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Magazine - Year 1955 - Version 2

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प्रलोभनों में मत ललचाइये

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(प्रो. श्रीरामचरणजी महेन्द्र, एम. ए.)

प्रलोभन एक ऐसा आकर्षक मोहचक्र है, जिसका कोई स्वरूप, आकार, स्थिति, अवस्था नियत नहीं है, पदच्युत कर पथभ्रष्ट कर देने के लिये आता है! जीवन में आने वाले बहुत−से मायावी प्रलोभन इतने मनमोहक, लुभावने और मादक होते हैं कि क्षणभर के लिये विवेकशून्य हो अदूरदर्शी बन हम विक्षिप्त से हो उठते हैं। हमारी चिन्तनशील सत् प्रवृत्तियाँ पंगु हो उठती हैं तथा हम विषयवासना, आर्थिक लोभ, स्वार्थ, संकुचिततावश प्रलोभन के शिकार बन जाते हैं। अन्ततः उनसे उत्पन्न होने वाली हानियों, कष्टों, त्रुटियों, अपमान तथा अप्रतिष्ठा से दुग्ध होते रहते हैं। प्रलोभन जीवन की मृगतृष्णा है, तो बुद्धि का भ्रम मोह का मधुर रूप!

लालच के रूप अनेक हैं। कभी आप सोचते हैं, ‘मैं धनवान् बनूँ, ऊँचा रहूँ, मेरे ऊपर लक्ष्मी की कृपा रहे।’ इस उद्देश्य−सिद्धि के हेतु आप रिश्वत, काला बाजार, झूठ, फरेब, कपट, हिंसा करके रुपये हड़पते हैं। ठेकेदार, ओवरसीयर, इंजीनियर तक रिश्वत में हिस्सा लेते हैं। रेलवे, पुलिस, चुँगी इत्यादि विभागों में भ्रष्टाचार इसी स्वार्थ और संकुचितता के कारण फैले हुए हैं। डाक्टर और वकील रोगी और मुवक्किलों से अधिकाधिक ऐंठना चाहते हैं। बाजार में खराब माल देकर अथवा निम्नकोटि की वस्तुओं का सम्मिश्रण कर व्यापारी खूब लाभ कमाना चाहते हैं। सिक्कों ने जैसे मानवीयता का शोषण कर लिया हो। प्रलोभन के अनेक रूप हैं—

‘अमुक व्यक्ति की पत्नी मेरी पत्नी की अपेक्षा सुन्दर है। मुझे भी सुन्दर पत्नी प्राप्त होनी चाहिये। मैं तो अमुक अभिनेत्री−जैसी स्त्री से विवाह करूंगा।’

अमुक व्यक्ति का मकान सुन्दर है। अमुक के पास आलीशान कोठी, मोटर, नौकर−चाकर, सुन्दर वस्त्र, फर्नीचर इत्यादि हैं। मैं भी किसी प्रकार उचित−अनुचित कैसे ही उपायों से ये वस्तुएँ—सुविधाएँ प्राप्त करूं। अमुक मुझसे ऊँचे पद पर आसीन हो गया, मैं भी छल−बल कौशल से या रुपया दे दिलाकर यही पद प्राप्त करूं।

अमुक व्यक्ति बड़ा सुस्वादु भोजन खाता है; मिठाई, पूड़ी, पकवान, मेवे, दूध, रबड़ी आदि बढ़िया−से बढ़िया वस्तुएँ नित्य चखता है। मैं भी किसी अच्छे−बुरे उपाय से ये चीजें प्राप्त करूं। ऐसा सोचते सोचते जैसे ही कोई तनिक−सा प्रलोभन आपको देता है कि आप बिना सोचे−समझे उसके घुटने टेक देते हैं। रुपया, कमीशन, डाली, फल, मुफ्त सेवा, नाना उपहार ले लेना— सब प्रलोभन के ही स्वरूप हैं। इनका कोई आदि−अन्त नहीं। समुद्र की तरंगों की भाँति आते ही रहते हैं वे।

नैतिक दृष्टि से कमजोर चरित्र वाले व्यक्ति आसानी से प्रलोभन के शिकार बनते हैं। जिनकी आवश्यकताएँ, विलासी इच्छाएँ, चटोरापन, अनुचित माँगें, नशे बढ़े हुए हैं, वे प्रायः प्रलोभनों के सामने झुकते हुए देखे गये हैं। जिन्हें दान−दहेज, यात्राएँ, भौतिकता, टीपटाप का शौक है, वे लालच में फँसते हैं। कभी−कभी सहज सात्त्विक बुद्धि वाले भी दूषित वातावरण के प्रभाव से प्रलोभनों के चक्कर में आ जाते हैं।

विषयों में रमणीयता का भास बुद्धि के विपर्यय से होता है। बुद्धि के विपर्यय में अज्ञान-सम्भूत अविद्या प्रधान कारण है। इस अविद्या, क्षणिक भावावेश, अदूरदर्शिता के ही कारण हमें प्रलोभन में रमणीयता का मिथ्या बोध होता है। प्रलोभन से तृप्ति एक प्रकार की मृग तृष्णा मात्र है।

प्रलोभन में मुख्यतः दो तत्व कार्य करते हैं— उत्सुकता एवं दूरी। ईसाइयों के मतानुसार आदि पुरुष एडम (आदम) का स्वर्ग से पतन ज्ञान-वृक्ष के फल को चखने की उत्सुकता के ही कारण हुआ था। उन्हें आदेश मिला था कि वे अन्य सभी प्रकार के फलों को चख सकते हैं, केवल उसी वृक्ष से बचते रहें। जिस बात के लिये हमें रोका जाता है, अप्रत्यक्ष रूप से उसके प्रति हम अधिकाधिक आकृष्ट होते हैं। अतः एडम को वर्जित फल के प्रति उत्सुकता उत्पन्न हो गयी। औत्सुक्य से प्रभावित होने के कारण उस फल में रमणीयता का भास हुआ। उन्होंने चुपचाप प्रलोभन के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया। पर ईश्वर ने उन्हें इसकी बड़ी कड़ी सजा दी थी।

जो पदार्थ, इन्द्रियों को तृप्त करने के नाना साधन, हमसे दूर रहते हैं, जिन्हें हम दैनिक जीवन में नहीं पाते, जिनका स्वाद हमने नहीं उठाया है, वे ही दूरी (Distance) के कारण हमें आकर्षक प्रतीत होते हैं। वास्तव में रमणीयता किसी बाह्य जगत की वस्तु में नहीं है। वह तो हमारी कल्पना तथा उत्सुकता की भावनाओं की प्रतिच्छाया (Reflection) मात्र है। वस्तु को आकर्षक बनाने वाला हमारा मन है जो क्षण−क्षण नाना वस्तुओं पर मचल−मचल कर जाता है। नयी वस्तु की ओर हमें बरबस खींचकर ले जाता है। कभी वह जिह्वा को उत्तेजित कर हमें सुस्वादु वस्तुओं की ओर आकृष्ट करता ह, कहीं कानों को मधुर संगीत सुनने के लिए खींचता है। कहीं हमारी वासना को उद्दीप्त कर मादक वृत्तियों को उत्तेजित कर देता है। मन की कोई भी गुप्त अतृप्त इच्छा प्रलोभन का रूप धारण कर लेती है। विवेक का नियन्त्रण ढीला पड़ते ही मन हमें स्थान-स्थान पर बहकाता फिरता है। अथवा विवेक पर आवरण (पर्दा, तमोवृत्ति, इन्द्रिय−दोष बीमारी, प्रमाद) पड़ा रहने से बुद्धि तिरोहित हो जाती है। फलतः हम पतन की ओर जाते हैं, हमारा वातावरण गन्दा हो जाता है, हम दूसरों को धोखा देते हैं, झूठ बोलते, ठगते हैं। विवेक पर पर्दा पड़ा रहने से ही दुष्ट पुरुष विद्या को विवाद में, धन को अहंकार और विलास में, बल को पर पीड़ा में लगाते हैं, निर्बलों को सताते हैं। अतः मन पर सतर्कता से अन्तर दृष्टि रखनी चाहिये।

जैसे युद्ध करते समय जागरुक सन्तरी को यह ध्यान रखना पड़ता है कि न जाने शत्रु का कब आक्रमण हो जाय, कब किस रूप में शत्रु प्रकट हो जाय, उसी प्रकार मन रूपी चंचल शत्रु पर तीव्र दृष्टि और विवेक को जागरूक रखने की अतीव आवश्यकता है। जहां मन आपको किसी इन्द्रिय-सम्बन्धी प्रलोभन की ओर खींचे, वहीं उसके विपरीत कार्य कर उसकी दुष्टता को रोक देना चाहिए।

मन बड़ा बलवान शत्रु है। वासना और कुविचार का जादू इस पर बड़ी शीघ्रता से होता है। बड़े-बड़े संयमी व्यक्ति वासना के चक्र में आकर मन को न रोक सकने के कारण पथ भ्रष्ट हो जाते हैं। मन को शुद्ध करना अत्यन्त दुष्कर कृत्य है। इससे युद्ध-काल में एक विचित्रता है। यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहे, निज इच्छा शक्ति को मन के व्यापारों में लगाये रहे,तो युद्ध में संलग्न सैनिक की शक्ति अधिकाधिक बढ़ती है और एक दिन वह इस पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है। यदि तनिक भी इसकी चञ्चलता में बहक गये, तो यह मनुष्य के चरित्र, आदर्श, संयम, नैतिक दृढ़ता, धर्म को तोड़−फोड़ कर, सब कुछ नष्ट−भ्रष्ट कर डालता है।

मन को दृढ़ निश्चय पर स्थिर रखने और उसी पर एकाग्र ध्यान रखने से मुमुक्ष की इच्छाशक्ति प्रबल बनती है। मन का स्वभाव मनुष्य की इच्छा के अनुकूल बन जाने का है। इसे जिन विषयों की ओर दृढ़ता से एकाग्र कीजिये, वही कार्य करने लगेगा। वह व्यर्थ निश्चेष्ट निष्क्रिय नहीं बैठना चाहता। अच्छाई या बुराई—वह किसी न किसी ओर निश्चय आकृष्ट होगा। यदि आप शुभ रचनात्मक समुन्नत कार्यों में उसे न लगायेंगे, तो वह बुराई की ओर चलेगा। यदि आप उसे पुष्प−पुष्प विचरण करने वाली मधु−लोभी तितली बना देंगे।—जो रूप, रस और गन्ध पर मँडराये—तो वह अवश्य आपको किसी भयंकर स्थिति में डाल देगा। यदि आप उसे उद्दण्ड रखेंगे तो वह दिन−रात असंख्य स्थानों पर भ्रान्तिमति रहेगा। यदि आप शुभ इष्टपदार्थों के सुविचारों में उसे स्थिर रखेंगे, तो वह आपका सबसे बड़ा मित्र बन जायगा।

जब जब अपने अन्तःकरण में विषय−वासना का प्रबल संघर्ष उत्पन्न हो, तब तब, नीर−क्षीर−विवेकी निश्चयात्मिका बुद्धि को जाग्रत् कीजिये! मन से थोड़ी देर पृथक रह कर इसके कार्य−व्यापारों पर तीव्र दृष्टि रखिये। वह, कुविचार, कुत्सित चिन्तन, वासना का ताण्डव कुकल्पना−चक्र टूट जायगा और आप मन के साथ चलायमान न होंगे। मन के व्यापार के साथ निज आत्मा की समस्वरता न होने दें। इसी अभ्यास द्वारा वह आज्ञा देने वाला न रह कर सीधा−सादा आज्ञाकारी अनुचर बन जायगा—

मन लोभी, मन लालची, मन चंचल मन चौर। मन के मत चलिये नहीं, पलक−पलक मन और॥

प्रमाद में फँसी इन्द्रियों के सुख में स्थिरता नहीं है। इन्द्रिय सुख दुःख रूप है। यह अस्थिर और क्षणिक है। यह आनन्द का आवरण मात्र है। इन्द्रिय सुख के लिये मनुष्य को अनेक कुचक्रों−कुटिल रीतियों का अवलम्ब लेना पड़ता है। एक सुख की लालसा में मनुष्य अधिकाधिक उलझता ही जाता है। एक इन्द्रिय को तृप्त करते करते मनुष्य दूसरी तीसरी अधिकाधिक साँसारिकता में लिप्त होता ही जाता है। अन्ततः पाप योनि को प्राप्त होता है। जब तक मन और इन्द्रियों पर पूरा नियन्त्रण नहीं होता, तब तक सुख की आशा रखना व्यर्थ है। मन पर निरन्तर कड़ी दृष्टि रखिये—स्वयं भगवान् श्री कृष्णजी ने गीता में हमें मन पर तीखी निगाह रखने की ओर निर्देश किया है—

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति में मतिः।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुमायताः॥

(6। 36)

मन को संयमित न करने वाले पुरुष के द्वारा योग दुष्प्राप्य है। स्वाधीन मन वाले प्रयत्नशील पुरुष द्वारा ही योग प्राप्त होता है। इष्ट सिद्धि प्राप्त होती है।’

अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करने में बहुत सहायता मिलती है। गीता में मन को भगवान में एकाग्र करने का अभ्यास करने का अमूल्य उपदेश है-

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥

(6। 26 )

‘यह अस्थिर और चंचल मन जिस−जिस कारण से संसार में जाय, उस-उससे हटा कर इसे बार−बार आ मा में लगावे।

सुख रूप भासने वाले विषय−वासना के प्रलोभन में कदापि न फंसिये। मन के विपरीत चलिये। परमात्मा का जो रूप आपको विशेष आकर्षक प्रतीत होता हो, उसी में मन बुद्धि को एकाग्र करने का सतत् अभ्यास करते रहिये। वैराग्य और शुभचिन्तन के अभ्यास से प्रलोभन से मुक्ति मिल सकती है।

भारतीय संस्कृति में प्रलोभन से बचे रहने के लिए दान और त्याग का विधान है। भारतीय, यदि वह सच्चे अर्थों में भारतीय संस्कृति का पुजारी है, तो वस्तुओं, धन, ज्ञान, श्रम−शक्ति इत्यादि को एकत्र न कर सबके भले के लिये अधिक−से−अधिक व्यक्तियों में उसे वितरित करने का प्रयत्न करता है। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र अपनी किरणों को संसार के कौने−कौने में फैला कर प्रकाश करते हैं; सच्चा भारतीय अधिक से अधिक दान देता है—शक्ति का, सेवा का, अपने श्रम−सामर्थ्य और सम्पत्ति का त्याग करने से उसका आत्म संयम बढ़ता है। शरीर और मन पर काबू होता है, वासनाएँ शान्त रहती हैं, आत्मा भौतिक−पदार्थों के चिन्तन से मुक्त होकर अन्तर्मुखी बनती है। क्षुद्र बाह्य पदार्थों तथा रूपों से आसक्ति हटते ही उसे आत्मानुभव होने लगता है। वह जान लेता है कि मैं हाड़, माँस, वासना, तृष्णा मोह नहीं हूँ, मैं तो सत्−चित् आनन्द स्वरूप, विशुद्ध आत्मा परमात्मा हूँ।

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