• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • नीति धर्म को मत छोड़िए।
    • संकट के अवसर पर
    • संकट के अवसर पर (Kavita)
    • धन का उचित उपयोग
    • धर्म का तत्व ज्ञान
    • योगिराज अरविन्द की अनुभूतियाँ
    • Quotation
    • भगवत् प्रेम का त्रिकोण
    • प्रतिभा का प्रकाश
    • चारित्रिक दृढ़ता
    • जाकी रही भावना जैसी
    • श्रद्धा तथा स्नेह
    • शिक्षा सुधार के लिए कुछ उपयोगी सुझाव
    • धर्ममय समाज
    • निर्जीव और सजीव आहार
    • शक्तियों का केन्द्र-तप ही है।
    • गायत्री अंक के लिए
    • गायत्री जयन्ती का पुण्य पर्व
    • गायत्री मन्दिर की पुण्य प्रगति
    • विश्लेषण
    • विश्लेषण
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1952 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


योगिराज अरविन्द की अनुभूतियाँ

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 5 7 Last
भाषा और कर्म की तरंग से ही काम नहीं चल सकता। उसके साथ ज्ञान का मिश्रण चाहिये। ज्ञान का मिश्रण हुये बिना सब निष्फल हो जायगा। पूर्ण साधनों में ज्ञान और शान्ति है। उसमें कर्म भी है, किन्तु साधारण नहीं, भक्ति भी है। किन्तु चित्तवृत्ति के भाव से उत्पन्न नहीं। कर्म में भक्ति का स्थान है, किन्तु हमें भक्ति एवं कर्म के ऊपर रहना होगा। वहाँ से ही हम शान्ति के आनन्द का अनुभव करेंगे। कर्म एवं भक्ति में भी आनन्द है, किन्तु वह आनन्द शान्ति का आनन्द नहीं है। कारण यह है कि, इनमें पूर्णता नहीं है, इसलिये इनका आनन्द भी शान्ति का आनन्द नहीं। जब कर्म एवं शक्ति को छोड़कर ऊपर निकल जायेंगे, तब जो ज्ञान प्राप्त होगा, उसी में शान्ति का पूर्ण आनन्द है।

किसी प्रकार भी अहंकार नहीं रहने देना चाहिये। बहुतों में सात्विक गर्व रहता है। बाहर से सात्विक अहंकार-राजसिक अहंकार या तामसिक अहंकार की अपेक्षा अच्छा दिखायी पड़ सकता है, किन्तु वास्तव में यह भी अहंकार ही है। सात्विक अहंकार देखने से ही, एक दिन राजसिक या तामसिक अहंकार प्रकट हो सकता है। क्योंकि जहाँ सात्विक अहंकार रहता है, वहाँ राजसिक और तामसिक अहंकार भी भीतर में सूक्ष्म रीति से अलक्षित पड़ा रहता है। राजसिक और तामसिक अहंकार के प्रकट होने पर आपत्ति की मात्रा अधिक हो जाती है। कुशल इसी में है कि, अहंकार बिलकुल रहने ही न पावे—चाहे वह सात्विक अहंकार हो, चाहे राजसिक अहंकार अथवा तामसिक अहंकार कोई भी क्यों न हो।

ध्यान रखते समय बैठा रहने पर चिन्ता-प्रवाह जब कम हो जाय, तब इस ओर पूरी शक्ति लगानी चाहिये। ऐसा करने से भीतर में शान्ति उत्पन्न होगी और उस शान्ति से मानव ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण हो जायगा। उस समय ऐसा मालूम होगा कि ऊपर से ज्ञान-धारा गिरकर मानस में आ रही है। इस प्रकार करते-करते जब साधक विज्ञान में पहुँच जाता है, तब उसकी यह अवस्था विलक्षण नाम से सम्बोधित की जाती है, और इस ज्ञानकोष में जो स्थित अवस्था है, वह स्वभाव कहलाता है। पहले पहल योग की जो अवस्था होती है, उस अवस्था से मनुष्य की अवस्था ही स्वाभाविक होती है। बस इस ज्ञान की अवस्था का नाम ही विलक्षण है, साधारण लोग कर्म की प्रवृत्ति से कर्म करते हैं और योगफलोग यह देखते हैं कि, कर्म के बाद एक महान विराट् भाव रहता है—उसी ज्ञान के अनुभव के सहारे वे कार्य (कर्म) करते हैं।

कर्म से परे जो महान और विराट् भाव रहता है, उसका अनुभव तो होगा ही, उसके बाद और भी अनुभव करना पड़ता है—पुरुष का—उस पुरुष का जो शक्ति से भी परे रहकर कार्य कर रहा है। इस पुरुष का अनुभव होने पर ही पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है। साधना के ज्ञान की तीन अवस्थाएँ हैं। पहली अवस्था है आत्मज्ञान की, दूसरी ब्रह्मज्ञान की और तीसरी है भगवद्ज्ञान की। आत्मज्ञान होने पर यह प्रतीत होने लगता है कि, मैं सब में स्थित हूँ और सब मुझ में स्थित हैं, इसके बाद जब ब्रह्मज्ञान हो जाता है,उस समय यह प्राप्त हो उठता है कि, सब एक है, किसी में भेद नहीं है—और सृष्टि की सारी वस्तुएँ ही ब्रह्म हैं, सबके अन्त में जब भगवद्ज्ञान हो जाता है, तब यह प्रत्यक्ष दिखायी पड़ने लग जाता है कि, ब्रह्म ही भगवान् हैं, भगवान् सब प्राणियों में हर समय विराजमान रहा करते हैं। उस समय एक विश्व-ज्ञान से साधक परिपूर्ण हो जाता है—संसार में उसे फिर कुछ भी भेद दिखायी नहीं पड़ता। सारा जगत् ही इस समय उसे भगवान्मय दीखने लग जाता है। यह जो हमने विभिन्न ज्ञान की बात कही है, इसमें कौन ज्ञान पहले होता है और कौन पीछे, इसका कोई नियम नहीं है।

एक बात और है। यह है कि, संसार भर के प्रति स्नेह का भाव पूर्ण रीति से हृदय में रक्खो, किन्तु सबके लिये समान भाव से। किसी के लिये कम और किसी के लिये विशेष नहीं। प्राणीमात्र में भगवान क्रीड़ा कर रहे हैं—यह स्मरण रहे। इस ज्ञान में किसी प्रकार की रुकावट पैदा न होनी चाहिये। एक से गम्भीर स्नेह करना ही त्याग है। त्याग और पूर्ण-श्रद्धा होने से ही हृदय की सारी बाधाएँ दूर हो जायेंगी। भगवान् सारी बाधाओं को ध्वंस कर डालते हैं। अधीर या विचलित न होकर स्थिर भाव से निष्ठापूर्वक आगे बढ़ते चलो—जब विज्ञान प्रारम्भ हो जायगा, तब स्वरूप-लाला सिद्ध-रूप से सम्पन्न हो जायगा।

मन के स्थिर और शान्त होने पर ही सत्य का प्रकाश होता है। भगवान् जो स्वयं प्रकाश-स्वरूप कहे जाते हैं, वह बहुत ही ठीक और उचित है। मन के निश्चिन्त और स्थिर हो जाने पर भगवान् अपने-आप ही प्रकाशमान होते हैं, अर्थात्-उनका रूप दीखने लगता है। विज्ञान—मय कोष को वेदों और उपनिषदों में सूर्य-स्वरूप कहा गया है, यह भी बिल्कुल ज्वलन्त सत्य की अनुभूति है। सूर्य वर्ण ज्योति-पुरुष का अनुभव किया भी जाता है। यहाँ पहुँचने पर सब लोग इस स्वरूप का अनुभव करते हैं और कर सकते हैं।

कर्मयोग का प्रवाह भी इसी तरह का है। पहले फलाफल का समर्पण करके, अर्थात्—फलाफल की आशा त्याग कर कार्य करते जाना चाहिये। हृदय में भगवान हैं, ऐसा समझकर उनका स्मरण करते हुये सब कार्यों का आरम्भ करना चाहिये। यथा नियुक्तोऽस्मि। इसमें भी मैं करता हूँ। इसके पश्चात् इस कर्तव्य के अभिमान का भी त्याग (उत्सर्ग) कर देना चाहिये। फल के साथ-ही-साथ कर्म का भी स्मरण करना पड़ता है। सब कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार ही होते हैं, इसे पुरुष दृष्टाभाव से देखता रहे। इसमें भी ज्ञानयोग सा वही दृष्टत्व ही आया है। देखोगे कि, वह विश्व भाव की शक्ति, सारी चिन्ताओं, अनुभवों और सृष्टि का सम्पादन करके चल रही है। उस समय एक शान्त, समदर्शी और साक्षी अवस्था प्राप्त होती है।

ऊपर उठना चाहिये, इसके माने यह नहीं हैं कि कोई ठीक स्थान है, उसी जगह यह सब प्रपञ्च छोड़कर उठ जाना होगा। इसका मतलब यह है कि हमारा वर्तमान स्वभाव बड़े ही बुरे स्वभाव का हो गया है, इसलिये उन बुराइयों को दूर करने की आवश्यकता है। वास्तव में सभी वस्तुओं को ब्रह्मत्व और सत्यत्व को लेकर ही हम वर्तमान स्वभाव को छोड़कर उठते हैं—उस समय इसके सब अंगों का असली स्वरूप प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि आगे इस शारीरिक ज्ञान, इस जड़ बुद्धि और देह चैतन्य को छोड़कर उठे बिना सूक्ष्म, सत्य अथवा अध्यात्म—सत्य का कुछ भी अनुभव नहीं किया जा सकता।

पूर्ण विश्वास एवं भक्ति-द्वारा मनुष्य बहुत बड़े-बड़े काम कर सकता है। एक व्यक्ति को पीछे रखकर उस पर निर्भर रह कर मनुष्य उस स्थल पर किसी प्रकार की भावना न करके काम करता जा रहा है, क्योंकि उस व्यक्ति पर कर्म की असाधारण भक्ति है—किसी दिन भी वह यह नहीं सोचता कि, जो कर्म किया जा रहा है, इसका परिणाम क्या होगा एवं इसकी सुदूर-प्रसारित सार्थकता क्या होगी और क्या नहीं। निर्भरता, बहुत ही श्रेष्ठ उपाय है, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु इससे मनुष्य कितना आगे बढ़ सकता है, यह विचारने की बात है। और फिर निर्भरता से कर्म ही कितने दिनों तक किया जा सकता है? ऐसी-दशा में इस प्रकार की भी व्यवस्था आ सकती है, जबकि वह पछाड़ खाकर गिर जायगा। इसका कारण यह है कि, इस प्रकार के क्षेत्र में अधिकाँश मनुष्यों की भक्ति तामसिक होती है। इस तामसिक भक्ति को लेकर मनुष्य बहुत दिनों तक अपने कर्म पर दृढ़ नहीं रह सकता, जिस दिन उसकी भक्ति का प्राबल्य कम हो जायगा, उस दिन वह काम पूर्ण-उत्साह और सहायता से करता हुआ आगे बढ़ता रहेगा, उस काम में बिल्कुल शिथिलता आ जायगी और धीरे-धीरे वह काम एकदम नष्ट भ्रष्ट हो जायगा।

कार्य करना भी एक साधना है। अपने जीवन में हम जो कुछ कर रहे हैं, वह सब भगवान के लिये ही कर रहे हैं, बस ऐसा ज्ञान रख कर या ऐसा समझकर ही कर्म करना चाहिये। कुछ-न-कुछ करना ही चाहिये, ऐसा समझकर जो कुछ सामने आवे उसी में लग जाय, यह कोई उचित बात नहीं है। हमें कर्म करना चाहिये, किन्तु अपनी अन्तरात्मा की पूर्ण आज्ञा से, यों ही नहीं। भीतर से हमें जिस काम करने के लिये जैसी प्रेरणा हों, उसी के अनुसार कर्म करने के लिये हमें तत्पर होना चाहिए। अब यहाँ पर यह समस्या उपस्थित होती है कि, सामने जो बहुत से काम उपस्थित हैं, उनमें कौन-सा काम हमें करना चाहिए, कौन-सा कर्म हमारा निदृष्टि कर्म है, इसी को निश्चय करने की आवश्यकता है।

First 5 7 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • नीति धर्म को मत छोड़िए।
  • संकट के अवसर पर
  • संकट के अवसर पर (Kavita)
  • धन का उचित उपयोग
  • धर्म का तत्व ज्ञान
  • योगिराज अरविन्द की अनुभूतियाँ
  • Quotation
  • भगवत् प्रेम का त्रिकोण
  • प्रतिभा का प्रकाश
  • चारित्रिक दृढ़ता
  • जाकी रही भावना जैसी
  • श्रद्धा तथा स्नेह
  • शिक्षा सुधार के लिए कुछ उपयोगी सुझाव
  • धर्ममय समाज
  • निर्जीव और सजीव आहार
  • शक्तियों का केन्द्र-तप ही है।
  • गायत्री अंक के लिए
  • गायत्री जयन्ती का पुण्य पर्व
  • गायत्री मन्दिर की पुण्य प्रगति
  • विश्लेषण
  • विश्लेषण
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj