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Magazine - Year 1951 - Version 2

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अस्वाद और ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध

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(महात्मा गाँधी)

ब्रह्मचर्य का पालन इसलिए कठिन मालूम पड़ता है कि हम दूसरी इन्द्रियों को संयम में नहीं रखते, खास कर जीभ को। जो अपनी जिव्हा को वश में रख सकता है उसके लिए ब्रह्मचर्य सुगम हो जाता है। प्राणि शास्त्रियों का यह कहना सच है कि पशु जिस दर्जे ब्रह्मचर्य का पालन करता है उस दर्जे तक मनुष्य नहीं करता। उसका कारण देखने पर मालूम होगा कि पशु अपनी जीभ पर पूरा-पूरा निग्रह रखते हैं-कोशिश करके ही नहीं बल्कि स्वभाव से ही। वे केवल घास पर ही अपना गुजारा करते हैं और सो भी महज पेट भरने के लिए लायक ही खाते हैं। खाने के लिये नहीं जीते। पर हम तो बिलकुल विपरीत ही करते है। माँ बच्चे को तरह-तरह के सुस्वाद भोजन कराती है। वह मानती है कि बालक पर परम प्रेम दिखाने का यही सर्वोत्तम तरीका है। लेकिन ऐसा करते हुए हम उन चीजों का जायका घटाते नहीं बल्कि बढ़ाते हैं। स्वाद तो भूख में रहता है। भूख के समय सूखी रोटी भी मीठी लगती है और बिना भूख के आदमी को लड्डू भी फीके लगते हैं और बेस्वाद मालूम पड़ते है। पर हम तो न जाने क्या क्या खाकर पेट को ठसाठस भरते है और फिर कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो पाता।

जिस घर में तरह-तरह की बातें करके हम बच्चे के मन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। उसकी शादी की बाते किया करते हैं और इसी किस्म की चीज ओर दृश्य भी दिखाते हैं। मुझे तो आश्चर्य होता है कि हम सहज जंगली ही क्यों नहीं हो गये। मर्यादा तोड़ने को अनेक साधनों के होते हुए भी मर्यादा की रक्षा हो जाती है। ईश्वर ने मनुष्य की रचना इस तरह की है कि पतन के अनेक अवसर पाते हुए भी वह कर सकते हैं। यदि वह ब्रह्मचर्य के रास्ते से यह सब विघ्न दूर कर दें तो उसका पालन बहुत आसान हो जाय।

ऐसी हालत होते हुए भी हम दुनिया से शारीरिक मुलाकात करना चाहते हैं, उसके दो रास्ते हैं। एक आसुरी और दूसरा दैवी। आसूरी मार्ग है। शरीर बल प्राप्त करने के लिए हर तरह के उपायों से काम लेना और माँस इत्यादि हर तरह की चीजें खाना। मेरे लड़कपन में मेरा मित्र मुझ से कहा करता था कि माँसाहार हमें अवश्य करना चाहिए, नहीं तो अंग्रेजों से हट्टे-कट्टे नहीं हो सकेंगे। जापान को भी जब दूसरे देशों से मुकाबला करने का मौका आया तब यहाँ गो-माँस भक्षण करने का मौका मिला। लो यदि आसुरो मत से शरीर को तैयार करना हो तो ब्रह्मचर्य ही उसका एक उपाय है। जब मुझे कोई नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहता है तब मैं अपने आप पर तरस खाता हूँ।

नैष्ठिक ब्रह्मचारी का तेज तो मुझ से कहीं अधिक होना चाहिये। मैं आदर्श ब्रह्मचारी नहीं हूँ। हों यह सच है कि वैसा बनता चाहता हूँ। ब्रह्मचर्य का यह अर्थ नहीं है कि मैं किसी स्त्री को स्पर्श न करूं। पर ब्रह्मचारी बनने का अर्थ यह है कि स्त्री का स्पर्श न करूं। पर ब्रह्मचारी बनने का अर्थ यह है कि स्त्री का स्पर्श करने पर भी मुझे में कोई किसी प्रकार का विकार पैदा न हो, जिस तरह कागज को छूने से नहीं होता। मेरी बहिन बीमार हो और उसकी सेवा करते हुए ब्रह्मचर्य के कारण हिचकिचाना पड़े तो वह ब्रह्मचर्य कोई काम का नहीं। जिस निर्विकार दशा का अनुभव हम मृत शरीर को स्पर्श करके कर सकते हैं, उसी का अनुभव जब हम सुन्दरी से सुन्दरी युवती का स्पर्श करके कर सकें तभी हम ब्रह्मचारी हैं। यदि आप चाहते है कि बालक जैसा ब्रह्मचर्य प्राप्त करें तो इसका अभ्यास कम आप नहीं बना सकते। मुझ जैसा अधूरा ही क्यों न हो, पर कोई ब्रह्मचारी ही बना सकता है।

ब्रह्मचारी स्वाभाविक संन्यासी होता है। ब्रह्मचर्याश्रम, संन्यासाश्रम से भी बढ़कर है, पर उसे हमने गिरा दिया है, इससे हमारा गृहस्थाश्रम भी बिगड़ गया है और संन्यास का तो नाम भी नहीं रहा है। ऐसी हमारी असह्य अवस्था हो गई है।

ऊपर जो आसुरी मार्ग बताया गया है उसका अनुसरण करके तो आप पाँच सौ बरस बाद भी पठानों का मुकाबला न कर सकेंगे। दैवी मार्ग यदि आज अनुसरण हो जाय तो आज ही मुकाबला कर सकते हो। क्योंकि देवी साधन से आवश्यक मानसिक परिवर्तन एक क्षण में भी हो सकता है जबकि शारीरिक साधन करते हुए युग बीत जाते हैं।

आँख यदि दोष करती हों तो उन्हें बन्द कर लेना चाहिए, कान दोष करें तो उनमें रुई भर लेनी चाहिए। आँखों को हमेशा नीची रख कर चलने की रीति हट कर है। जिससे उन्हें दूसरी चीज देखने की फुरसत नहीं मिले। जहाँ गन्दी बाते होती हों, अथवा गन्दे गीत गाये जा रहे हो वहाँ से उठ कर चल देना चाहिए। स्वादेन्द्रिय पर खूब अधिकार होना चाहिए मेरा अनुभव तो ऐसा है कि जिसने स्वाद नहीं जीता वह विषय को नहीं जीत सकता। स्वाद को जीतना बहुत कठिन है, परन्तु इस विषय की प्राप्ति पर ही दूसरी विजय की सम्भावना है। स्वाद को जीतने के लिए एक नियम तो यह है कि मसालों को सर्वथा अथवा जितना हो सके त्याग देना चाहिए, और दूसरा अधिक जोरदार उपाय यह है कि इस भावना की वृद्धि हमेशा की जाय कि हम स्वाद के लिए नहीं, केवल शरीर रक्षा के लिए ही भोजन करते हैं।

हम स्वाद के लिए हवा नहीं लेते, बल्कि श्वांस के लिए लेते हैं। पानी हम केवल प्यास बुझाने के लिए ही पीते हैं। इसलिए खाना भी सहज भूख बुझाने के लिए ही खाना चाहिए। हमारे माँ-बाप हमें बचपन से ही उलटी आदत डालते हैं। हमारे पोषण के लिए ही नहीं बल्कि अपना दुलार दिखाने के लिए तरह-तरह का स्वाद चखा कर हमें बिगाड़ देते हैं। हमें ऐसे वायुमण्डल का विरोध करना होगा। तभी ब्रह्मचर्य रखा जा सकता है।

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