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Magazine - Year 1954 - Version 2

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राष्ट्र निर्माण के लिए बहनें भी कुछ करें।

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(श्री. तारा बेन मोडक)

जिस संकुचित वातावरण में रह कर स्त्रियाँ स्वयं संकुचित विचारों वाली बन गई थीं और जिस वातावरण के कारण पुरुषों के अन्दर भी स्त्रियों के बारे में संकुचित विचार पैदा हो गये थे, उन सबको मिटाकर आज सुधरे हुए संसार में यह बात सिद्ध की जा चुकी है कि स्त्री पुरुष दोनों मानव समाज के दो अंग हैं जिन पर समाज की समान जिम्मेदारी है।

मनुष्य जीवन में स्त्री की जो जिम्मेदारियाँ हैं, उनको अंगीकार करके हमें स्त्रियों की ओर से अपना विशिष्ट भाग प्रदान करना है। अब तक गृह जीवन स्त्रियों के हाथ में था और बाहर का सारा व्यवहार पुरुषों के हाथ में था। इसके दो परिणाम स्पष्ट रूप से आज हमारे सामने हैं। एक तो यह कि आज समाज में पुरुषों के सभी व्यवहारों को एक प्रकार की श्रेष्ठता और प्रतिष्ठा प्राप्त है और स्त्रियों के काम को जनाना समझकर उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है। आज भी कहीं बाहर जाकर काम करने में स्त्रियाँ विशेष गौरव का अनुभव करती हैं, जबकि घर में रहने वाली और घर सम्हालने वाली बहनें अपने मन में यही समझती हैं कि हम कुछ नहीं करती, और हमारा जीवन व्यर्थ ही बीत रहा है।

दूसरा परिणाम यह हुआ है कि बाहर के सब व्यवहारों पर पुरुषों की छाप पड़ी हुई है। आज हम जिस जगत में रह रहे हैं, वह आदि से अन्त तक पुरुषों की सृष्टि है। व्यापार, व्यवहार, कानून कायदा, राजनीति धर्मनीति, उद्योग धन्धे, सभी कुछ पुरुषों के बनाये हुए हैं। स्त्रियाँ आज इन कामों में कितना ही भाग क्यों न लें तब भी वे पुरुष बनकर यानी पुरुषों द्वारा ठहराये हुए तरीके से, उनके द्वारा विकसित की गई पद्धति से ही आगे क्यों न बढ़ जाएं, कितने ही विभिन्न क्षेत्रों को क्यों न पदाक्रान्त कर लें और पुरुषों की बराबरी करने का कितना ही आत्मसंतोष स्त्री न अनुभव करे तथापि आखिरकार उनको रहना, उसी दुनिया में है, जिसका विधाता पुरुष है।

जो काम स्त्रियों को कुदरत की ओर से सौंपा गया है, और जिसे वे भली-भाँति कर सकती हैं उसी काल संगोपन और बालशिक्षा के काम को यदि वे पूरी तरह सम्हाल लें, तो वे एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी को सम्भाल लेंगी।

स्त्रियाँ कह सकती हैं कि इसमें आपने नयी बात क्या कही? आज न जाने कितने युगों से हम घर की और बच्चों की ही गुलामी करती आयी हैं और रात-दिन उन्हीं का पाखाना पेशाब उठाती हैं, फिर उसी को करने में विशेषता क्या है? पहली विशेषता तो भावना की है। बहनों को समझना चाहिए कि यह काम सिर पर आकर पड़ा हुआ कोई बोझा नहीं है और पुरुष जितने भी काम करते हैं उनमें से किसी से किसी प्रकार हल्का नहीं है। इस भावना से यदि हम इन कामों को करें तो इनमें हम रस की घूँटें पी सकती हैं। इसमें संदेह नहीं कि भावना के रंग से रंग कर हमारे सब काम अधिक सजीव और प्रकाशित हो उठेंगे।

दूसरी विशेषता है उन्हीं कामों को करने के तरीकों की। परंपरागत तरीकों से बच्चों की परवरिश करना एक बात है, और इस सम्बन्ध के शास्त्रों का अध्ययन करके स्वयं प्रयोगों द्वारा उन तरीकों में उन्नति करना दूसरी बात है। यदि स्त्रियाँ बाल संगोपन सम्बन्धी शास्त्रों का अध्ययन करें, गहराई के साथ इन विषयों का चिन्तन ओर मनन करें और इस प्रकार अपने अनुभवी विचारों की भेंट समाज के चरणों में चढ़ाती रहें तो यह काम आज जितना हीन और गौण माना जाता है, उतना न स्वयं स्त्रियों को ही हीन और गौण मालूम होगा, और न पुरुषों को ही गौण लगेगा।

यदि हमारी बहनें, बाल मनोविज्ञान, बाल शिक्षा शास्त्र, बाल शरीर और बाल मानस के विकास का और ऐसे अन्य विषयों का गम्भीर अध्ययन करके तदनुसार इस दिशा में भली भाँति काम करने लगे तो पुरुषों के दिल में कभी यह ख्याल उठेगा ही नहीं कि चूँकि स्त्रियाँ उनकी तरह बाहर जाकर नौकरी नहीं करती, इसलिए वे कोई कम महत्व का काम करती हैं। मराठी में एक कहावत है कि ‘जिव्या इत्यंत पालण्यानी दोरी तीजगास उद्धारी’ यानी जिनके हाथ में पालने की डोरी है वही संसार की उद्धारकर्त्ती भी हैं, यह कहावत आज या तो केवल लेखों और निबन्धों में प्रयुक्त होती है अथवा मातृ दिन के उत्सव पर दोहरा दी जाती है। पर यदि बहनें मन में धार लें तो कल यही चीज पूरे अर्थों में सत्य और सार्थक हो सकती हैं।

दूसरी बात मैं यह कहना चाहती हूँ कि संसार के मानवी व्यवहारों में स्त्री को स्त्री के नाते ऐसा परिवर्तन करना चाहिये जो उसके विचारों और वृत्ति के अनुरूप हों। आज कल जिस तरह व्यवहार देश और प्राणी जाति के बीच में हो रहा है उसमें कई प्रकार का जंगली पन भरा हुआ है, पशुता भी है, हृदय शून्यता और अमानुषता भी है, पुरुषों की इस दुनिया में यह एक सामान्य धारणा बनी हुई है कि जहाँ-जहाँ व्यवहार का सम्बन्ध आता है, वहाँ-वहाँ उसकी नींव असत्य पर ही बनी होनी चाहिए। मनुष्य को दुनिया में यही सोचकर चलना चाहिए कि जहाँ जो कुछ है सो बुरा ही बुरा है जितने हक या अधिकार पाने हैं, वे सब लड़ झगड़कर कर ही पाने हैं। ये और ऐसे अन्य अनेक अलिखित नियम आज मनुष्यों के आपसी व्यवहार में प्रचलित हैं।

मैं मानती हूँ कि यदि स्त्रियाँ पुरुषों का अनुकरण करना छोड़ दें और जो कुछ उनके मन को अच्छा जंचे वैसा ही करने लगे तो मनुष्यों के व्यवहार में कुछ परिवर्तन कर सकती हैं और उसको अभीष्ट रूप भी दे सकती हैं। इसमें शक नहीं कि जो संसार पीढ़ियों और सदियों से पुराने हैं, उनके दूर होने या बदलने में भी काफी समय लगेगा। फिर भी, दुनिया ऐसी कोई चीज नहीं, जो असम्भव हो, आजकल की स्त्री दो रोगों से ग्रस्त है। एक रोग तो यह होता है वह चाहें या न चाहें तो भी उनका मन यह मानना चाहता है कि पुरुष जो कहता है वही ठीक है, पुरुषों के ठहराये हुए नियम उनके बनाए हुए विधि विधान, उनके तैयार किए हुए कानून कायदे और उनके द्वारा प्रचारित रीति रिवाज जो कुछ भी हैं उसे सब उसको सोलहों आने ठीक मालूम होते हैं।

स्त्री का दूसरा रोग है तंगदिली अर्थात् हृदय की संकुचितता। आज स्त्री महान बातों का उतनी ही महानता के साथ विचार नहीं कर पाती। उसके लिए यह महत्व जरूरी है कि वह अपने हृदय को विशाल बनावें और दुनिया को विशाल दृष्टि से देखें।

आज स्त्रियों में पारस्परिक निन्दा का, असहिष्णुता का, असहानुभूति का और इसी तरह के अन्य ‘स्त्री सुलभ’ दूषणों का जो बाहुल्य पाया जाता है, उसकी जड़ में ये दो रोग रहे हुए हैं और ये सब दोष उसकी इसी रोग मन के परिणाम अथवा चिह्न हैं।

हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि स्त्री को यह रोग घर की चार दीवार के अन्दर बन्द रहने के कारण ही लगा है। गृहणी और माता के रूप में अपने कर्त्तव्यों का भली भाँति पालन करना मानव हित की दृष्टि से स्त्री का सब से बड़ा काम है। इस तथ्य को समझ कर जिस दिन स्त्रियाँ पुनः इस ओर झुकेंगी, उस दिन उन्हें खास तौर पर यह बात ध्यान में रखनी होगी कि वे भविष्य में कभी अपने को संकुचित वातावरण में रखकर तंग और संकुचित बनने में यत्न पूर्वक बचाएगी अर्थात् उनको यह बात सदा ध्यान में रखनी होगी कि वे स्वयं भी देश की नागरिक हैं, समाज का अंग हैं और मातृ भूमि की सन्तान हैं। अतएव इन सब नातों से भी उनके अपने कुछ कर्त्तव्य हैं ही, जिनको भुलाना कभी हितकारक नहीं हो सकता। इस दिशा में वे प्रत्यक्ष कुछ काम न कर सकें, तब भी ऐसे प्रश्नों पर सोचते रहना और उनके सम्बन्ध की आवश्यक जानकारी प्राप्त करते रहना बहुत जरूरी है।

इसी तरह जब-जब अवसर मिले, लोक हित का कुछ न कुछ काम घर में बाहर निकल कर करने की जिम्मेदारी अपने सिर लेते रहना भी उनके लिए अच्छा है।

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