
धर्म का तत्व ज्ञान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(लोकमान्य तिलक)
नित्य व्यवहार में धर्म शब्द का उपयोग केवल “पारलौकिक सुख का मार्ग, इसी अर्थ में किया जाता है। जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि ‘तेरा कौन-सा धर्म है?” तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिये किस मार्ग—वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुहम्मदी या पारसी—से चलता है और हमारे प्रश्न के अनुसार ही वह उत्तर देता है। उसी तरह स्वर्ग प्राप्ति के लिये साधनभूत यज्ञ योग आदि वैदिक विषयों की मीमाँसा करते समय ‘अथातो धर्म जिज्ञासा’ आदि धर्म सूत्रों में भी धर्म शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है। इसके सिवा राजधर्म, प्रजाधर्म, देशधर्म, जातिधर्म कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि साँसारिक नीति बोधकों को भी धर्म कहते हैं। धर्म शब्द के इन दो अर्थों को यदि पृथक करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को ‘मोक्षधर्म’ अथवा सिर्फ मोक्ष और व्यावहारिक धर्म अथवा केवल नीति को केवल धर्म कहा करते हैं। उदाहरणार्थ चतुर्विध पुरुषार्थों की गणना करते समय हम लोग धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, कहा करते हैं।
महाभारत में धर्म शब्द अनेक स्थानों पर आया है और जिस स्थान में कहा गया है कि ‘किसी को कोई काम करना धर्म-संगत है’ उस स्थान में धर्म शब्द से कर्त्तव्य शास्त्र अथवा तत्कालीन समाज व्यवस्था शास्त्र ही का अर्थ पाया जाता है, तथा जिस स्थान में पारलौकिक कल्याण के मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है उस स्थान पर मोक्ष धर्म इस विशिष्ट शब्द की योजना ही है। इसी प्रकार मनु आदि स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के विशिष्ट कर्मों अर्थात् चारों वर्णों के कर्मों का वर्णन करते समय केवल धर्म अर्थ का ही अनेक स्थानों पर कई बार उपयोग किया गया है।
गीता में भी ‘स्वधर्ममपि चावेक्ष्य (गीता. 2-31) स्वधर्में निधनं श्रेयः परधर्मों भयावहः (3-35) आदि कई स्थानों पर धर्म शब्द इस लोक के चातुर्वर्ण्य के धर्म के अर्थ में ही किया गया है।
पुराने जमाने के ऋषियों ने श्रम विभाग रूप चातुर्वर्ण्य संस्था इसलिये चलाई थी कि समाज के सब व्यवहार सरलता से होते जावें। किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या वर्ग पर ही सारा बोझ न पड़ने पावें और समाज का सभी दशाओं से संरक्षण और पोषण भली भाँति होता रहे। यह बात भिन्न है कि कुछ समय के बाद चारों वर्णों के लोग केवल जाति मात्रोपजीवी हो गये, अर्थात् सच्चे स्वधर्म को भूल कर वे केवल नामधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र हो गये।
ऊर्ध्व बाहुर्विरौम्येषः न च कश्चिच्छ्रुणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्म किं न सेव्यते॥
अरे, भुजा उठाकर मैं चिल्ला रहा हूँ, परन्तु कोई भी नहीं सुनता, धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है इसलिये इस प्रकार के धर्म का आचरण तुम क्यों नहीं करते हो।
क्या संस्कृत क्या भाषा सभी में धर्म शब्द प्रयोग उन सब नीति नियमों के बारे में किया गया है जो समाज धारा के लिये शिष्ट जनों के द्वारा अध्यात्म दृष्टि से बनाये गये हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर नीति के उन नियमों अथवा शिष्टाचार को धर्म की बुनियाद कह सकते हैं जो समाज धारणा के लिए शिष्ट जनों के द्वारा प्रचलित किये गये हों। और इसलिए महाभारत (अनु 140-157) में एवं स्मृति ग्रन्थों में “आचार प्रभवो धर्मः” अथवा आचारः परमोधर्मः (मनु॰ 1-108) अथवा धर्म का मूल बतलाते समय “वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य प्रियमात्मनः” (मनु॰ 12-2) हत्यादि वचन कहे हैं।
धर्म शब्द की दूसरी एक और व्याख्या प्राचीन ग्रन्थों में दी गई है, यह व्याख्या मीमाँसकों की है। “चोदनालक्षणोंऽर्थों धर्मः” (जै. सू. 1-1-2) किसी अधिकारी पुरुष का यह कहना अथवा आज्ञा करना कि ‘तू अमुक कर’ अथवा ‘मत कर’ ‘चोदना’ यानी प्रेरणा है। जब तक इस प्रकार कोई प्रबन्ध नहीं कर दिया जाता तब तक कोई भी काम किसी को भी करने की स्वतन्त्रता होती है। इसका आशय यही है कि पहले पहल निर्बंध या प्रबन्ध के कारण धर्म निर्माण हुआ। धर्म की यह व्याख्या कुछ अंश में प्रसिद्ध अंग्रेज ग्रन्थकार हाब्स के मत से मिलता है। असभ्य तथा जंगली अवस्था में प्रत्येक मनुष्य का आचरण समय-समय पर उत्पन्न होने वाली मनोवृत्तियों की प्रबलता के कारण हुआ करता है। परन्तु धीरे-धीरे उस समय के बाद यह मालूम होने लगता है कि इस प्रकार का मनमाना बर्ताव श्रेयस्कर नहीं है और यह विश्वास होने लगता है कि इंद्रियों के स्वाभाविक व्यापारों की कुछ मर्यादा निश्चित करके उसके अनुसार करने में ही सब लोगों को कल्याण है, तब प्रत्येक मनुष्य ऐसी मर्यादाओं का पालन कायदे के तौर पर करने लगता है। जो शिष्टाचार से, अन्य रीति से,सुदृढ़ हो जाया करती है। जब इस प्रकार की मर्यादाओं की संख्या बहुत बढ़ जाती है, तब उन्हीं का एक शास्त्र बन जाता है। पूर्व समय में विवाह व्यवस्था का प्रचार नहीं था पहले पहले उसे श्वेत केतु ने चलाया, इसी प्रकार शुक्राचार्य ने मरा पान को निषिद्ध ठहराया। यह ने देखकर कि इन मर्यादाओं को बनाने में श्वेत केतु अथवा शुक्राचार्य का क्या हेतु था, केवल किसी एक बात पर ध्यान देकर कि इन मर्यादाओं के निश्चित करने का काम या कर्त्तव्य इन लोगों को करना पड़ा, धर्म शब्द की ‘चोदनालक्षणोऽर्थों धर्मः’ व्याख्या बनाई गई हैं।
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे राग द्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वश मागच्छेत् नौ हास्य परि पंथिनौ॥
प्रत्येक इन्द्रिय में अपने-अपने उपयोग अथवा त्याज्य पदार्थ के विषय में जो प्रीति अथवा द्वेष होता है वह स्वभाव सिद्ध है। इनके वश में हमें नहीं पड़ना चाहिये। क्योंकि राग और द्वेष दोनों हमारे शत्रु हैं। तब भगवान भी धर्म का वह फलक्षण स्वीकार करते हैं जो स्वाभाविक मनोवृत्तियों को मर्यादित करने के विषय में ऊपर कहा गया है। मनुष्य की इन्द्रियाँ उसे पशु के समान आचरण करने के लिये कहा करती हैं और उसकी बुद्धि उसके विरुद्ध दिशा में खींचा करती है। इस कलहाग्नि में जो लोग अपने शरीर में संचार करने वाले पशुत्व का यज्ञ करके कृत कृत्य (सफल) होते हैं, उन्हें ही सच्चा याज्ञिक कहना चाहिये और वही धन्य भी हैं।