
इन्द्रियों को वश में रखिए।
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(लोकमान्य तिलक)
अहिंसा, सत्य और अस्तेय के साथ इन्द्रियनिग्रह की भी गणना सामान्य धर्म में की जाती है। (मनु 10-63)। काम, क्रोध, लोभ आदि मनुष्य के शत्रु हैं, इसलिए मनुष्य जब तक इनको जीत नहीं लेगा तब तक समाज का कल्याण नहीं होगा। यह उपदेश सब शास्त्रों में किया गया है। विदुर-नीति और भगवद्गीता में भी कहा गया है-
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत्।
काम, क्रोध और लोभ ये तीनों नरक के द्वार हैं, इनसे हमारा नाश होता है, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए (गीता 16। 21 डडडडडड 32। 70)॥ परन्तु गीता ही में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप का यह वर्णन किया है “धर्माऽविरुद्धोभुतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ”- हे अर्जुन! प्राणिमात्र में जो ‘काम’ धर्म के अनुकूल है, वही मैं हूँ (गीता 7/11) इससे यह बात सिद्ध होती है कि जो काम धर्म के विरुद्ध है, वही नरक का द्वार है। इसके अतिरिक्त जो दूसरे प्रकार का काम है अर्थात् जो धर्म में अनुकूल है वह ईश्वर को मान्य है। मनु ने भी यही कहा है “परित्यजेदर्थकामौ यौ स्याताँ धर्म वर्जितौ-” जो अर्थ और काम धर्म के विरुद्ध हों उनका त्याग कर देना चाहिए। (मनु 4,146)। यदि सब प्राणी कल ‘काम’ का त्याग कर दें और मृत्यु-पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत से रहने का निश्चय कर लें तो सौ पचास वर्ष में ही सारी सजीव सृष्टि का लय हो जायगा और जिस सृष्टि की रक्षा के लिए भगवान बार-2 अवतार धारण करते हैं उनका अल्पकाल में ही उच्छेद हो जायगा। यह बात सच है कि काम और क्रोध मनुष्य के शत्रु हैं, परन्तु कब? जब वे अनिवार्य हो जायं तब। यह बात मनु आदि शास्त्रकारों के सम्मत है कि सृष्टि का क्रम जारी रखने के लिए उचित मर्यादा के भीतर काम और क्रोध की अत्यन्त आवश्यकता है। मनु 5,56) इन प्रबल मनोवृत्तियों का उचित रीति से निग्रह करना ही, सब सुधारों का प्रधान उद्देश्य है। उनका नाश करना कोई सुधार नहीं कहा जा सकता क्योंकि भागवत (11/1/15) में कहा है-
लोके व्यवाया मिषमद्य सेवा,
नित्यास्ति जन्तोर्नहि तत्र चोदना।
व्यवस्थितिस्तेषु विवाह यज्ञ,
सुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा॥
इस दुनिया में किसी से यह कहना नहीं पड़ता कि तुम मैथुन, माँस और मदिरा का सेवन करो, ये बातें मनुष्य को स्वभाव ही से पसन्द हैं, इन तीनों की कुछ व्यवस्था कर देने के लिए अर्थात् इनके उपयोग को कुछ मर्यादित करके व्यवस्थित कर देने के लिए शास्त्रकारों ने अनुक्रम से विवाह, सोमयाग और सौत्रायणि यज्ञ की योजना की है परन्तु तिस पर भी निवृत्ति अर्थात् निष्काम आचरण इष्ट है। यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जब निवृत्ति शब्द का सम्बन्ध पंचम्यन्त पद के साथ होता है तब उसका अर्थ अमुक वस्तु से निवृत्ति अर्थात् अमुक कर्म का सर्वथा त्याग हुआ करता है तो भी कर्म योग में निवृत्ति विशेषण कर्म ही के लिए उपयुक्त हुआ है। इसलिए निवृत्ति कर्म का अर्थ निष्काम बुद्धि से किया जाने वाला कर्म होता है, यही अर्थ मनुस्मृति और भागवत पुराण में स्पष्ट रीति से पाया जाता है। (मनु. 12/89 भागवत 11/10/1 तथा 7/15,97) क्रोध के विषय में किरात काव्य में (1/33) मारवि का कथन है-
अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना
न जात हार्देनन विद्विपादरः।
जिस मनुष्य को अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं आता उसकी भिन्नता और द्वेष दोनों बराबर हैं। शास्त्र धर्म के अनुसार देखा जाए तो बिदुला ने यही कहा है-
एतावानेव पुरुषो यदमर्षी यदक्षमी।
क्षमावान्निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान॥
जिस मनुष्य को (अन्याय पर) क्रोध आता है और जो (अपमान को) सह नहीं सकता, वही पुरुष कहलाता है। जिस मनुष्य में क्रोध या चिढ़ नहीं है वह नपुँसक के ही समान है। (म.भा.उ.162.33)। इस बात का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है कि इस जगत के व्यवहार के लिए न तो सदा तेज या क्रोध ही उपयोगी है और न क्षमा। यही बात लोभ के विषय में भी कही जा सकती है, क्योंकि संन्यासी को भी मोक्ष की इच्छा तो रहती है।