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Magazine - Year 1955 - Version 2

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(श्री ज्वालाप्रसाद गुप्ता, एम. ए )

परम दयालु पिता परमात्मा ने सुरदुर्लभ मनुष्य शरीर हमें इस लिये नहीं प्रदान किया है कि हम अपनी आवश्यकताएँ, लालसाएँ, वासनाएँ तथा तृष्णाएँ दिन प्रतिदिन बढ़ाते जावें और उनकी पूर्ति के साधन में अहिर्निश परेशान रहने में ही सारा समय व्यर्थ गँवा दें। मनुष्य जीवन का पवित्र उद्देश्य यह है कि जीव अपने बुद्धि ओर विवेक को जागृत करके चिर संचित कुसंस्कारों से अपने चित्त को शुद्ध करके जाति, समाज तथा देश की सेवा करे और अपने आदर्श चरित्र और सत्कार्यों द्वारा संसार के सामने उत्तम उदाहरण उपस्थित करके अपनी कीर्ति को अमर करे। इसके लिये आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने कुविचारों, दुर्गुणों, तथा कुकर्मों को हटाने तथा घटाने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहें और ईश्वर की सेवा समझ कर नित्य ही करते रहें। सत्कर्मों के द्वारा अपना आदर्श उज्ज्वल करना प्रभु के सुन्दर बगीचे−संसार को अधिक सुरम्य बनाने के लिये निरन्तर लोक सेवा एवं परमार्थ के कार्यों में संलग्न रहना यही जीवन का सर्वोत्त सदुपयोग है।

वास्तव में परम पिता परमेश्वर सत् है, इसलिये उसके निमित्त किये जाने वाले कर्म भी सत्कर्म हैं।

“कर्म चैव तदर्थेयं सदित्येवाभिघीयते॥”

ईश्वरार्थ और ईश्वरार्पण दोनों ही प्रकार के कर्म मुक्ति देने वाले हैं। भगवान् कृष्ण ने स्वयं गीता में स्थान स्थान पर इस प्रकार कर्म करने की आज्ञा अर्जुन को दी है।

इसलिये यज्ञ, दान, तप, सेवा, पूजा या जीविका आदि के सभी कर्म ईश्वरीय ही करने चाहिये। जैसे सच्चा सेवक प्रत्येक कार्य स्वामी के नाम पर, उसी के निमित्त, उसी की इच्छा के अनुसार करता हुआ किसी कर्म अथवा धन पर अपना अधिकार नहीं समझता और स्वप्न में भी किसी वस्तु पर उसके अन्तःकरण में ममत्व का भाव न आने से वह न्याययुक्त की हुई प्रत्येक क्रिया में हर्ष शोक से मुक्त रहता है, उसी प्रकार हमें उचित है कि हम अपने अधिकार गत धन, परिवार आदि सामग्री को ईश्वर की ही समझ कर उसकी आज्ञा के अनुसार उसी के कार्य में लगाने की न्याययुक्त चेष्टा करें और जो भी नवीन कर्म अथवा क्रिया करें उसे उसकी प्रसन्नता और आज्ञा के अनुकूल ही करें।

अब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर की इच्छा का पता किस प्रकार चले? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि हम इस सम्बन्ध में ईश्वर से पूछ सकते हैं। वह हमारे हृदय में विराजमान हैं।

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्ठे, मत्तःस्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।

हमारे लिये क्या करना उचित है और क्या अनुचित है यह बात हम अपने हृदयस्थ परमात्मा से यदि जानना चाहेंगे तो वह न्याय प्रभु हमारे हृदय में सत्प्रेरणा ही करेंगे। जब कोई व्यक्ति सद्भाव से परामर्श लेता है तो उसे पवित्र आत्मा द्वारा सत्परामर्श ही प्राप्त होता है। हमारा कर्त्तव्य है कि हम अपने अन्तरात्मा की सच्ची पुकार को सुने, उस पर चलें और उसको ठुकरा न दें।साधारणतया जैसे कोई अपनी आत्मा से पूछता है कि चोरी, व्यभिचार, झूठ और कपट आदि कर्म कैसे हैं? तो उत्तर मिलता है कि त्याज्य हैं—निषिद्ध हैं। इसी प्रकार ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा और सेवा आदि के विषय में आत्मा की सम्मति माँगने पर उत्तर मिलता है कि अवश्य पालनीय हैं। अज्ञान, राग, द्वेष और संशय आदि दोषों द्वारा हृदय के आच्छादित रहने पर किसी विषय में निश्चित उत्तर नहीं मिलता। अतः ऐसे अवसर पर अपनी दृष्टि में जो भगवान के तत्व को जानने वाले महापुरुष हों उनके द्वारा बतलाये हुये विधान को ईश्वर की आज्ञा मान कर तद्नुकूल आचरण करना चाहिये।

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखने तथा उन पर चलने के अतिरिक्त संसार में किसी जीव को कभी भी किसी प्रकार से दुःख भय और क्लेश नहीं पहुँचाना चाहिये और न पहुँचाने की इच्छा या प्रेरणा ही करनी चाहिये। यदि कोई किसी को कष्ट पहुँचाता हो तो उसको किसी प्रकार से न तो सहायता ही देनी चाहिये और न उसका अनुमोदन ही करना चाहिये। इतना ही नहीं, वरन् हृदय में प्रसन्नता भी न माननी चाहिये। इस प्रकार मन, वचन और कर्म द्वारा सत्कार्य करके ही हम अपना हम अपना जीवन सार्थक बना सकते हैं, अन्यथा हम में और पशुओं में कोई अन्तर नहीं रहता हमारा मनुष्य जीवन व्यर्थ तथा निरर्थक है।

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