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Magazine - Year 1954 - Version 2

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रोगों से छुटकारा पाने का मार्ग

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(श्री. हीरालाल जी)

तमाम रोगों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-तीव्र रोग और जीर्ण रोग। तीव्र रोग का आक्रमण यकायक और जोरों का होता है लेकिन जीर्ण रोग की अपेक्षा इस रोग से शीघ्र छुटकारा ही नहीं बल्कि इसके सहारे बहुत सशक्त एवं सुन्दर स्वास्थ्य बनाया जा सकता है क्योंकि तीव्र रोग में शरीर में संचित विजातीय द्रव्य जलकर शरीर को शुद्ध बना देता है। इन रोगों में ज्वर, सर्दी, चेचक, हैजा, संग्रहणी और फोड़े आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जब तीव्र रोग में प्राकृतिक विजातीय द्रव्य निकालने का ठीक-ठीक अवसर और सहायता नहीं दी जाती और रोग दवाओं द्वारा दबा दिया जाता है। तब वही दबकर जीर्ण रोग का रूप धारण कर लेता है। इस रोग में दमा, गठिया, कब्ज, पेचिश आदि शामिल हैं।

साधारणतः यह कहा जा सकता है कि विजातीय द्रव्य का शरीर में धीरे-धीरे इकट्ठा होना ही जीर्ण रोग है।

तीव्र रोग की चिकित्सा के समय यह ध्यान रखना चाहिए कि ये तीव्र लक्षण ही इस रोग के कारण हैं। तीव्र रोग के लक्षण से पता चलता है कि रक्त में विजातीय द्रव्य इकट्ठा हो गया है और बाहर निकलने का रास्ता बना रहा है। इसलिए निमोनिया, टाइफ़ाइड या अन्य प्रकार का ज्वर आने पर समझ लेना चाहिए कि विजातीय द्रव्य अब बाहर निकलना चाहता है। उस समय विजातीय द्रव्य को निकलने के लिए वैज्ञानिक तरीकों पर मदद देनी चाहिए ताकि शरीर शुद्ध एवं मन निर्विकार हो जाय। रोग की छेड़छाड़ करने से विजातीय द्रव्य शरीर से बाहर नहीं निकल पाता और गाँठों में जमा होकर गठिया, फेफड़े में जमा होकर दमा और मूत्राशय में जमा होकर पथरी आदि रोगों का रूप धारण कर लेता है। तीव्र रोग की चिकित्सा सावधानी से करने पर मृत्यु की कम संभावना बनी रहती है।

बिना भूख के ही भोजन करना रोग की नींव को मजबूत करना है इसलिए पेट और आँतों को साफ रखने के लिए काफी पानी पीना चाहिए। यही नहीं पानी में विष को घुलाकर उसे शरीर के बाहर निकलने की अपार शक्ति है। विष को शरीर से बाहर निकालने के लिए यह गुर्दे और त्वचा के काम में सहायक होता है। रोगी की अवस्था देखकर ठंडे-गरम पानी का प्रयोग सावधानी से करना चाहिए। हो सके तो यह प्रयोग किसी विशेषज्ञ से ही करना चाहिए अन्यथा लाभ के बदले हानि की अधिक संभावना रहती है। यदि रोगी कै करना चाहता हो तो भर पेट पानी पीकर उसमें नमक भी मिला कर कै करना चाहिए। कै करने की इच्छा होने के माने यह है कि पेट में कोई चीज है जो बाहर निकलने का प्रयत्न कर रही है।

रोगी यदि कमजोर नहीं है तो रोजाना गुनगुने पानी का एनिमा अवश्य लेना चाहिए। कब्ज तो इससे जाता ही है लेकिन संग्रहणी तक चली जाती है। तीव्र रोग होने पर आँतों एवं त्वचा और गुर्दे को साफ रखने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। खट्टे लेकिन क्षारमय फलों-संतरा, मकोय, आदि-का रस पीना चाहिए। इससे शरीर से मल के निकास में काफी मदद मिलती है। यदि फलों का रस प्राप्य न हो तो तरकारी का रस लेना चाहिए नहीं तो पानी में नींबू ही मिलाकर पीते रहना चाहिए।

अगर आँतें अपना काम न कर रही हों तो उन्हें उत्तेजित करने के लिए खूब गरम पानी का एनिमा देना चाहिए। गरम-ठंडे पानी के अनेक प्रकार के प्रयोग तथा पट्टियाँ भी रोगी को आराम पहुँचाने के लिए दी जा सकती हैं। इसके लिए विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है। त्वचा को साफ रखने के लिए रोगी के कमजोर रहने पर स्पाँज देना चाहिए। तौलिए को गरम पानी में भिगोकर निचोड़ लें फिर आहिस्ता-आहिस्ता पैर से मुँह तक रगड़ें, अंत में ठंडे तौलिए से रगड़ कर छोड़ देना चाहिए।

जब रोग की घंटी को ठीक-ठीक नहीं समझी जाती और उसके कारण दूर करने के बजाय उसे दबाया जाता है जो सूचना देने की घंटी एवं शक्ति धीरे-धीरे मंद पड़ जाती है। बस यहीं से जीर्ण रोग की शुरुआत होती है।

जीर्ण रोग को दूर करना शरीर के अंदर की जीवनी शक्ति को उभारकर रोग को उग्र रूप में लाने की कला है। जो जितना ही उखाड़ लाने और उसे समझने की कला में निपुण होगा उसके हाथ से उतने ही जल्दी रोगी स्वास्थ्य प्राप्त करेंगे।

प्राकृतिक चिकित्सा में उपचार के साधन हैं- भोजन, जल, वायु, धूप, कसरत और मानसिक विचार। इन सब का सहारा बड़ी सावधानी और समझदारी के साथ लेना चाहिए। यह समझ कर चिकित्सा करना कि जितना ही अधिक प्रयोग किया जायगा उतना ही अधिक लाभ होगा सरासर बुद्धिमानी से परे है। बुद्धिमानी तो इसमें है कि चिकित्सक रोग, रोगी की अवस्था, वहाँ के साधन और रहन-सहन तथा जलवायु के अनुसार ही चिकित्सा-क्रम निर्धारित करें। यह नहीं कि जिस गाँव में सालों में भी संतरे का दर्शन न हुआ हो वहाँ के लिए संतरे का और जो रोगी इतना कमजोर हो कि गुन-गुने पानी से भी भागता हो उसे 50-60 डिग्री का एक दम ठंडा पानी दे दे तो वह डर के मारे ही बिना मौत मर जायगा।

चिकित्सा शुरू करने के पहले की दवाओं-का इतिहास और रोगी के खान-पान का भी विवरण जान लेना आवश्यक है। माँसाहारी और एलोपैथी बोतलों को साफ करने वाले रोगियों की दवा बड़ी सावधानी से करनी चाहिए। इनके रोगों में उभाड़ बड़े जोरों का होता है क्योंकि सारा शरीर विष से भरा रहता है। चिकित्सा हमेशा नरम और सुलझी हुई होनी चाहिए।

भोजन जीवन देने के साथ-साथ जीवन लेने वाला भी है। तीव्र रोग में भोजन विष से कम काम नहीं करता। जीर्ण रोग के रोगी को भोजन के गुणावगुण पर सदा ध्यान रखना चाहिए। जो भोजन अनुकूल हो उसे भी उचित मात्रा से अधिक नहीं देना चाहिए, क्योंकि भोजन का जो भाग शरीर के उपयोग में नहीं आयेगा वह विष बनकर शरीर में इकट्ठा होगा। कहावत है “अधिक अमृत भी विष का काम करता है।”

चिकित्सा का काम है शरीर का शोधन करना। इनमें हमेशा क्षारमय और कफ निवारक भोजन करना चाहिए। यों तो साधारण मनुष्य के भोजन में 80 प्रतिशत क्षार और 20 प्रतिशत अम्ल रहना ही चाहिए लेकिन रोगी के भोजन में तो इस नियम का अवश्य ही पालन करना चाहिए। अक्ल को संतुलित करने के लिए अधिक क्षार की आवश्यकता होती है। यकायक भोजन से अम्लकारक खाद्य नहीं निकाल देना चाहिए नहीं तो शरीर शोधन बहुत तेजी से शुरू हो जाता है और बीच में उपद्रव भी होता रहता है।

इसलिए भोजन को इस प्रकार रखना चाहिए-

40 प्रतिशत फल- फलों में कोई भी मौसमी फल- संतरा, टमाटर, मकोय, खीरा, खरबूजा, तरबूज, ककड़ी आदि।

34 प्रतिशत शाक- तरकारी- सभी पत्तीदार तरकारियाँ और कंद को छोड़कर सभी हरी सब्जियाँ-पातगोभी, नेनुआ, तरोई, सरपुतिया, चिंचड़ा, पालक, परवल आदि-खायी जा सकती हैं।

इन तरकारियों का रोजाना दो छटाँक सलाद अवश्य ही खाना चाहिए।

कच्ची तरकारियों को बारीक कतर डालिए और उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए उसमें ऊपर से गिरी लच्छे, भिगोये हुई किशमिश, मट्ठा या एक चम्मच शहद छोड़ सकते हैं।

5 प्रतिशत सूखे मेवे- किशमिश, अंजीर, मुनक्का आदि। सूखे फलों को खाने के 12 घंटे पहले पानी में भिगो देना चाहिए। खाते समय पानी पीकर मेवा खा लेना चाहिए।

10 प्रतिशत कण- चावल, गेहूँ, बाजरा, ज्वार आदि में से कोई भी एक अनाज। लेकिन यह स्मरण रहे कि किसी का भी कण और चोकर अलग नहीं करना चाहिए।

शरीर की सफाई हो जाने के बाद भोजन को इस प्रकार रखना चाहिए-फल तरकारी में 10 और 5 प्रतिशत क्रमशः घटाकर दूध तथा अन्य पदार्थ उसी मात्रा में बढ़ा देना चाहिए। इससे शोधन-काल में खोया हुआ वजन वापस आ जायगा और बढ़िया स्वास्थ्य प्राप्त होगा।

यदि संभव हो तो नाश्ता छोड़ देना चाहिए नहीं तो नाश्ते में कोई रसदार फल, दोपहर को कच्ची और पकी तरकारी और चोकर समेत आटे की रोटी और शाम को यही भोजन रखना चाहिए।

सप्ताह में एक दिन केवल पानी पीकर रहना चाहिए और दूसरे दिन गुनगुने पानी-डेढ़ दो सेर-का एनिमा लेकर पेट साफ कर लेना चाहिए।

यों तो प्राकृतिक चिकित्सा में जल के अनेक प्रयोग हैं लेकिन यहाँ तो हम ऐसी ही चिकित्सा-का वर्णन करना चाहते हैं, जो सर्वत्र आसानी से चलायी जा सके। दिन भर में कम से कम दो-तीन सेर पानी अवश्य ही पीना चाहिए। नित्य सारे शरीर को रगड़ कर ठंडे जल से स्नान करना चाहिए। हो सके तो नदी या झरने का पानी इस्तेमाल किया जाय। जहाँ तक हो ऐसा ही पानी होना चाहिए जहाँ सूर्य की रोशनी, हवा के झोंके आसानी से पहुँचते हों। इसके अलावा यदि प्रबंध हो सके तो रोगी की अवस्था का ख्याल करके कूने का पेडू नहान और मेहन नहान देना चाहिए। पहले तो केवल दोनों समय पेडू नहान लिया जाय लेकिन दो सप्ताह के बाद एक समय पेडू नहान के बदले मेहन नहान लिया जा सकता है। अकसर लोग यह भूल करते हैं कि अधिक से अधिक समय तक नहान लेने का मतलब यह समझते हैं कि जल्दी लाभ होगा, लेकिन ऐसी दशा में लाभ के बदले हानि की अधिक संभावना रहती है। अतः 4-5 मिनट से शुरू करके 10-15 मिनट तक ले लेना चाहिए।

रोगी के लिए हमेशा शुद्ध वायु में रहना आवश्यक है। नदी के किनारे बाग-बगीचों में ही अच्छा रहता है वहाँ धीरे-धीरे साँस को अंदर ले जाना चाहिए और फिर धीरे-धीरे ही उसे बाहर निकालना चाहिए। यह क्रिया दिन में कई बार की जा सकती है। वायु का फेफड़ों से और फेफड़े का सारे शरीर के रक्त संचालन से संबंध है अतः सारे शरीर को शुद्ध और स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध वायु और स्वस्थ फेफड़े की आवश्यकता है।

हमेशा सुबह सूर्य निकलते सिरपर गीला तौलिया रखकर धूप में बैठ जाना चाहिए लेकिन यदि रोगी कमजोर नहीं है तो सूर्य निकलने के 1-2 घंटे बाद जबकि धूप तेज हो गयी हो 10 मिनट से शुरू करके 30 मिनट तक बैठना चाहिए। धूप लेने के बाद तुरन्त खूब रगड़-रगड़ कर ठंडे पानी से नहाना चाहिए। सप्ताह में एक रोज तेज धूप में इसी प्रकार शरीर से पसीना निकालने के लिए गरम पानी पीकर केले अथवा किसी भी हरे पत्ते से शरीर को ढ़ककर लेट जाना चाहिए। पसीना हो जाने के बाद ठंडे पानी से नहाना चाहिए।

रक्त संचालन को ठीक रखने के लिए कसरत जीवन के लिए बहुत ही उपयोगी है। बुढ़ापे का मतलब ही है रक्त-संचालन में कमी। अतः रोगी को रोग भगाने और नया जीवन लाने के लिए कसरत अवश्य करना चाहिए। शक्ति के अनुसार कसरत चुननी चाहिए। टहलना एक ऐसी कसरत है जिसे छोटे-बड़े, अमीर गरीब, निर्बल-सबल सभी कर सकते हैं। इस कसरत द्वारा सारे शरीर पर जोर पड़ता है आसन जानने वालों को तो आसन भी करना चाहिए। आसन से रोग भगाने में काफी मदद मिलती है। यह मन को वश में करने की कुँजी है। टहलने का समय सूर्य निकलने के पहले मंद-मंद वायु में ही अच्छा होता है। टहलते समय सीधा बदन, सीना निकला हुआ होना चाहिए और गहरी साँस लेते रहना चाहिए।

चिकित्सा शुरू करते ही रोग बड़ी तेजी से घटने लगता है लेकिन थोड़े दिन बाद गति मंद पड़ जाती है। उस समय लोग हिसाब लगाने लगते हैं कि इतने दिन में चार आना रोग गया तो बारह आना इतने दिन में जाना चाहिए और निराश हो जाते हैं, लेकिन निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है, उन्हें अपने को प्रकृति के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए, प्रकृति उन्हें अपने आप ठीक समय पर स्वास्थ्य प्रदान करेगी।

रोग से छुटकारा पाने के बाद यह न समझ लेना चाहिए कि अब चाहे जैसे रहें बीमार नहीं पड़ेंगे। यदि हम फिर अपनी पुरानी गलतियों को दुहराते रहेंगे तो बीमार अवश्य ही पड़ेंगे।

विचारों का स्वास्थ्य पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। विचार हमेशा शुद्ध रखना चाहिए। रोज अपने रोग में कमी का ही अनुभव करना चाहिए और निराशा को पास नहीं फटकने देना चाहिए।

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