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Magazine - Year 1955 - Version 2

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शत्रु बनाने का परीक्षित मार्ग।

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(प्रो. पी. रामेश्वरम्)

दूसरों के दोष देखना कठिन बात नहीं है। सहज ही, छोटी मोटी भूलों को पकड़ कर किसी की भी आलोचना की जा सकती है। तिल का ताड़ बनाया जा सकता है। शब्दों की भी आवश्यकता नहीं। केवल भू−भ्रंगियों द्वारा नाक सिकोड़ कर अथवा मुँह बिचकाकर आप किसी भी व्यक्ति की आलोचना कर सकते हैं, तथा उसकी भूलों को प्रकाश में ला सकते हैं। किन्तु आलोचना करने से अथवा गलती पकड़ने से क्या वह व्यक्ति आपसे सहमत हो सकता है? “तुम बहुत फूहड़ हो। कितनी गन्दी पड़ी है अलमारी और फाइलों का यह हाल है? वास्तव में तुम क्लर्की के योग्य नहीं हो।” यह हैं कुछ नपे तुले शब्द, जो एक अधिकारी अपने क्लर्क अथवा सेक्रेट्री से कहता है। यह वाक्य किसी भाँति एक छुरी से कम नहीं है। सीधे सीधे श्रोता के आत्माभिमान पर चोट करता है। उसके अहंभाव, निर्णय−बुद्धि तथा चतुरता पर प्रहार करता है। क्या इससे वह अपना मस्तिष्क बदल देगा। कदापि नहीं प्लेटो और कान्ट के महान तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर भी उससे बहस की जाय, तो भी व्यर्थ होगा। क्योंकि आलोचना के इस वाक्य ने उसकी भावनाओं को ठेस पहुँचाई है।

दूसरों के दोष देखना और आलोचना करना एक दो धार वाली तलवार है, जो आलोचक एवं आलोच्य दोनों पर चोट करती है। शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करने का इससे सरल मार्ग और कौन सा हो सकता है? एक विद्वान का अनुभव है कि “मैं जब तक अपनी पत्नी के दोष ही देखता रहा, तब तक मेरा गृहस्थ जीवन कदापि शान्तिमय नहीं रहा”। इस प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर सामने वाले व्यक्ति के दोष ही नजर पड़ते हैं, गुण नहीं। गुण—यदि उसमें हों भी−तो इस भाँति छिप जाते हैं जैसे तिनके की ओट पहाड़ छिप जाते हैं। पाश्चात्य सुप्रसिद्ध विचारक बेकन के अनुसार—पर छिद्रान्वेषण करना महा मानस रोग है। इससे मुक्त हो जाना ही चाहिये। मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा था कि ‘दूसरों के दोष देखना−भगवान के प्रति कृतघ्न होना है।

दीपक लेकर ढूँढ़ने पर भी सम्भवतः अभी तक कोई भी व्यक्ति प्राप्य नहीं हो सकता जो सर्वांग पूर्ण हो। जिसमें कोई कमी न हो। ऐसा व्यक्ति अभी तक उत्पन्न ही नहीं हुआ वह तो भविष्य में कभी होना है। तब तक किसी को गलत बनाना, काट छाँट करना कहाँ तक उचित है? डाक्टर जौन्सन कहा करते थे “श्रीमान! स्वयं परमात्मा भी, आदमी के अन्तिम दिन से पूर्व उसके सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं देता। फिर हम और आप ही किसी को गलत कैसे कह दें?” हमारे हृदय में भी वही भाव होने चाहिये कि अपने परिचितों, प्रियजनों, मित्रों तथा अन्य लोगों की नग्नता और बुराइयों को व्यर्थ में ही न देखते फिरें। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में हमारा स्वभाव कपास के समान निर्मल होना चाहिए:—

साधु चरित शुभ सरिस कपासू। सरस विसद गुनमय फल जासू॥ जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा। बन्दनीय जेहि जग जसु पावा॥

स्वयं कष्ट सहन करले किन्तु दूसरों के दोष छिपावे यह सज्जनों का गुण माना गया है। मुस्लिम धर्म ग्रन्थ की एक कथा है कि हजरत नूह एक दिन शराब पीकर उन्मत्त हो गये। उनके वस्त्र अस्त व्यस्त हो गये और अन्ततः वे नंगे हो गये। उनके पुत्र शाम और जैपेथ उलटे पैरों उन तक गये और उन्हें एक कपड़े से ढक दिया। उन्होंने अपने प्रिय पिता का नंगापन नहीं देखा। हमारे हृदय में भी यही भाव होना चाहिये कि अपने प्रियजनों की नग्नता अर्थात् उनकी बुराइयाँ व्यर्थ में ही न देखते फिरा करें।

कष्ट सह कर भी दूसरों के दोष छिपाने और उनकी आलोचना न करने का महत्व बहुत पहले ही जान लिया गया था। ईसा मसीह से भी 2200 वर्ष पूर्व मिश्र के प्राचीन राजा अख्तुई ने कहा था “दूसरों की भूल मत पकड़ और यदि नजर पड़ ही जाय तो कह मत” क्राइस्ट ने भी यही कहा था कि “यदि तू चाहता है कि तेरे दोषों पर विचार न किया जाय, तो तू भी दूसरों के दोषों पर विचार न कर”।

अधिकतर व्यक्ति शिकायत करते हैं कि अमुक मित्र ऐसा है, अमुक सम्बन्धी ऐसा है। उनकी यह कमी है, आदि आदि। पर उस व्यक्ति के उन गुणों पर विचार ही नहीं करते जोकि अन्य व्यक्ति यों में उपलब्ध नहीं हैं और जिनके कारण उन अनेक उलझनों से बचे हुए हैं जिनमें अन्य व्यक्ति परेशान हैं। महर्षि बाल्मीकि ने भगवान राम की प्रशंसा करते हुए बार बार उन्हें ‘अनुसूय’ कह कर स्मरण किया है। अनुसूय अर्थात्—किसी के गुणों में दोष न देखने वाले।

पर दोष−दर्शन के पाप से मुक्ति पाने के लिये, गुण−चिन्तन का अभ्यास डालना चाहिए। प्रतिपक्षी के गुणों का विचार करना चाहिये। चीनी कवि यू−उन−चान की कविता की कुछ पंक्ति यों का अनुवाद हमारे इस कथन का समर्थक है:—

‘हे प्रभु! मुझे शत्रु नहीं—मित्र चाहिये तदर्थ मुझे कुछ ऐसी शक्ति दे। कि मैं किसी की आलोचना न करूं—गुणगान करूं”।

बैंजामिन फ्रैंकलिन अपनी युवावस्था में बहुत नटखट थे। दूसरों की आलोचना करना, खिल्ली उड़ाना उनकी आदत बन चुकी थी। क्या पादरी, क्या राजनीतिज्ञ सभी उनके गाने हुए शत्रु बन चुके थे। बाद में इस व्यक्ति ने अपनी भूल सँभाली और अन्त में जब वह उन्नति करते करते अमेरिकन राजदूत होकर फ्रांस में भेजे गये तो उनसे पूछा—“आपने अपने शत्रुओं की संख्या कम करके मित्र कहाँ से बना लिये?” उन्होंने उत्तर दिया—“अब मैं किसी की आलोचना नहीं करता और न किसी के दोष उभार कर रखता हूँ। हाँ—अलबत्ता—किसी का गुण मेरी दृष्टि में आ जाता है तो उसे अवश्य प्रकट कर देता हूँ। यही मेरी सफलता का रहस्य है”।

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