
माता का प्यार
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तू कामधेनु का मधु-पय, शुचि सलिज जहु जाता का।
या सुधा क्षीर निधि की है, देवता प्यार माता का॥
तू स्नेह पूर्ण निर्झर है, जो युग से झरता आता।
युग-युग झरता जायेगा, कल छल-छल कल-कल गाता॥
हाँ, उस निशीध में तू ही मरघट पर तो भ्रमता था।
रोहित को गोद लिवाये शैय्या में तू रमता था॥
औ वहाँ विजन झुरमुट में, सरिता-तट में संध्या को।
हित श्रवणकुमार रुलाया किसने अंधी वृद्धा को॥
प्रायः स्मृति तो होगी ही त्रेता के पुत्र-प्रणय की।
की विभिन्न अलौकिक गति जो दशरथ की रानी त्रय की॥
स्वर्णिम दिन वे गोकुल के क्या याद नहीं है तुझको।
परियाँ जब तरस रही थी, लख नन्दावन में तुझको॥
वात्सल्य अचल कर बाँधा ले स्नेह-तन्तु ऊखल में।
मथुरा हरि गये, यशोदा बिजखी निशि दिन छिन पल में॥
तेरी उदारता से सब स्रष्टा की सृष्टि बसी है।
पाकर तुझको ही जननी ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ है॥
चिड़ियां चोंचों में भर-भर शावक का अन्न चुगाती।
तनु चाट-चाट जब गायें बछड़े को दूध पिलाती॥
और चूम-चूम मुख माता शिशु को दूध पिलाती।
यह दृश्य देख कर किसकी रे! छाती है न जुड़ाती॥
तुझ से विमुग्ध हो सकती हाँ! अथक प्रसव की पीड़ा।
पालक पोषण-संकट से वह होती नहीं अधीरा॥
कुछ कूट-पीस जो लाती, भूखी रह लाल खिलाती।
ढ़क अंचल से जोड़े में गोदी में ले सो जाती॥
यों सन्तत महल-मड़ी में जा जा विलास तू करता।
जननी-हित रिक्त-कलश को आमोद अमिय से भरता॥
यदि पुत्र दुःख भी देता, सब सह लेती माता है।
तो भी तू मृदु-मानस में ए प्यार! पगा जाता है॥
(श्री हरिवंश नारायण दास “आर्तहरि”) *समाप्त*
(श्री हरिवंश नारायण दास “आर्तहरि”) *समाप्त*