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Magazine - Year 1951 - Version 2

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आत्मिक विकास की चार कक्षाएँ

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(प्रो॰ रामचरण महेन्द्र एम॰ ए॰)

आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से हम सम्पूर्ण मानव-समाज को निम्न स्तरों में विभाजित कर सकते हैं-

(1) साधारण मनुष्य।

(2) सुसभ्य मनुष्य।

(3) सुहृदय मनुष्य।

(4) आध्यात्मिक महापुरुष।

साधारण मनुष्य -

साधारण मनुष्य मानव जीवन के प्रथम स्तर पर रहता है। वह विविध-विघ्न- बाधा संकुल जगत के नाना प्रकार की व्यथाओं, मानव-विकारों द्वारा संचालित होता है। उसे केवल अधिकारों का ही ध्यान होता है। आज संसार, देश, प्रान्त और घर-घर में अधिकारों का युद्ध हो रहा है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अधिकार माँग रहा है। साधारण मनुष्य दूसरों से अधिकार के लिए लड़ता है, झगड़े-टेंटों में पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, वासना, स्वार्थ में निमग्न रहता है साधारण मनुष्य संचयी होता है वह हर प्रकार के संचय (धन, मान, जायदाद, वस्त्र, नाना वस्तुएँ, मकान) में निरन्तर निमग्न रहता है। वह केवल इस लोक में विश्वास करता है। अतः यहीं स्थायी रूप से रहने का इन्तजाम रखता है। द्वेष घृणा के विकार उस एक स्थान से दूसरे स्थान पर तरंगित करते हैं। वह परदोष दर्शन में विशेष दिलचस्पी लेता है। जब उसके स्वार्थों पर धक्का पहुँचता है, तो वह पाशविक बल का प्रयोग करता है। वास्तविक बल से वह अपना दूसरे पर अधिकार रख कर अनुचित कार्य करना चाहता है। वह पशु से कुछ ऊँचा होता है। उसमें बुद्धि का प्रयोग होता है, किन्तु निज स्वार्थ तथा व्यक्तित्व लाभ के बाहर उनका उपयोग कम से कम है। वह उसमें उलझा रहता है। उसके पास एक लम्बा कुटुम्ब है। वह अपने कुटुम्ब की आवश्यकताएँ देखता है और उसकी पूर्ति में अपनी सर्वोच्च शक्तियों का ह्रास करता है। साधारण मनुष्य से वासना तथा वासनाजन्य सुखा भास, सबसे बड़ी कमजोरी है। इसके कारण वह भोजन में उत्तेजक पदार्थ खाता है, स्पर्श, जिव्हा, श्रवण, वासना के जन जाल में लिपटा रहता है। काम वासना की पूर्ति तथा उसके कुफल भुगतने में उसका जीवन समाप्त हो जाता है।

सुसभ्य मनुष्य-

यह साधारण मनुष्य से उच्च स्तर पर निवास करता है। इसे अपने अधिकार एवं कर्त्तव्य दोनों का ध्यान रहता है। प्रत्येक अधिकार अपने साथ कर्त्तव्यों का भारी बोझ लाता है। यह कर्त्तव्य हमारी समूची शक्तियों को अपने अन्दर समाविष्ट कर लेता है। यदि हम अधिकार चाहते हैं, तो कर्त्तव्य का भी विवेक रखना होगा- यह विचारधारा सुसभ्य व्यक्ति की है।

संचय के साथ उसे दान का भी पूर्ण विवेक होता है। संचय का सबसे उत्तम उपयोग यह है कि हम अपने अर्थ धन को काम में लें, पर साथ ही साथ दूसरों की आवश्यकताओं तथा सहायता का भी पर्याप्त ध्यान रखें।

वह घृणा, द्वेष से उठ कर न्याय पर रहता है। न्याय का अर्थ वह व्यापक रखता है। उस न्याय में जो ठीक है, वह उसे अपने लाभ में उपयोग कर सकता है। वह बुरा भला दोनों देखता है।

सुसभ्य व्यक्ति समय पड़ने पर परिस्थिति के अनुसार शारीरिक बल का तो प्रयोग करता है पर उसमें आत्मबल भी होता है। आत्मबल का भी प्रयोग वह किया करता है। आत्मबल विकसित होने के पथ पर होता है।

जहाँ साधारण व्यक्ति अश्रृंखला और हठी होता है, सुसभ्य व्यक्ति नीति का पालन करता है। उसका व्यवहार विवेक मय होता है। बल तर्कपूर्ण नीति में विश्वास रखता है।

इस श्रेणी के व्यक्ति में विद्या का उचित उपयोग रहता है। विद्या उसे कर्त्तव्य के साथ अधिकार का, बुराई के साथ भलाई का, शारीरिक बल के साथ आत्मबल का, नीति के साथ विवेक का, न्याय के मार्ग का अवलम्बन दिखाती है।

वासना का उचित उपयोग वह किया करता है। प्रत्येक वासना के जन्य सुख का प्रभाव बुरा होगा, पर उससे मुक्त होना भी संभव नहीं। अतः कम से कम उसमें प्रवृत्त होना उसका काम रहता है। समाज तथा व्यक्ति के हित के अन्य कार्यों में, ललित कलाओं तथा ज्ञानार्जन में उसका समय लगता है। उसकी वासना निमन्त्रित होती है।

सुहृदय मनुष्य।

विकास की तृतीय श्रेणी में मानव अधिकार के स्तर से ऊँचा उठकर केवल कर्त्तव्यों की ही कामना करता है। वह संचय के स्थान पर दान को अधिक महत्व प्रदान करता है। न्याय के साथ दो और दैवी विभूतियों का उदय उसके हृदय में होता है-क्षमा और प्रेम। इन दोनों के शुभ प्रकाश में वह निरन्तर आगे बढ़ता है।

वह सबमें अच्छाई ही अच्छाई ही देखता है। प्रदोष दर्शन की संकुचित एवं त्रुटिपूर्ण भावना से मुक्त होकर वह दूसरों के गुणों का, उत्तमोत्तम दैवी तत्वों का विवेचन पसन्द करता है। गुणों में विहार करने से वह स्वयं अमित गुणों का स्वामी बनता है। उन गुणों का बीज उसके मस्तिष्क में प्रस्फुरित होता है। वह गुण निधान है। अच्छा चरित्र एवं शारीरिक मानसिक मानसिक का पुतला होता है।

वह केवल आत्मबल का प्रयोग करता है। उसकी आत्मा में बल क्रमशः वृद्धि पर रहता है जो उसकी आत्मा के तत्व हैं-सत् चित् आनन्द का विकास इतना हो जाता है कि साधारण जगत् सम्बन्धी कठिनाइयों, दुःख, उसे स्पर्श नहीं कर पाती।

वह आत्म संयमी होता है। अपनी वृत्तियों पर उसे पूर्ण अधिकार होता है। वह दुःख या पीड़ा देख कर कातर एवं बिह्रल नहीं हो जाता। वह जानता है कि दुःख अवश्यम्भावी है। उससे ऊँचा उठ कर वह कुशल सारथी की तरह उन्हें अपने काबू में रखता है। उसका मन इतना सुसंचालित और सुशिक्षित होता है कि वह जो कुछ चाहता है, दृढं इच्छा शक्ति के बल से अवश्य पूर्ण करता है।

वासना के पंजे से वह दूर रहता है वह वासना का परिष्कार कर उसके प्रकाश के लिए ऊँचे सुसंस्कृत मार्ग प्रदान करता है। भक्तिभाव, भजन, कीर्तन, उच्च शास्त्रीय संगीत, सात्विक, चित्रकारी, स्थापत्य, साहित्य, सृजन, कविता इत्यादि सात्विक मार्गों से वह अपने वीर्य का सदुपयोग करता है। उसकी भावना कर्त्तव्य के लिए सतत प्रेरित करती है।

आध्यात्मिक महापुरुष-

मानव होकर भी वह देवता की श्रेणी में उठता है। उसका सर्व प्रथम गुण सब मानव प्राणियों में एकत्व का अनुभव करना है। समग्र मानव समुदाय में केवल एक ही सत्ता का प्रकाश है। एक ही आत्म भाव में आबद्ध हम सब मानव उसी तेज पुँज की रश्मियाँ हैं। जन्म, कुल, स्वभाव जाति-पाँति में विभिन्न होते हुए भी आन्तरिक दृष्टि से हम सब एक हैं। हमारा सम्बन्ध एक आत्मा का है।

वह निष्काम कर्म करता है। और कर्म फल की आशा नहीं रखता। फल मिले न मिले, लोग पसन्द करें न करें, हानि हो या लाभ, व्यक्तिगत फायदा या नुकसान, किसी की परवाह न करते हुए, वह कर्म में रत है, अपन कर्मों द्वारा ही संसार में कुछ कर लेना चाहता है

उसके हृदय में सब के लिए नमन व सम्मान होता है। प्रत्येक व्यक्ति को वह अपनी आत्मा का एक अंश समझता है। सर्वत्र आत्मभाव का विस्तार कर अपनी आत्मा की परिधि में अधिक से अधिक मनुष्यों तथा प्राणियों को लेता है।

“सियाराम मय सब जग जानी” -सर्वत्र यही भाव रखने वाला दार्शनिक संसार में रहता हुआ भी कमल के पुष्प की भाँति संसार रूपी जल से ऊंचा रहता है। विवाहित और गृहस्थ में फँस कर भी अंतःवृत्ति से इन श्रृंखलाओं से उच्च स्तर पर निवास करता है। मानसिक विकारों पर उसे पूर्ण संयम तथा निग्रह होता है। वह पशु बल से ऊँचा उठ जाता है। केवल ईश्वरीय बल (गौड पावर) का प्रयोग करता है। आत्मबल वह बल है जिससे सभी बल नीचे रह जाते हैं। जो विद्वान की सभी शक्यों को पार कर मनुष्य की आन्तरिक स्थिति पर अपना प्रभाव डालता है। इसका सूक्ष्म प्रभाव निरन्तर मनुष्यों के आन्तरिक केन्द्रों पर पड़ता रहता है।

वह कर्म में स्वतन्त्र है, क्योंकि बुराई उसके पास फटक नहीं सकती। उसके सब कर्म स्वयं उच्च कोटि के होते हैं।

जैसे विद्यार्थी क्रमशः एक-एक कक्षा पार करके ऊँची कक्षाओं में चढ़ता जाता है उसी प्रकार हमें प्रयत्न करना चाहिए कि अपने विकास स्तर को क्रमशः ऊँचा उठावें। आज अपनी मनोभूमि जिस स्तर पर है कल उससे ऊँचे स्तर पर पहुँचे इसी प्रयत्न की विभिन्न प्रक्रियाओं को आध्यात्मिक साधना कहते हैं।

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