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Magazine - Year 1951 - Version 2

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जीवन और सिद्धान्त

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(श्री शिवशंकर मिश्र एम. ए.)

जीवन में यह जानना सबसे आवश्यक बात है कि सबसे प्रमुख क्या है तथा सर्वप्रथम क्या किया जाना चाहिए। मध्य से किसी कार्य को प्रारम्भ करना असफलता का सूचक है। विद्यार्थी विद्यारंभ वर्ण अक्षरों से करता है भूगोल और राजनीति के विवेचन से नहीं? वह व्यापारी जो अपना व्यापार छोटी मात्रा से प्रारम्भ करता है और क्रमशः उसे बढ़ाता है अन्त में समृद्धि प्राप्त करता है। तत्व-ज्ञानियों का भी अध्ययन प्रायः जीवन की साधारण घटनाओं और गुत्थियों से ही होता है। उन्नति की परम चोटी पर किसी एक बारगी उछाल द्वारा नहीं चढ़ा जा सकता, उस पर पहुँचने के लिए कर्म और साधना की सीढ़ी आवश्यक है।

व्यवस्थित जीवन की सर्वप्रथम आवश्यकता है सिद्धान्त और उसका व्यवहारिक निरूपण। बिना उचित सिद्धान्तों के हमारे जीवन का रास्ता टेढ़ा मेढ़ा होगा और असफलता में उसकी इति होगी। सारे ज्योतिष और अंक विज्ञान का आधार एक से लेकर दस तक की संख्या है और संपूर्ण साहित्य वर्ण माला पर आश्रित है। सब कार्यों का आधार तत्व संक्षेप और सरल होता है, किन्तु उतने का ही ज्ञान अनिवार्य है। जीवन के आधार तत्व भी बहुत कम है, किन्तु जीवन में सफलता पाने लिए उनका ज्ञान और प्रतिपादन आवश्यक है।

आइये मानव-जीवन के मूल सिद्धान्तों पर दृष्टि पात करें। कर्त्तव्य इनमें सर्वप्रथम आता है। कर्त्तव्य की सबसे स्पष्ट व्याख्या है, अपने कार्य में तल्लीनता और दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप न करने की भावना। वह व्यक्ति जो सदैव दूसरों को मार्ग बताने का दावा रखता है, स्वयं अपने ही मार्ग को नहीं जानता। भिन्न भिन्न व्यक्तियों के कर्त्तव्य भिन्न होते हैं और दूसरों के कर्त्तव्य की अपेक्षा प्रत्येक को अपने कर्त्तव्य का ज्ञान अधिक होना चाहिए। आवश्यकता और स्थिति के अनुसार हम कर्त्तव्य की मीमाँसा में थोड़ा बहुत परिवर्तन कर सकते हैं। मूल तत्व फिर भी वही है।

ईमानदारी जीवन का दूसरा सिद्धान्त है। वही करो जो कहो और वही कहो जो करो इसका मूल मन्त्र है। इसका कार्य जीवन को अनेकानेक चालाकियों, चालबाजीयों और छल कपटों से दूर करना है। ईमानदारी से मनुष्य के प्रति विश्वास उत्पन्न होता है और यह विश्वास ही संपूर्ण सुख और समृद्धि का जनक है।

मितव्ययता जीवन का तीसरा सिद्धान्त है। धन के उचित उपयोग को ही मितव्ययता कहते है। ज्यों ज्यों धन बढ़ता जाता है मितव्ययता की आवश्यकता बढ़ती जाती है। अपनी आय की सीमा में ही अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखो इसकी सर्वप्रथम सीख है। धन के अतिरिक्त यह हमें मानसिक और शारीरिक शक्तियों के दुरुपयोग से भी रोकती है। हमारी आय और शक्तियाँ सीमित हैं। उनका अपव्यय शीघ्र ही हमें उनसे वंचित कर देगा। इसलिए उनका उपयोग क्रमशः एवं आवश्यकता के अनुसार किया जाना चाहिए।

उदारता अप्रत्यक्ष रूप से मितव्ययता से सम्बन्धित है। जो मितव्ययी न होगा वह उदार भी नहीं हो सकता। जो अपनी सम्पूर्ण शक्तियों का अपव्यय स्वयं ही कर लेगा, उसके पास इतनी शक्तियाँ ही कहाँ रहेंगी कि वह दूसरों पर इसका उपयोग करे। धन की सहायता तो उदारता की सब से साधारण अवस्था है। विचारों भावनाओं सद्कामनाओ। द्वारा प्रदत्त सहायता उदारता की सीमा में आती है। उदारता का प्रभाव व्यापक और बहुत काल तक रहने वाला होता है। उदारता अपने बदले में किसी से किसी प्रकार की कामना नहीं करती। प्रतिफल की इच्छा रखने वाली उदारता सिद्धान्त न होकर व्यापार मात्र रह जाती है।

आत्मा संयम जीवन का पाँचवाँ और अंतिम सिद्धान्त है। वह व्यवसायी अथवा अन्य कोई व्यक्ति जो शीघ्र ही नाराज हो जाता है और असंयत भाषा और भाव प्रदर्शित करने लगता है, जीवन में कभी सफल नहीं हो सकता। अपने मन की दुर्बलताओं पर अधिकार करते समय और परिस्थिति के अनुकूल विवेक द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलते हुए ही आत्म संयमी व्यक्ति सदैव कर्त्तव्यनिष्ठ चरित्रवान और मानव सुलभ संपूर्ण गुणों से सुशोभित होगा। आत्म संयमी व्यक्ति के लिए संसार में न तो कोई कार्य कठिन है और न उसके पथ पर कोई बाधा ही है।

उपयुक्त पाँच सिद्धान्त सफलता के पाँच मार्ग है, जीवन के पथ पर प्रकाश की पाँच किरणें हैं। संभव है कि प्रारम्भ में इनका व्यावहारिक निरूपण कठिन हो, किन्तु अभ्यास हमें इन सिद्धान्तों से अभिन्न रूप से जोड़ देगा। यदि हम इनकी उपयोगिता और महत्व को अच्छी तरह से समझ ले, तो हमें इन्हें अपनाने में तनिक भी कठिनता न होगी।

यदि हम संसार के महापुरुषों के जीवन का भली भाँति विश्लेषण करें तो हमें ज्ञात होगा कि उनमें से प्रत्येक के ही जीवन में यह पांचों सिद्धान्त किसी न किसी रूप में भली भाँति विद्यमान है। इसमें मानो किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व का निचोड़ आ जाता है।

महाप्रभु कौटिल्य ने ठीक ही कहा है- तू सूर्य और चन्द्र को अपने पास नहीं उतार सका, इसका कारण उनकी दूरी नहीं, तेरी दूरी की भावना है। तू संसार को बदल नहीं पाया इसका कारण संसार की अपरिवर्तनशीलता नहीं, तेरे प्रयासों की शिथिलता है। जब तू यह कहता है मैं अपने में परिवर्तन नहीं कर सकता तो इसे स्थिति और विवशता कह कर न टाल, साफ साफ आनी कायरता और अकर्मण्यता कह। क्योंकि इच्छा की प्रबलता ही कार्य की सिद्धि है।

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