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Magazine - Year 1952 - Version 2

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शक्तियों का केन्द्र-तप ही है।

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तप से शक्ति उत्पन्न होती है और उस शक्ति के द्वारा मनुष्य अनेक प्रकार के साँसारिक एवं आध्यात्मिक सुख साधन प्राप्त करता है। तप के द्वारा किसी भी जड़ चेतन वस्तु का निखार एवं उत्कर्ष होता है। जड़ जगत् में, पंच भौतिक संसार में और अध्यात्म क्षेत्र में यह नियम एक समान काम कर रहा है।

जड़ जगत् पर दृष्टि डालिये, सोना तपाने पर निखरता है, कच्चे लोहे को तपाने के बाद ही उससे मशीनें तथा औजार बनते हैं, मिट्टी के बर्तन जब अवे में पकते हैं तब उसमें मजबूती और सुन्दरता आती है। कढ़ाई में तपने पर अन्न से बढ़िया पकवान बनते हैं, लुहार, सुनार, हलवाई, रसायन बनाने वाले, रंगरेज, धोबी, आदि की भट्टियाँ नित्य चेतती हैं, और उन पर चढ़ने वाले पदार्थ थोड़े ही समय में कुछ से कुछ बन जाते हैं।

घर्षण से भी अग्नि उत्पन्न होती है और उस आतप से अनेक वस्तुओं का परिपाक होता है। खराद एवं शान पर चढ़कर वस्तुओं में तीक्ष्णता, सफाई एवं चमक पैदा होती है। हथियार, बर्तन, औजार, पुर्जे, रत्न, पत्थर आदि की घिसाई से उनके पूर्व रूप में भारी परिवर्तन होता है। बिजली, भाप, पेट्रोल, ऐटम आदि शक्ति स्रोतों का मूल उद्गम उनकी अग्नि ही है और उसी पर विज्ञान का सारा आधार निर्भर है। सूर्य की अग्नि में तप कर ही सारा जड़ चेतन संसार जन्म, विकास और विनाश के चक्र में चढ़ा हुआ गतिशील हो रहा है। वर्षा बादल, और वायु का संचार एक भौतिक तप का ही परिणाम है। अंडे और बच्चे, बीज और फल, जिस शक्ति के कारण पलते और पकते हैं उसका नाम तप ही है। तप के तथ्य को यदि हटा दिया जाय तो शून्य निस्तब्धता और गहन अन्धकार के अतिरिक्त इस संसार में ओर कुछ भी शेष न रहेगा।

सजीव प्राणिजगत पर दृष्टि डालिए तो मालूम पड़ेगा कि जिसको जो कुछ प्राप्त है वह उसके तप के कारण ही है। परिश्रम, कष्ट, सहिष्णुता, लगन, अध्यवसाय, एकाग्रता, निरन्तर साधना, प्रयत्न, पुरुषार्थ के कारण लोगों को तरह-तरह की शक्तियाँ, योग्यताएं, सामर्थ्य एवं सम्पदाएं प्राप्त होती हैं। विद्यार्थी, व्यापारी, किसान, मजदूर, शिल्पी, संगीतज्ञ, चिकित्सक, नेता, साधु आदि सभी वर्गों के लोग अपने अपने कार्य क्षेत्र में, हमको अपने उद्देश्य के लिए, अपने अपने ढंग से तप करते हैं, जिसका तप जितना अधिक होता है उसे उसी हिसाब से सफलता एवं सम्पन्नता मिलती चलती है। इतिहास बताता है कि पुरुषार्थ प्रधान जातियाँ आगे बढ़ीं और ऊँची उठीं इसके विपरीत आलसी, विलासी, भीरु, अकर्मण्य लोग व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से विनाश के गर्त में चले गये। जो वृक्ष ऋतु प्रभावों को सहते हैं वे ही दीर्घजीवी होते हैं और जिनकी सहनशक्ति निर्बल होती है वे थोड़ी सी सर्दी गर्मी में ही नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार तपस्वी मनुष्य ही सफल होते देखे गये हैं।

कहीं कहीं तप और सत्परिणाम की संगति दिखाई नहीं पड़ती, उसका कारण संचित और आगत कर्मों का विधान ही है। किन्हीं को स्वल्प प्रयत्न में या बिना प्रयत्न के ही बहुत लाभ होता देखा गया है, इसमें उसके पूर्व संचित सुकृत ही प्रधान कारण है। जब उसकी वह संचित पूँजी समाप्त हो जायगी तो उसे अपने वर्तमान स्वल्प प्रयत्नों के अनुकूल स्वल्प परिणाम ही उपलब्ध रहेगा। इसी प्रकार जिनके पिछले दुष्कृत, दुर्भाग्य इस समय भोगने अनिवार्य है उनका वर्तमान तप असफल रहता हुआ दिखाई पड़ता है परन्तु जैसे ही वह पुराना भोग समाप्त हुआ कि नवीन सुकृत का आशा जनक सत्परिणाम तुरन्त सामने आ उपस्थित होता है। संचित और आगत कर्मों के परोक्ष विधान के अनुसार किन्हीं के तप से न्यूनाधिक लाभ होता दिखाई दे तो भी इतना निश्चित है कि तपस्या कभी भी निष्फल नहीं जाती, उसका यथोचित परिणाम अवश्य ही प्राप्त होता है। संसार का यह अविचल और अकाट्य नियम है।

शक्ति का उद्गम स्थान तप है। तप से शक्ति उत्पन्न होती है। उस शक्ति को उचित या अनुचित मार्ग में लगाना मनुष्य की अपनी इच्छा के ऊपर निर्भर है। चोर, डाकू, लुटेरे एवं कुकर्मी लोग भी अपने ढंग से काफी तप करते हैं और अपने क्षेत्र में उसका परिणाम भी पाते हैं। यह दूसरी बात है कि शक्ति का दुरुपयोग करने एवं कुमार्ग में लगाने का पीछे चलकर उन्हें दुष्परिणाम भुगतना पड़े। चाकू का काम काटना है उससे फल काटना या उँगली काटना अपनी इच्छा पर निर्भर है। तप से शक्ति उत्पन्न होती वह शक्ति कहाँ, कब,किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार प्रयुक्त की जाय यह उस प्रयोक्ता की इच्छा पर निर्भर है।

यह संसार तप के आधार पर बना है, और उसी के आधार पर उसकी जीवनचर्या एवं गतिशीलता निर्भर है। जड़ चेतन सभी पर इस दैवी विद्यमान के नियम समान रूप से काम कर रहे हैं। यह नियम आध्यात्मिक क्षेत्र में तो और भी व्यापक रूप से काम करता है। सृष्टि के आदि काल से लेकर आज तक जितने भी आत्म शक्ति सम्पन्न महापुरुष हुए हैं उनकी महत्ता का एक ही कारण रहा है और वह था-तप।

परमात्मा ने मनुष्य के शरीर और मन में अनेक सूक्ष्म शक्तियों के अद्भुत भण्डार भर दिये हैं, उसके अणु अणु में चमत्कारी दिव्य शक्तियों के कोष छिपे हुए हैं। यह कोष सुषुप्त अवस्था में पड़े रहते हैं। जिस प्रकार रात्रि में सब जीव जन्तु सोते रहते हैं और प्रातः काल सूर्य की गर्मी फैलते ही निद्रा खुल जाती है उसी प्रकार तप की गर्मी से वे सुषुप्त शक्तिकोष जागृत होते हैं और मनुष्य उन ईश्वर प्रदत्त सूक्ष्म शक्तियों के बल से सुसज्जित हो जाता है जो चिरकाल में उसके भीतर सोई हुई पड़ी थी। जैसे चिड़ियों की छाती की गर्मी से अण्डे पकते हैं, जैसे आम के कच्चे फलों को अनाज या भूसे में पाल लगाकर उन्हें पकाते हैं वैसे ही तप की गर्मी से गुप्त मनः शक्तियों का परिपाक होता है और सुपक्व मधुर परिणामों का आविर्भाव होता है।

स्थूल से सूक्ष्म की शक्ति सदा ही असंख्य गुनी होती है। शरीर से बुद्धि सूक्ष्म है और बुद्धि से आत्मा सूक्ष्म है। शरीर से मजदूरी करने वाला मजूर एक दिन जितना कमाता है बुद्धि से मजूरी करने वाला वकील उससे अधिक कमा लेता है। पहलवान की अपेक्षा विद्वान की प्रतिष्ठा अधिक होती है। क्योंकि शरीर की अपेक्षा बुद्धि सूक्ष्म है और उसकी सामर्थ्य भी अधिक है। शरीर बल और बुद्धि बल, दोनों की अपेक्षा आत्म बल अधिक महान है क्योंकि शरीर और बुद्धि दोनों की अपेक्षा आत्मा असंख्य गुनी सूक्ष्म है। तप के द्वारा आत्मा की उन शक्तियों का प्रकटीकरण एवं विकास होता है, जिसके कारण मनुष्य देव श्रेणी में पहुँच जाता है, जिनके कारण हमारे पूर्वज जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक और स्वर्ण सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे।

शारीरिक और मानसिक तपश्चर्या में आज अधिकाँश लोग लगे हुए हैं, वे उसका विवेक सम्मत सदुपयोग नहीं करते तो भी अपना काम चलाने लायक भोग ऐश्वर्य उसी के आधार पर उपार्जित करते हैं। जो तप विहीन हैं, आलसी अकर्मण्य और दुर्बुद्धि हैं वे इस संसार में भी अपनी कमजोरी के कारण दुर्दशा ग्रस्त बने रहते हैं। आत्मिक तप की श्रेष्ठता का महत्व और महात्म्य सर्वोपरि है जो इस क्षेत्र में तपस्या करते हैं वे उन सुख सुविधाओं के स्वामी बनते हैं जिनका अन्य किसी मार्ग से प्राप्त होना सम्भव नहीं है। आत्मिक क्षेत्र की तपश्चर्या का इतिहास ही भारतीय संस्कृति का इतिहास है। भारतवासियों ने इसी क्षेत्र की सफलताओं और सम्पत्तियों को सच्ची सफलता और सम्पत्ति माना है, इसीलिए ये देव पुरुष माने जाते रहे हैं और उनकी भूमि को “स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा जाता है।

प्राचीन काल में राजा से लेकर रंक तक तप की दिशा में उत्साहपूर्वक अग्रसर होते थे। राजा अपने बालकों को गुरुकुलों में तपस्वी जीवन बिताते हुए शिक्षा प्राप्त करने के लिए वनवासी ऋषियों के सुपुर्द कर देते थे। उसी का परिणाम कि भारत माता की कोख से सदैव महापुरुष उत्पन्न होते रहे हैं। आज उस महानता का परित्याग करके लोग भोग और लोभ के निम्नस्तर पर उतर आये हैं उसी का फल है कि वे व्यक्तिगत और सामूहिक शान्ति और उन्नति से रहित होते जा रहे हैं और चिन्ता, कलह, पाप एवं अशान्ति से सारा वातावरण दूषित हो रहा है।

सच्ची शान्ति, उन्नति और सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए हमें तप का आश्रय लेना पड़ेगा। शारीरिक और बौद्धिक क्षेत्रों से ऊँचा उठकर आध्यात्मिक क्षेत्र को अपना कार्य क्षेत्र बनाना होगा। तब हम साँसारिक सुख साधनों को सहज ही प्राप्त करते हुए उन महान लाभों के भी अधिकारी बन सकेंगे जो सार्वभौम आनन्द के हेतु होते हैं।

मनुष्य जीवन की सच्ची सम्पत्ति तप है और तप का एकमात्र केन्द्र गायत्री है। गायत्री के अतिरिक्त तप का और कोई मार्ग नहीं। जितनी अनेक प्रकार की तपश्चर्याएं विभिन्न रूपों में दिखाई पड़ती हैं उन सब का उद्गम गायत्री है। बिना गायत्री के कोई तप सफल नहीं हो सकता। जैसे बिना नींव जमाये कोई मकान खड़ा नहीं हो सकता, यदि खड़ा भी हो जाय तो ठहर नहीं सकता इसी प्रकार बिना गायत्री के कोई तपस्या न तो पूर्ण होती है और न उसमें सफलता ही मिलती है। तप का मूल तत्व गायत्री में सन्निहित “भर्ग” ही है जिसकी चर्चा अगले अंक में करेंगे। पाठकों को यह भली प्रकार समझ लेना है कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए तप आवश्यक है तप से ही सच्चा आत्म कल्याण संभव है।

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