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Magazine - Year 1951 - Version 2

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निष्काम भाव से कर्म करते रहिए

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भुवर्नाशो लोके सकल विपदाँ वै निगदितः।

कृतंकार्यं कर्तव्यमिति मनस्या चास्य करणम्॥

फलाशामर्त्यो ये विदधति न वै कर्म निरताः।

लभन्ते नित्यं ते जगति हि प्रसादं सुमन साम्॥

अर्थ-संसार में समस्त दुःखों का नाश ही भुवः कहलाता है। कर्त्तव्य भावना से किया गया कार्य ही कर्म कहलाता है। परिणाम के सुख की अभिलाषा को छोड़कर जो कर्म करते हैं वह मनुष्य सदा प्रसन्न रहते हैं।

गायत्री का भुवः शब्द हमें कर्म-योग का संदेश देता है। क्योंकि इसी आधार पर समस्त प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाया जा सकता है। मनुष्य नाना प्रकार की आशाएँ, तृष्णाएँ, लालसाएँ, कामनाएँ किया करता है। वे इतनी अनियन्त्रित और अवास्तविक होती हैं कि उनकी पूर्ति लगभग असम्भव रहती है। एक इच्छा की पूर्ति भी हो जाय तो वह तुरंत ही अपना रूप बढ़ाकर और बड़ी हो जाती है। इस प्रकार वह मनुष्य सदा अभाव-ग्रस्त दीन एवं इच्छुक ही बना रहता है। तृप्ति का आनन्द उससे दूर ही रहता है।

वस्तुओं और परिस्थितियों में सुख ढूंढ़ना एक प्रकार की मानसिक मृगतृष्णा है। शरद ऋतु में जब भूमि के क्षार फूल कर ऊपर आ जाते हैं तो प्यासा मृग उन्हें दूर से पानी समझता है पर पास जाने पर उसे अपने भ्रम का पता चलता है और अभीष्ट वस्तु न पाकर दुःखी तथा निराश होता है। फिर उसे दूसरी जगह ऐसा ही भ्रम जल दिखाई पड़ता है वहाँ भी दौड़ता और निराश होता है। इसी उलझन में पड़ा हुआ वह भारी कष्ट सहता रहता है। यही दशा तृष्णा ग्रस्त फल लोभी, मनुष्यों की होती है। यद्यपि उन्हें भगवान बहुत कुछ देता है पर उस प्रभु प्रसाद को प्राप्त करने के सौभाग्य से प्रसन्न होने का अवकाश ही नहीं मिलता, उधर ध्यान ही नहीं जाता ताकि सन्तोष अनुभव कर सकें। एक के बाद दूसरी, छोटी के बाद बड़ी, तृष्णा आ पड़ने से उसे यही मालूम पड़ता है कि मैं सबसे गरीब दीन दुखी एवं अभाव ग्रस्त हूँ। काश, वह इन तृष्णाओं से मुक्ति पाकर अपनी वर्तमान स्थिति की विशेषताओं और महानताओं को ध्यान पूर्वक देख सका होता तो उसे पता चलता कि प्रभु ने कृपा पूर्वक उसे इतना देखा है जिसे प्राप्त करने के लिए इस विश्व के असंख्यों प्राणी तरसते हैं। हमारा जैसा सौभाग्य उन प्राणियों को मिल सका होता तो वे अपने सौभाग्य पर फूले न समाते उसे स्वर्गीय वैभव अनुभव करते, ईश्वर को अनेक धन्यवाद करते। एक हम है जो इतनी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, कौटम्बिक सम्पदाएँ प्राप्त होते हुए भी नई तृष्णाएँ गढ़-गढ़ उनके कारण असन्तुष्ट और दुखी रहते हैं। प्रभु को कोसते रहते हैं, उसमें हमें यह नहीं दिया, वह नहीं दिया, हम यों अभाग रहे, त्यों अभाग रहें। इन शिकायतों और तृष्णाओं का अन्त कुबेर या कल्पवृक्ष भी नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्ति स्वर्ग में भी दीन रहेंगे। सन्तोष का हेतु तो केवल आत्म-ज्ञान है उसका उदय होते ही आशक्ति, फलाशा और तृष्णा का अन्धकार मिट जाता है और मनुष्य तत्क्षण अपने को बड़ा सौभाग्य-शाली, सन्तुष्ट, ईश्वर का कृपा पात्र, सुखी एवं प्रसन्न अनुभव करने लगता है। तृष्णा सुरसा है। हनुमान जी उसके मुख में घुस और अपना रूप बढ़ाने लगे सुरसा का मुँह और बढ़ता गया। अन्त में हनुमान जी थक गये तब उनने अपना रूप बनाया और एस आसुरी गोरख धन्धे में से निकल आये। तृष्णाओं को बढ़ाते जाना और उनका तृप्त करने के लिए परेशान रहना यह एक आसुरी गोरखधन्धा है। इस तिलस्म में से वह छुट सकता है जो गायत्री के भुवः शब्द को हृदयंगम कर ले, कर्मयोग को अपना ले।

फल की इच्छा न करने का अर्थ यह नहीं है कि बिना सोचे समझे काम करते रहा जाय या उसके परिणामों पर विचार न किया जाय। ऐसा होना असम्भव है। उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्य किए जाते हैं। बिना उद्देश्य के क्रिया कौन करेगा। आत्मोन्नति, आत्म-सुख, आत्मानन्द मनुष्य का उद्देश्य है। जीवन यात्रा को चलाते हुए आनन्द लाभ करने के उद्देश्य से कर्म किए जाते हैं। यह उद्देश्य या फल स्पष्ट है। विवेक पूर्वक दूरदर्शिता के साथ, क्रमबद्ध योजना बनाकर अपना कार्यक्रम निर्धारित कर लेना चाहिये और उस योजना को पूरा करने के लिए उत्साह और परिश्रम पूर्वक कार्य करने में जुट जाना चाहिए। मन को क्रिया में प्रवृत्त रखना, अपनी कर्त्तव्य परायणता में कस लेना, कार्य प्रणाली को उत्तम, उच्चकोटि की बनाने में संलग्न रखना, कर्म-योग है और कार्य प्रणाली में कम ध्यान देकर मन को भविष्य के लाभों में शेखचिल्ली की तरह लगाये रहना आशक्ति या फलाशा है।

आशक्ति परायणता में दोष यह है कि मन नित नये मनमोदक बनाता और उनके लिए ललचाता है। उसके मन में नाना प्रकार की कामनाएँ उठती रहती हैं। जिनके कारण कार्यक्रमों को रोज-रोज बदलना पड़ता है फल स्वरूप उसका कोई भी काम पूरा नहीं हो पाता और सभी मनोरथ अधूरे रहते हैं। इसके अतिरिक्त कार्य का परिणाम वही हो, जो चाहा गया है, इस बात का भी कोई निश्चय नहीं है। अनेक बार अच्छे प्रयत्न भी प्रारब्ध या अज्ञात कारणों से निष्फल चले जाते है। उस असफलता में उन व्यक्तियों को जो बड़ी-बड़ी आशाएँ बाँधे बैठे थे भारी आघात लगता है और उनका हृदय टूट जाता है। ऐसे ही लोग असफलता के अवसरों पर आत्म-हत्या जैसे भयंकर कर्म करते देखे जाते हैं।

आगे बढ़ना, उन्नति करना, अधिक उत्तम स्थिति प्राप्त करना, ऊपर उठना, विकसित होना, जीव का स्वाभाविक धर्म है। इस धर्म कर्त्तव्य को पालन किये बिना कोई प्राणी चैन से नहीं बैठता, जो इस दिशा में प्रयत्न नहीं कर रहा है उसकी आत्मा हर घड़ी चोंटती रहेगी और वह मन्द आत्म-हत्या का कष्ट सदा ही भोगता रहेगा इसलिए लोभ और तृष्णा से प्रेरित होकर नहीं, आत्म-धर्म को पालन करने के लिए, हमें अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, एवं आत्मिक उन्नति करने के लिए पूरी शक्ति पूरी दिलचस्पी और पूरी सावधानी से तत्परता पूर्वक लगे रहना कर्मयोग है। कर्मयोगी के आनन्द का केन्द्र उसकी क्रिया प्रणाली होती है। वह अपने सत्प्रयत्नों में हर घड़ी आत्मसम्मान ओर आत्मसन्तोष का रसास्वादन करता है।

तृष्णातुर लोग बड़े बड़े मनसूबे बाँधते हैं, बड़ी बड़ी आशाएँ लगाते हैं। सफलता मिलने पर जो मधुर फल मिलेगा उनके लिए लार टपकाते रहते हैं। मन की प्रवृत्ति फलाशा में इतनी अधिक लगी रहती है। क्रिया प्रणाली पर सोचने का उन्हें अवकाश ही नहीं मिलता। कामी लोग विषय वास नाक उन्माद में अन्धे हो जाते हैं और अपना स्वास्थ्य, धन, यश आदि सब गवा बैठते हैं। लोभी लोग धूर्तों द्वारा प्रलोभन दिखा कर बुरी तरह ठग जाते है। कारण स्पष्ट है कि फलाशा का प्रलोभन उनके समान इतना जबरदस्त होता है कि उसके तूफान में बेचारा विवेक सूखे पत्ते की तरह उड़ जाता है और मनुष्य अन्धा होकर क्रिया प्रणाली के औचित्य को भुला कर मनमानी करने लगता है। और जब वह मनोरथ पूरे नहीं होते तो वह बेतरह निराश हो जाता है। अपनी निराशा का, अल्प सफलता का कोप वह साथियों, मित्रों, दुनिया वालों, देवताओं, दुर्दिनों आदि जो भी सामने दिखाई पड़ते हैं उन्हीं पर दोष देता है। ऐसे लोग बड़े-2 मनोरथ करते रहते हैं, प्रायः दुःखी, निराश, असन्तुष्ट, असफल एवं अशान्त देखे जाते हैं। कामनाएँ उनके लिए बंधन रूप हो जाती हैं वे एक मानसिक बीमारी अपने ऊपर अकारण लाद लेते हैं॥

इसलिए गायत्री के ‘भुवः’ शब्द का आदेश है कि हम कर्मयोगी बने। बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता और विवेक पूर्वक यह निर्णय करें कि हमें सत्परिणाम के लिए, जीवन विकास के लिए क्या करना है, जो करना हो उसमें तत्परतापूर्वक जुट जावें। वैसे विद्यार्थी वार्षिक परीक्षा के बाद ही उत्तीर्ण, घोषित किया जाता है पर वर्ष भर में प्रत्येक दिन वह इस उत्तीर्णता का एक अंक संग्रह करता रहा है अन्त में जब वह संग्रह अभीष्ट मात्रा में इकट्ठा हो गया है तो वह उत्तीर्ण घोषित कर दिया गया। इसी प्रकार क्रियाशीलता का प्रत्येक अंश सफलता का एक भाग है। हर रोज जितना प्रयत्न किया जाता है अभीष्ट उद्देश्य की सफलता का उतना ही अंश प्राप्त होता चलता है। आज कल लोग अपना काम बड़े उदास मन से करते हैं, अपने कार्यक्रम को तुच्छता एवं तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं, बेगार की तरह उसे पूरा करते हैं, और आलस्य एवं तुच्छ लाभ के लिए अपनी रचना को बड़ी कुरूप एवं निकृष्ट कोटि की बना देते हैं। यह कर्म भगवान, का साक्षात् अपमान है। आज का मजदूर वेतन वृद्धि एवं श्रम का समय घटाने के लिए तो बड़ा संघर्ष करता है पर उसे इस बात का ध्यान नहीं है कि अपनी कृतियों को ऐसी उच्चकोटि की, मजबूत चिरस्थायी एवं कला पूर्ण बनावे कि उस कृति की तथा कर्ता की सर्वत्र प्रतिष्ठा हो। मजदूरों में ही क्यों हर क्षेत्र में यह प्रकृति बड़े व्यापक रूप से फैली हुई है। लोग फल, घी, धन की, जितनी चिन्ता करते हैं उससे आधी भी अपनी कृतियों को प्रतिष्ठित बनाने के लिए की जाय तो उसका सत्परिणाम हमारी व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय समृद्धि एवं प्रतिष्ठा पर बहुत भारी हो जाता है। भाग्य और कर्म, तकदीर और तदवीर दोनों एक ही वस्तु हैं। जैसे कल का दूध आज दही बन जाता है वैसे ही भूतकाल के कर्म आज प्रारब्ध बन कर प्रकट होते है। हम अपने भाग्य निर्माता आप हैं। अपनी कर्म रेखा के लेखक, प्रारब्ध के रचयिता हम स्वयं हैं। भूतकाल में जो कर चुके हैं उसका परिणाम आज मौजूद है। यदि हम भविष्य को अच्छा सुख शाँतिमय, आनन्द दायक बनाना चाहते है तो आज के कर्त्तव्य कर्म को मजबूती से अपनाना पड़ेगा, कर्म-योगी बनना पड़ेगा। यदि आज के कर्त्तव्य की उपेक्षा की जा रही है तो निश्चय है कि कल का प्रारब्ध हमें, अत्यन्त त्रासदायक दुर्भाग्य के रूप में भोगना पड़ेगा।

कर्म से वैराग्य लेना भूल है बुराइयों से, लिप्सा से, तृष्णा से, दुष्कर्मों से, कुविचारों से, आलस्य से वैराग्य लेना चाहिए। कर्त्तव्य कर्म से वैराग्य लेना तो वैराग्य शब्द की दुर्गति करना है। प्राचीन ऋषि मुनि निरन्तर कर्त्तव्यरत करते थे उन्होंने लोकहित में जीवन सदुपयोग जिस उत्तमता से किया था वह आदर्श है। प्रत्येक कर्मयोगी को वैसा ही वैरागी होना चाहिये घर में रह कर तपोवन का निर्माण करना, भोग के साधन होते हुए भी उनका परित्याग करना सच्चा वैराग्य कहा जा सकता है। अभाव में जो त्याग होता है उसके अपरीक्षित होने के कारण परीक्षा के समय पर विफल हो जाने का भय बना रहता है। भोग के रहते हुए त्यागी होना ही लम्बी तपस्या है।

कर्मयोगी अनुद्विग्न रहता है। वह जरा-जरा से हानि लाभों में मानसिक सन्तुलन को नष्ट नहीं होने देता। हर्ष शोक उसके लिए समान है, हानि लाभ में, सफलता असफलता में उस मानसिक विक्षोभ नहीं होता। क्योंकि उसका केन्द्र बिन्दु कर्म है। यदि अपना कर्त्तव्यपालन किया जा रहा है तो असफलता में दुखी या सफलता में हषोंन्मत्त होने का कोई कारण नहीं। फल देने वाली शक्ति दूसरी है, हम तो अपना कर्त्तव्य पूरा करें यह भावना स्थिति प्रज्ञ की है, अनासक्त योगी की है, जो इस दृष्टि कोण से सोचता है वह सदा प्रसन्न ही रहता है। दुःख या कष्ट में भी उसे अप्रसन्नता का कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता।

गायत्री का भुवः शब्द हमें कर्म-योगी बनाता है। इस आदेश को शिरोधार्य करने वाला कर्म-बन्धन में नहीं फँसता इसलिये जीवन मुक्ति सदा उसके करतल गत रहती है।

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