काम नहीं चल सकता। व्यक्तियों का नैतिक धरातल ऊंचा उठाने के लिए, उनकी संकुचितता, भ्रान्ति, स्वार्थपरता और लिप्सा दूर करने के लिए उस जीवन विद्या की आवश्यकता है जो अध्ययनशील, विचारवान, परिपुष्ट दूरदर्शी, मस्तिष्कों द्वारा अनुकरणीय आदर्श चरित्र के व्यक्तियों द्वारा-लोगों के अन्तःकरणों में भरी जाय। इस कार्य को तपस्वी ब्राह्मण ही कर सकते हैं।

हम देखते हैं कि आज विद्वानों, विचारवानों और परिपुष्ट मस्तिष्क के विद्वानों की कमी नहीं है। धर्म, दर्शन, नागरिकता, सहयोग, समता आदि के सिद्धांतों को भली प्रकार समझने वाले और उन्हें दूसरों को समझा देने की प्रतिभा एवं योग्यता रखने वाले विज्ञ मनुष्य काफी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। दूसरी वह असंख्य जनता है जो सद्ज्ञान की तोता रटन्त की बावालता भले ही जानते हों पर जीवन विद्या से, सद्विचारों के महत्व से सर्वथा अपरिचित है और इसी कारण नाना प्रकार के दुखों में संतप्त रहती है। एक ओर मीठे शीतल जल का कुआँ मौजूद है दूसरी और प्यास से तृषित असंख्यों व्यक्ति छटपटा रहे हैं। बीच का वह सूत्र है- ब्राह्मणत्व। आज भारत भूमि का ऋषि पुत्रों का ब्राह्मणत्व मूर्छित पड़ा हुआ है। अज्ञान के संतप्त असंख्य जनता क्रन्दन कर रही है, पीड़ाओं से छटपटा रही है, पशुओं सा पतित जीवन बिता रही है, इतना सब होते हुए भी जिन आँखों में आँसू नहीं आते, जिन हृदयों में दर्द नहीं होता, जिन अन्तःकरणों में करुणा फूट नहीं पड़ती, उनके लिए कैसे कहा जाय कि इसमें ब्राह्मणत्व जाग्रत है जीवित है। जिनमें सहृदयता है, जिनमें सद्ज्ञान है, जिनमें श्रेष्ठता है उनकी छाती ऐसी स्थिति को देखकर पसीजे बिना नहीं रह सकती। वे यह सहन नहीं कर सकते कि अज्ञान ग्रस्त जनता अपने पैरों को कुल्हाड़े मार-मार कर काट रही हो, अपने घर को आप जला रही हो और वे इस मूर्खता को रोकने के लिए, कुछ प्रयत्न करें, अपने सुख साधन छोड़कर उनकी सहायता करने के लिए न दौड़ पड़ें।

शास्त्र कहता है कि -”विद्यावान, ब्राह्मण संसार के अज्ञान को अपने तप द्वारा दूर करें।” जिन व्यक्तियों को आज विद्या प्राप्त है, बुद्धि प्राप्त है, जिनके हृदय में दया है, जिनके हृदय में ब्राह्मणोचित तप त्याग की भावना है वे ही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण हैं, चाहे वे किसी भी वंश में उत्पन्न क्यों न हुए हो। ऐसे ब्राह्मणों को गायत्री का प्रथम संदेश है कि-”बुद्धि संसार का सर्वश्रेष्ठ तत्व है, वह तुम्हारे पास एक ईश्वरीय अमानत है उसे शक्ति भर प्रयत्न के साथ जनता जनार्दन में वितरण करो, तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठो और अपना गौरव इस बात में समझो कि ईश्वर ने आपको योग्य और ईमानदार वितरण करने वाले के पद पर नियुक्त किया है। अपने कर्त्तव्य का पालन करो, अज्ञान दुख से संतप्त जनता को सुखी बनाने के लिए सद्ज्ञान रूपी अमृत का वितरण करो और स्वयं तपश्चर्या एवं परोपकार का स्वर्गीय सुख उपलब्ध करो।”

ब्राह्मणो! ऐसा मत सोचो कि हम परमार्थ में प्रवृत्त होंगे तो हमारा खर्च कैसे चलेगा, ईश्वर पर विश्वास करो, जनता में सद्ज्ञान कर प्रसार करने के लिए कदम बढ़ाओ, अपने उत्तम ज्ञान और उज्ज्वल चरित्र से अन्धकार से भरे हुए हृदयों में प्रकाश उत्पन्न करो, तुम्हें खर्च की कुछ कमी न रहेगी। मनुष्य की वास्तविक जरूरतें और भी कम होती हैं। जन्म से पूर्व दूध के भरे हुए ऐसे घड़े जो सदा भरे ही रहते हैं जिसने उपस्थित कर दिये थे वह ईश्वर इस सृष्टि से उठ नहीं सकता, ब्राह्मणत्व के प्रति असीम श्रद्धा का मानव हृदय में से मिट नहीं सकता, इन महान तत्वों पर विश्वास करो। कंकड़ मत समेटो, हीरों का व्यापार करो। शास्त्र कहता है कि- हे बुद्धि जीवियों! प्रलोभनों में मत पड़ो ब्राह्मणोचित कर्म करो, संसार में सद्ज्ञान का प्रसार करो।

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