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Magazine - Year 1951 - Version 2

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बुद्धि की समता ही समाधि है।

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(श्री बहिन श्री जय देवी जी)

बहुत से भाई बहिनों को समाधि के जानने में सन्देह होता हैं। कोई तो जड़ समाधि, जो कि एकान्त स्थान में बैठकर लगाई जाती हैं, उसी को समाधि कहते है। इससे अन्य चेतन समाधि, जो कि प्रत्येक समय प्रत्येक स्थान में लगाई जाती हैं। उसको समाधि नहीं कहते। अब इन दोनों समाधियों में से कौन सी समाधि करने में सहज तथा फल में विशेष है, इस बात का निर्णय उत्तर, प्रश्न द्वारा किया जाता है।

प्रश्न- समाधि किसको कहते हैं? यानी समाधि का स्वरूप क्या है? (1) किस प्रकार समाधि की जाती है? (2) और प्रत्येक व्यक्ति चाहें स्त्री हो, या पुरुष हो, उसको किस प्रकार समाधि विधेय है?

उत्तर -समाधि, इसमें दो पद है। एक सम दूसरा धी। सम-समान, धी-बुद्धि। अर्थात् बुद्धि का समभाव में स्थिर होना समाधि है। दूसरा अर्थ सम का परब्रह्म है।

गीता में भगवान का वचन है कि -

‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म।’

जिस निर्दोष और सम ब्रह्म में चित्त समाधीय है यानि जिस ब्रह्म में चित्त समाधान यानी निश्चल किया जाए वह समाधि है। अर्थात् उस समरूप परमात्मा में सब ओर से बुद्धि को निरोध करके निश्चल करना समाधि है। यह पहिले प्रश्न का उत्तर है। दूसरे प्रश्न का उत्तर एक समाधि तो एकान्त स्थान में जाकर जगत से मुँह मोड़कर लगाई जाती है। और दूसरी समाधि जगत में रहते हुए सर्व व्यवहार करते हुए लगाई जा सकती है। इसका नाम चेतन समाधि है। इस चेतन समाधि को जगत व्यवहार के साथ लगा सकते हैं, यानि बुद्धि को जगत व्यवहार से विक्षिप्त नहीं होने देना, हानि-लाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान इत्यादि प्रत्येक समय में बुद्धि को सम रखना। क्योंकि यह हानि लाभ इत्यादि बाहर के धर्म है। उन बाहर के धर्मों को अपने अन्दर बुद्धि में नहीं लेना। जब जब बाहर के धर्म अन्दर जाए तब तब उनको बाहर ही रोकने का प्रयत्न करना। यानि हानि-लाभ, सुख-दुःख, काम क्रोध, इत्यादि यह बाहर के धर्म है इनको अन्दर बुद्धि में नहीं लेना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करते करते बुद्धि सम होने लगेगी और सम बुद्धि होना ही समाधि है।

इस चेतन समाधि को स्त्री हो चाहें पुरुष सब कर सकते हैं। यह समाधि करने में भी सुखकर हैं क्योंकि इस समाधि को करने के लिए कहीं एकान्त स्थान में आसन लगाकर बैठने की आवश्यकता नहीं है। यह समाधि तो चलते, फिरते, उठते, बैठते, सोते, जागते इत्यादि हर समय कर सकते हैं। किन्तु जब जब संसार के व्यवहार से बुद्धि चंचल अथवा विषम होने लगे तब तब बुद्धि को सम अथवा निश्छल करने की आवश्यकता है। जिस प्रकार हमारा रोटी बनाने का चौका किसी अछूत व्यक्ति के आ जाने से छूत हो जाता है। इसी प्रकार यह बुद्धिरूपी चौका भी अछूत सुख-दुख, काम-क्रोध, हानि-लाभ, इत्यादि के आ जाने से छूत हो जाता है। क्योंकि काम, क्रोध आदि बाहर अनात्मा के धर्म बुद्धि से अन्य है। अन्यों के धर्म बुद्धि में आने से बुद्धि भ्रष्ट हो जायेगी और बुद्धि के भ्रष्ट होने से आत्मा का पतन। गीता में साक्षात् भगवान ने अपने मुखारविन्द से स्पष्ट कहा है।

‘बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।’

इस चेतन समाधि का फल अधिक और परिश्रम थोड़ा है। क्योंकि बिना चेतन समाधि के सिद्ध हुए तो आत्मा का उद्गार नहीं हो सकता।

बुद्धि को सम करना यही समाधि है, ऐसा तत्व वेत्ताओं का कथन ठीक ही है। क्योंकि आत्मा में कभी कोई विकार नहीं आता। आत्मा न कभी जन्मता है, न कभी मरता है, न कभी सुखी अथवा दुःखी होता है। बुद्धि ही जन्मती है, बुद्धि ही मरती है। बुद्धि के जन्मने मरने से आत्मा का जन्मना मरना आत्मा में प्रतीत होता है। बुद्धि के समभाव में स्थिर रहने में एक दृष्टान्त इस प्रकार है।

एक गृहस्थी सेठ जो सिद्धता करके प्रसिद्ध था। सब कोई मुक्त कंठ से उसकी सिद्धता की प्रशंसा किया करते थे कि- अरे भाई देखो, वह अमुक सेठ गृहस्थी होते हुए और गृहस्थ के सर्व व्यवहार यथावत करते हुए कैसा सिद्ध ज्ञानी है। भाइयों! हम सब को भी उस सेठ जैसा बर्ताव करना चाहिए, यदि मनुष्य जीवन का लाभ है। ऐसा सब किसी को कहते हुए एक दिन एक महात्मा ने सुना महात्मा ने सोचा कि गृहस्थी सेठ और ऐसा सिद्ध? चलकर उस सेठ की परीक्षा करनी चाहिए। ऐसा सोचकर महात्मा सेठ के घर चल दिये।

महात्मा सेठ के घर पहुँच कर सेठ से बोले बच्चा! हम तेरे यहाँ कुछ दिन ठहरना चाहते हैं। सेठ ने कहा बहुत अच्छा आइये विराजिये ! बढ़ा सौभाग्य है जो आप आये। महात्मा को रहते हुए जब कई दिन हो गये, तब एक दिन सेठ के पास खबर आई कि आपका अमुक जहाज समुद्र में डूब गया। यह सुनते ही सेठ ने अपने मुनीम से कहा कि कोष में से दस हजार रुपये दान कर दो। महात्मा चुपचाप बैठे-बैठे देखते रहें कुछ न बोले। इसके तीन दिन पीछे फिर खबर आई कि सेठ जी साहिब! आपका जहाज जो डूब गया था, सो निकल आया है कोई हानि नहीं हुई। यह सुन कर सेठ ने फिर मुनीम से कहा कि भाई इसी समय दस हजार रुपये फिर दान कर दो। यह वृतान्त देखकर अब की बार महात्मा सेठ से इस प्रकार कहने लगे।

महात्मा-अरे सेठ! तू यह बतला कि यह तेरी कमाई धर्म की थी अथवा अधर्म की थी। जो तेरी कमाई धर्म की थी, तब तो तुझे उसके डूबने पर दान नहीं करना चाहिए था। और यदि यह तेरी कमाई अधर्म की थी, तब उसके निकलने पर तुझे दान नहीं करना चाहिए था। यह तेरा दान करना दोनों प्रकार से असंगत है।

सेठ- महात्मा जी ! मैंने जहाज के डूबने अथवा निकलने की खुशी में यह दान नहीं किया है। चाहे कमाई धर्म की हो चाहे अधर्म की हो इससे कोई प्रयोजन नहीं। मैंने तो अपने मन को देखा कि जब जहाज के डूबने की खबर आई तो इस मन के अन्दर किसी प्रकार का विकार नहीं था, यह समभाव में ही स्थित था। तब मन की समभाव में स्थिति पर मैंने यह न्यौछावर रूप दान किया है। इसी प्रकार जहाज के निकलने की खबर आने पर भी मैंने मन को देखा कि मन के अन्दर क्या कोई हर्ष का चिन्ह है, परन्तु नहीं उसके अन्दर किसी प्रकार का कोई चिन्ह नहीं था, वह मन तो पूर्ववत् ही था, ऐसा देखकर फिर मैंने मन की न्यौछावर रूप यह दान किया है। तब महात्मा कहने लगे- बच्चा तू धन्य है! तेरा मन धन्य है!!

महात्मा सेठ की प्रशंसा करते हुए अपने स्थान को चले गये और कहने लगे कि सेठ क्या है, सेठ तो सच्चा ज्ञानी तथा सिद्ध है। ऐसी सिद्धि तो हमारे में भी नहीं, जो कि हम घर बार छोड़ कर एकान्त में आकर बैठे हैं।

यही सम बुद्धि का फल है। और सम बुद्धि करना या होना यही ब्रह्म का मिलना है। जहाँ बुद्धि में जब कोई विकार नहीं होता, तब बुद्धि समता रूप ब्रह्म में ही स्थित होती है, अर्थात् वहाँ पर सम ब्रह्म ही शेष रहता है क्योंकि यह बात हम सब को प्रत्यक्ष रूप से भी अनुभव में आती है कि जिस समय बुद्धि निर्विकार रूप से स्थित होती है तभी हम सब को आनन्द का अनुभव होता है। जिस समय बुद्धि में कुछ गड़बड़ होती है, तभी हम दुःखी हो जाते हैं अथवा घबरा जाते हैं जिस समय हमको अनुकूल यानि इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है उस समय हम सुख का अनुभव करते हैं किन्तु अज्ञानवश हम समझ लेते हैं कि इस वस्तु की प्राप्ति से हम को यह आनन्द प्राप्त हुआ है। परन्तु ऐसा नहीं कि इच्छित वस्तु के मिलने से हमारी बुद्धि समभाव को प्राप्त हुई और सम भाव परमात्मा हैं। बुद्धि के सम होने से स्पष्ट परमात्मा का प्रकाश बुद्धि में आया। बस परमात्मा के आनन्द से उस समय हमें आनन्द अथवा सुख की प्राप्ति हुई। यदि विषयों में आनन्द होता है तो विषय की प्राप्ति के पश्चात भी वैसा ही आनंद रहना चाहिए था। किन्तु ऐसा नहीं होता विषय प्राप्ति के कुछ समय पीछे वैसा आनन्द नहीं रहता। इसलिए सिद्ध हुआ कि सम बुद्धि ही समाधि है और वही परमात्म प्राप्ति है।

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