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Magazine - Year 1955 - Version 2

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यज्ञमय जीवन से मानव का अभ्युदय

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(पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर)

प्राचीन आर्यों का सम्पूर्ण जीवन ही “यज्ञमय जीवन” था, इस कारण उनका सतत् उत्कर्ष होता रहा था। जबसे जीवन में से यज्ञ चला गया तबसे आर्यराष्ट्र की अवनति हुई ऐसा इतिहास कहता है।

प्राचीन आर्यों का जीवन यज्ञमय था इसका स्वरूप हमें देखना आवश्यक है।

प्रायः आर्य लोग प्रातः 4 बजे शुभ ब्राह्ममुहूर्त में उठते थे। शौच मुखमार्जन स्नान करना आदि से निवृत्त होकर अपनी संध्या करते और इसके पश्चात अपने घर से यज्ञ−हवन−करते थे। घर के अग्नि में हवन करना यह प्रत्येक घर के स्वामी का आवश्यक कृत्य है ऐसा समझा जाता था। पारिवारिक जन इस यज्ञ में शामिल होते थे इस घर के यज्ञ को करके अपने घर के चारों ओर स्वच्छता करके गृह पूजा के रूप में गृहद्वार की पूजा करके घर के द्वार में फूलों की मालायें लटका कर घर की शोभा बढ़ाते थे। घर के बाहर का आधा मार्ग स्वच्छ करके उसकी शोभा बढ़ाने के लिए रंगवल्लियों से सजावट की जाती थी।

इस तरह प्रत्येक घर में यज्ञ होता था और साफ सफाई भी होती थी। इतना घर में करके कई लोग चौरास्तों पर जाते थे और वहाँ विशेष हवन होता था। इसमें ये लोग शामिल होते थे।

चौरास्तों पर स्थायी यज्ञ शाला होती थी। इसमें उस मोहल्ले के लोग आकर यज्ञ करते थे। इस रीति से चतुष्पथ की यज्ञ शाला का हवन होता था।

नगर के मध्य में बड़ी यज्ञ शाला होती थी और उसमें वृहत यज्ञ किया जाता था। यह यज्ञ सार्वजनिक था। राजा के द्वारा इसका नियन्त्रण किया जाता था। चतुष्पथ के हवन के पश्चात लोग नगर के मध्य में जाकर इस वृहद यज्ञ में शामिल होते थे।

देखिए प्रथम हर एक घर में हवन हुआ, पश्चात चौरास्तों पर− चतुष्पथ पर– हवन हुआ। पश्चात नगर के मध्य में वृहद्यज्ञ हुआ। इस रीति से सवेरे के 8 बजे तक संपूर्ण नगर ही यज्ञ की पवित्र हवा से परिपूजित हो जाता था।

ऐसे नगरों में रोग कहाँ से घुसेंगे और अकाल मृत्यु भी कहाँ से आ सकेगी? आज हमारी आयु क्षीण हो रही है। सौ वर्ष का जीवन भी दुर्लभ सा हो रहा है। इसका कारण एक ही है और वह यज्ञ का न होना ही है। पूर्व समय के अनुसार यज्ञ होते रहते तो यह विपत्ति नहीं आती।

इन दैनिक हवनों के साथ साथ पाक्षिक हवन भी वृहद्रूप से होते थे। दर्श और पूर्ण मास के नाम से ये यज्ञ सुप्रसिद्ध है। प्रति पन्द्रह दिनों के पश्चात ये यज्ञ होते थे। ये सार्वजनिक यज्ञ बड़ी यज्ञशाला में होते थे। अतः इनका परिणाम विस्तृत क्षेत्र में होता था।

इनके अतिरिक्त महा यज्ञ होते थे जो चार पाँच दिनों से लेकर पन्द्रह दिनों तक चलते थे और सत्र साल भर तक चलते थे। ये महायज्ञ और सत्र नगर के बाहर पवित्र क्षेत्र में, पवित्र नदी के तट पर पवित्र तालाब के समीप किए जाते थे। इनमें हजारों लोग आते थे। इनमें ज्ञान प्रसार, राष्ट्रीय अभ्युदय के कार्य होते थे और मुख्य मंडप में हवन तथा जप होता था। इस तरह से यज्ञ राष्ट्रीय अभ्युदय के कार्य करते थे।

राजा दशरथ ने अश्वमेध यज्ञ किया। विधि के अनुसार हवनादि कार्य ऋषियों ने वहाँ किये ही थे। परन्तु उस यज्ञ में जो धर्म परिषद हुई थी। उस परिषद में रावण का राक्षसी साम्राज्य तोड़ने की हलचल करने का प्रस्ताव सर्व समति से स्वीकृत हुआ था। इसमें पाठक जान सकते हैं कि यज्ञों के कार्य की मर्यादा कहाँ तक विस्तृत हो सकती है। साम्राज्य तोड़ने का तथा साम्राज्य बढ़ाने का सम्बन्ध यज्ञ से हो सकता था। इतना कार्य क्षेत्र यज्ञ का विस्तृत था। इसीलिये कहा जाता था कि यज्ञ से मानवों की सच्ची उन्नति होती है। मानवों के सम्पूर्ण जीवनों पर यज्ञ का प्रभाव आकर पड़ता था। यज्ञमय जीवन बनाने का उद्देश्य भी यहाँ है। अपने जीवन में यज्ञ को ढालना−जीवन ही यज्ञ से परिपूर्ण बनाना−जीवन को ही एक बड़ा यज्ञ बताना चाहिए। अर्थात् जीवन में कोई कर्म ऐसा न हो कि जो यज्ञ के विरुद्ध हो।

गोपथ ब्राह्मण में कहा है कि−

ऋतुसंधिषु व्याधिर्जायते

ऋतुसैंधिषु यज्ञाःक्रियन्ते

(गोपथ ब्राह्मण)

ऋतुओं के संधिकाल में रोग उत्पन्न होते हैं इसलिये ऋतुसंधियों में नानाप्रकार के यज्ञ किये जाते हैं। अर्थात् जिस रोग का प्रादुर्भाव जिस समय होने की संभावना हो, उसी के प्रतीकार के लिये आवश्यक औषधियों का हवन करने से उस रोग का विष वायु से दूर होकर वायु शुद्ध होता है और रोग नहीं होता इस तरह से यज्ञ ऋतुसंधियों में करने से रोग बीज दूर होते हैं और जनता आरोग्य सम्पन्न होती है। राष्ट्र में बड़े विशाल प्रमाण में यज्ञ करने से ऐसे लाभ होते हैं। ऐसे विशाल यज्ञ प्राचीन आर्य करते थे इस कारण वे नीरोग, दीर्घ जीवी हृष्ट−पुष्ट पुरुषार्थी उत्साही आनन्द प्रसन्न रहते थे। जीवन को उच्च बनाना इस तरह यज्ञ से होता था।

यज्ञ से आरोग्य प्राप्त करने की बात तो दूर कहीं पर कुयज्ञ से−अर्थात् अविधि पूर्वक हवन करने से रोग उत्पन्न भी होते हैं। इस विषय में कहा है।−

मुग्धा देवा उत शुना अयजन्त

उत गोरंगैः पुरुधा अयजन्त॥

अथर्ववेद 7।5।5।

“मूढ़ याजक कुत्ता काटकर उसके माँस का हवन करते हैं और गौ के अंगों को काट कर उसके माँस का हवन करते हैं’ यह तो मूढ़ याजकों का कार्य है। ज्ञानी याजक ऐसा नहीं करते। मूढ़ याजकों के ऐसे अशुची कर्मों से बड़े अनर्थ भी हुए है। देखिए चरक ग्रंथ में कहा है−

आदि कालेषु खलु यज्ञेषु पशवः

समालंभनीया बभूवुःनारंभाय

प्रक्रियन्ते स्म। अतश्च प्रत्श्वर

कालं पृषघ्रण दीर्घ सत्रेण यजमानेन गवाँ आलम्भः प्रावर्तितः। न द्रष्ट वा

व्यथिता भूतगणाः। तेषाँ चौपयोगाते

उपकृतानाँ गवाँ गौरवात् औष्ण्या

असाभ्यात अशस्तोपयोगात चोपहता

ग्नीनाँ उपहतमनसाँ अतीसारपूर्वं

उत्पन्नः।

चरक संहिता 19

आदि काल में गौ आदि पशुओं की पूजा की जाती थी, वध नहीं होता था। पृषध राजा ने गौओं के माँस का यज्ञ करना शुरू किया। इसको देखकर सब को दुख हुआ। इस यज्ञ में गौ गो माँस खाया वह माँस उष्ण, प्रतिकूल और पाचन शक्ति कम करने वाला था, इस कारण इस कारण इस पृषध्र यज्ञ से जो अतिसार उत्पन्न हुआ वह इस समय तक जनता को कष्ट दे रहा है।

इससे विदित हो सकता है कि ऐसे यज्ञों से रोग बढ़ भी जाते हैं। इसीलिये ऐसे यज्ञ शत्रु के राष्ट्र में किये जाते थे। जिससे नाना रोग शत्रु राष्ट्र में बढ़े और वहाँ की जनता मर जाय। इसीलिये अज्ञात याजक को यज्ञ करने की आज्ञा नहीं देनी चाहिये। ऐसे वचन स्मृतियाँ में है।

अर्थात् जैसे यज्ञों से रोग दूर होकर आगे बढ़ाता है, उसी तरह यज्ञों से रोग भी होते हैं। यह एक शास्त्र है इसीलिये विधिपूर्वक यज्ञ करने चाहिए अविधि से किये यज्ञ हानि भी करते हैं।

यज्ञ का अग्नि पवित्र अग्नि है। मर्जी चाहें लकड़ी उसमें जलानी नहीं चाहिए। पलाश शमी पीपल, बड़ गूलर, आम, विल्व आदि की समिधाएं वेदी के प्रमाण के अनुसार छोटी बड़ी करवा लेनी चाहिए ये समिधायें कीड़े से खायी मलीन अशुद्ध स्थान में रखी नहीं होनी चाहिए स्वयं शुष्क न बनी हो। सब प्रकार से अच्छी हों। इनसे अग्नि प्रदीप्त किया जाय।

कस्तूरी, केशर, अगरु, तगर, चन्दन, श्वेत, इलाइची, जायफल, जावित्री आदि सुगन्धित पदार्थ हों। घी दूध, फल, कन्द, अन्न, चावल, गेहूँ, उड़द आदि पुष्ट कारक पदार्थ हों। शक्कर, द्राक्ष, छुहारे आदि मिष्ट पदार्थ हों और सोमलता, गिलोय आदि औषधियाँ हों। इस तरह सामान्यतः सामग्री हवन के लिए लेनी चाहिए।

इस के साथ साथ जो ऋतु हो उसमें जो रोग होने की सम्भावना हो उस रोग का शमन करने की औषधियाँ ली जायँ। ये ऋतु के अनुसार लेनी योग्य हैं।

इस रीति से योजना पूर्वक विधि के अनुसार यज्ञ की हवनीय सामग्री इकट्ठी करनी चाहिए और उसका हवन करना चाहिए। इससे अवश्य सिद्ध मिल सकती है। सिद्धिहीन यज्ञ करने से कुछ से कुछ बन जायगा। इसे कारण माना व्यवहार यज्ञ में नहीं करना चाहिए।

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