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Magazine - Year 1955 - Version 2

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आत्म शुद्धि की साधना

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(श्री स्वामी शरणानन्द जी)

अपने कर्त्तव्य से दूसरों के अधिकार को सुरक्षित रखना धर्म है, अर्थात् सेवा के लिए सभी को अपना समझो, किन्तु अपनी प्रसन्नता के लिए केवल सर्व समर्थ भगवान् को ही अपना मानो। ऐसी भावना दृढ़ होने पर एक विचित्र अनुपम बल आ जाता है, जिससे प्राणी कर्त्तव्यपरायण होकर अपने ही में अपने परम प्रेमास्पद भगवान को अनुभव कर लेता है।

मन के दूषित हो जाने पर ही प्राणी दुःखी होता है। पराये दोष न देखने से, किसी का बुरा न चाहने से, संसार को असत्य समझने से, प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करने से मन शुद्ध हो जाता है मन के शुद्ध हो जाने पर व्यर्थ चिन्तन मिट जाता है। व्यर्थ चिन्तन मिटते ही सार्थक चिन्तन अर्थात् स्मरण, चिन्तन, ध्यान, स्वतः होने लगता है। अतः मन को शुद्ध करने के लिए प्राणी को सतत् प्रयत्नशील रहना चाहिये। इसमें हार स्वीकार करना भूल है, क्योंकि मन को शुद्ध करने के लिये प्रत्येक प्राणी सर्वदा स्वतंत्र है। परतंत्रता केवल उपभोग में है, उपार्जन में नहीं।

वर्तमान गतिशील क्षणभंगुर जीवन को सत्य समझना प्रमाद है, जिसे मिटाना चाहिये। प्रत्येक कार्य भगवत् नाते, योग्यता, ईमानदारी तथा परि श्रमपूर्वक करते रहना चाहिये और कार्य के अन्त में सहज भाव से चलते−फिरते उठते−बैठते हृदय से प्रेम पात्र को पुकारना चाहिये। यही सच्चा भजन है।

विचारशील उसी का स्मरण करते हैं, जिसे प्राप्त करना है और सेवा उसी की करते हैं, जिससे छुटकारा पाना है।

अपने को शरीर से असंग कर प्रेमी बन जाओ। शरीर से मिलाकर तो प्रत्येक प्राणी किसी न किसी का प्रेमी बना ही रहता है, परन्तु उसकी प्रीति की वही दशा होती है जो नदी के शुद्ध जल की दशा किसी गड्ढे में आबद्ध हो जाने से होती है। अतः प्रीति जैसे अलौकिक प्रवाह को किसी वस्तु, अवस्था एवं परिस्थिति में आबद्ध मत होने दो। प्रीति का प्रवाह जाग्रत होते ही मन, इन्द्रिय आदि सभी अपने अपने स्वभाव को त्याग कर प्रीतिमय बन जाते हैं। परन्तु यह तभी सम्भव है, जब हम स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीरों से अपने को असंग कर प्रेमी बन जावें। शरीर से असंग होने के लिए विचार के अतिरिक्त किसी अभ्यास की आवश्यकता नहीं है। विचाररूपी−सूर्य उदय होते ही देह−अभिमान−रूपी अंधकार सदा के लिये मिट जाता है।

स्मरण करने योग्य केवल वही है, जिसे सदैव के लिये प्राप्त करना है जिसे प्राप्त करना है वह वास्तव में सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वत्र, सर्वरूप से विद्यमान है, अथवा यों कहो कि सब कुछ उससे ही प्रकाशित है। उसका स्मरण करते ही जगत् का विस्मरण हो जाता है।

जिससे देश−काल की दूरी नहीं होती, उससे केवल न जानने की दूरी होती है। न जानने की दूरी यथार्थ विचार से ही मिटती है, किसी अभ्यास से नहीं।

अभ्यास तो केवल अपनी बनाई हुई आदतों तथा इच्छाओं के परिवर्तन के लिये किया जाता है। भला, बुरा, ऊँचा, नीचा प्राणी अपने को इच्छाओं में आबद्ध करके ही मानता है। प्राणी वास्तव में तत्व में महान् तथा पवित्र है। प्रेम−पात्र का नित्य सखा एवं साथी है। अर्थात् स्वभाव से ही निर्विकार हैं। अतः अपनी इच्छा तथा आदतों से मुक्त होना ही संसार से मुक्त होना है।

मन की शुद्धि अशुद्ध संकल्पों के त्याग करने मात्र से ही हो जाती है। उसके लिये किसी बाह्य अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती। बाह्य अभ्यास उन्हीं प्राणियों को करना पड़ता है जो अशुद्ध संकल्पों को सहज भाव से मिटा नहीं सकते।

अशुद्ध संकल्प मिटने पर विवेक उत्पन्न होता है, जिससे मोह की निवृत्ति हो जाती है। मोह मिट जाने पर स्वतः अनुराग की गंगा लहराने लगती है।

प्रथम आगे−पीछे के व्यर्थ संकल्पों का त्याग करो। उसके पश्चात् अशुद्ध संकल्प मिटा दो। फिर शुद्ध संकल्पों द्वारा वर्तमान कार्य कर डालो। कार्य के अन्त में निःसंकल्पता आ जावेगी। ज्यों−ज्यों निःसंकल्पता स्थायी होती जावेगी, छिपी हुई शक्ति का विकास एवं विवेक उत्पत्ति स्वतः होती जावेगी। अतः निःसंकल्पता प्राप्त करना ही प्राणी का पुरुषार्थ है।

उनकी अहैतुकी कृ पा का विधान अलौकिक है। उसे वही प्रेमी जानते हैं जो सब प्रकार से उनके होकर अचिन्त्य हो गए हैं। उसमें बुद्धि के व्यापार के लिये कोई स्थान नहीं है। उनके हो जाने का स्वाभिमान ही उनका परम पुरुषार्थ है। उनका होने पर प्राणी अपना मूल्य संसार से अधिक कर लेता है और अपने से उनका मूल्य अधिक मान लेता है, अर्थात् उनकी कृपा का भरोसा ही उसका मुख्य साधन बन जाता है।

अभ्यास उन्हीं प्राणियों को करना पड़ता है जो अपने से संसार का मूल्य अधिक मानते हैं। जिन्होंने सरल विश्वास तथा गुरुजनों की कृपा से उनके हो जाने का महत्त्व भली भाँति समझ लिया है, उनके लिये कोई अभ्यास शेष नहीं रहता। ऐसा कौन सा दोष है जो उनका हो जाने पर मिट नहीं जाता? ऐसा कौन−सा गुण है जो उनकी कृपा से आ नहीं जाता? यह भली भाँति समझ लो कि अभ्यास का बोझा उन्हीं को उठाना है, जिन्होंने वस्तुओं के बदले में अपने को बेच दिया है।

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