• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • मातृ−वन्दना
    • जीवन−दर्शन
    • जीवन−दर्शन (Kavita)
    • यज्ञमय जीवन से मानव का अभ्युदय
    • यज्ञ का महत्व
    • यज्ञ की आवश्यकता
    • आत्म−बल ही देव−बल हैं।
    • “आध्यात्मिक शक्तियों का साक्षात्कार”
    • प्रत्येक भक्त हो सकता है।
    • अन्दर की पुस्तक भी पढ़िये
    • त्रिशंकु की स्वर्ग यात्रा
    • जागो और पुरुषार्थी बनो।
    • गायत्री उपासना से आत्म कल्याण
    • शान्तिदायिनी निद्रा
    • पारिवारिक सुव्यवस्था
    • प्रलोभनों में मत ललचाइये
    • भोजन सम्बन्धी आवश्यक जानकारी
    • विशद् गायत्री महायज्ञ
    • सन्त दर्शन
    • सन्त दर्शन (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • मातृ−वन्दना
    • जीवन−दर्शन
    • जीवन−दर्शन (Kavita)
    • यज्ञमय जीवन से मानव का अभ्युदय
    • यज्ञ का महत्व
    • यज्ञ की आवश्यकता
    • आत्म−बल ही देव−बल हैं।
    • “आध्यात्मिक शक्तियों का साक्षात्कार”
    • प्रत्येक भक्त हो सकता है।
    • अन्दर की पुस्तक भी पढ़िये
    • त्रिशंकु की स्वर्ग यात्रा
    • जागो और पुरुषार्थी बनो।
    • गायत्री उपासना से आत्म कल्याण
    • शान्तिदायिनी निद्रा
    • पारिवारिक सुव्यवस्था
    • प्रलोभनों में मत ललचाइये
    • भोजन सम्बन्धी आवश्यक जानकारी
    • विशद् गायत्री महायज्ञ
    • सन्त दर्शन
    • सन्त दर्शन (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1955 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


भोजन सम्बन्धी आवश्यक जानकारी

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 16 18 Last
(लालबहादुर लाल श्री वास्तव)

भोजन ही शक्ति है और शक्ति ही जीवन है। अतएव भोजन की समस्या और विशेषकर इस समय, अपनी विशेषता रखती है। दक्षिण−पूर्व एशिया में, और विशेषकर भारत पर दुर्भिक्ष दानव की भयंकर छाया फैल रही है। यह अभी−अभी समाप्त हुए विश्व−युद्ध की देन है। हम देख चुके हैं कि युद्धकाल में अकेले बंगाल को प्रायः 35 लाख नर−बलि देकर इस दुर्भिक्ष दानव से पिण्ड छुड़ाना पड़ा है। अब वही राक्षस मुँह बाये समस्त भारत पर अपने हाथ−पाँव फैलाता हुआ दिखलाई देता है। अतएव हम सबका कर्त्तव्य है कि हम दुर्भिक्ष का सामना करने के लिये सजग हो जायँ।

भोजन विज्ञान के अनुसार विशेष−विशेष परिस्थितियों में काम करने वाले मनुष्यों को भिन्न−भिन्न परिमाण और प्रकार की भोजन सामग्री की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, एक फावड़ा चलाने वाले को अपने समवयस्क एक कपड़ा सीने वाले से कहीं अधिक और पौष्टिक भोज्य पदार्थों−की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार एक शारीरिक परिश्रम करने वाले और उसी वयके एक मानसिक परिश्रम करने वाले के लिए भोजन पदार्थों के परिमाणों और प्रकारों में अन्तर होना चाहिये। इन सब बातों पर विचार करना यहाँ उपयुक्त नहीं। यहाँ तो प्रश्न जीवन और मरण का आ उपस्थित हुआ है। हमें तो करोड़ों प्राणियों की प्राण रक्षा पर विचार करना है। हमें तो देखना है कि हम कम से कम कितना भोजन करें कि हम स्वस्थ रह सकें और अपना काम−काज सुचारु रूप से चलाते रहें। एक पुरानी कहावत है कि कम खाना और गम खाना−दोनों ही बहुत लाभप्रद बातें हैं। वास्तव में कम खाने से उतने लोग नहीं मरते, जितने अधिक भोजन करने से मरते हैं। पेट की अनेकानेक बीमारियों तथा उसकी खराबी से उत्पन्न हुए अनेक रोगों का मुख्य कारण पेट को ठूंस ठूंस भरते रहना होता है। विचारे पेट को आराम करने का अवकाश ही नहीं मिलता। यह पेट के साथ हमारा घोर अन्याय है। इसीलिए कभी−कभी जब हमारा अन्याय उसे असह्य हो जाता है तो हमारे साथ खुला विद्रोह कर बैठता है और हम बीमार पड़ जाते हैं, और संग्रहणी, अतिसार आदि बीमारियों के शिकार बन बैठते हैं। कहने का तात्पर्य है कि यह पेट हमें कड़ी से कड़ी चेतावनी देता है और इस पर भी यदि हम नहीं चेतते या संभलते तो वह स्वयं हराकिरी (आत्महत्या) कर डालता है। फलतः हम अपने जीवन से भी हाथ धो बैठते हैं।

हमारा भोजन उतना होना चाहिए जितना हम आसानी से पचा सकें। भोजन का कोई सार्थक भाग उस पर पाचन क्रिया न हो सकने के कारण निरर्थक बनकर हमारे शरीर से बाहर मल के साथ व्यर्थ नष्ट न हुआ करे। ध्यान रहे हमारे अधिक किये हुए भोजन के जिस भाग को पेट नहीं पचा पाता उसे वह मल के साथ शरीर से बाहर कर दिया करता है और कभी−कभी तो वह इतना चिढ़ उठता है कि मूत्र और मल−दोनों द्वारों से उसे बाहर निकालने लगता है, और तब हम घबराए हुए किसी वैद्य डाक्टर या हकीम की शरण लेते हैं कि बचाओ। बात यह है कि हममें से बहुतेरे इस सिद्धान्त के अनुयायी दिखलाई देते हैं कि ‘खाने के लिए जियो, न कि जीने के लिए खाओ वास्तव में हमें जीने के लिये खाना चाहिए न कि खाने के लिए जीना चाहिए। इसमें अधिक यदि हम खाते हैं तो अन्याय और अत्याचार करते हैं, और शारीरिक क्षति के साथ साथ राष्ट्रीय जीवन की क्षति उत्पन्न करने का कारण बनते हैं, क्योंकि हमारे ऐसा करने से कितनों को भोजन प्राप्त नहीं हो पाता।

हम देखते हैं कि आम भोजन और भूख अपने नैसर्गिक रूप में नहीं हैं। हम अपने नैसर्गिक रूप में नहीं हैं। हम अपने भोजन को नमक−मिर्च तथा अन्य अनेक प्रकारों से स्वादिष्ट और आकर्षक बनाते हैं जिससे हमारी भूख भी बढ़ जाती है और हमारी जिह्वा स्वाद के पीछे पागल हो जाती है, और हमें ज्ञान नहीं रहता कि हम आवश्यकता से कितना अधिक भोजन कर जाते हैं। पेट (आमाशय) में अधिकाधिक भोजन भरने से वह दिन प्रति दिन फैलता जाता है और अन्त में लम्बोदर बन जाता है और अन्त में लम्बोदर बन जाता है। हमारे देश में ऐसे लम्बोदरों की कमी नहीं। प्रायः धनी समाज ही इसमें अग्रगण्य हैं; कारण उनके पास धन की प्रचुरता है, और धन से सभी पदार्थ प्राप्त किये जा सकते हैं। फिर दिन भर तरह−तरह के स्वादिष्ट भोजनों से पेट को भरते रहना उनके लिए कौन सा कठिन काम है। आज दिन भी जब भोज्य पदार्थों का इतना अभाव है उनके ऊपर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखलाई देता। ये भोजनभट्ट अपनी उदर पूर्ति उचित अथवा अनुचित उपायों से किया ही करते हैं।

खाद्यपदार्थों के इस असन्तुलित विभाजन के साथ ही साथ हम जो उन्हें विकृत करके काम में लाते हैं, उससे एक दूसरे रूप में खाद्य पदार्थों की क्षति करते हैं। अन्न के सम्बन्ध में भोजन−वैज्ञानिकों का मत है कि अग्नि से पकाये हुए अन्न की अपेक्षा प्राकृतिक रूप से पके हुए अन्नादि भोजन किये जायँ और उन्हें पचा लिया जाय तो वे पकाये जाने की अवस्था में से कई गुना अधिक लाभकारी व पुष्टिकर होते हैं; क्योंकि अन्न, भाजी या शाक आग पर पकाये केवल इसलिये जाते हैं कि वे अधिक स्वादिष्ट और सरल पाचनशील बन जायें। वैज्ञानिकों का मत है कि इससे उन पदार्थों के कई एक आवश्यकीय प्राकृतिक वा भौतिक गुणा नष्ट हो जाते हैं। अतः हम देखते हैं कि भोजन में स्वाद उत्पन्न करने व उसे शीघ्र पाचनशील बनाने के लिए हमें उक्त भोजन का एक आवश्यक अंग खो देना पड़ता है। यदि हम अन्नों को यथासाध्य उनके प्राकृतिक रूप में ही ग्रहण करें तो समय पाकर हम देखेंगे कि हमें उनसे यथार्थ स्वाद व मधुरता प्राप्त हो रही है। साथ ही साथ हम थोड़े ही अन्न के परिमाण से अपने शरीर की आवश्यकता पूरी कर लेते हैं। हरे शाक और पके फल हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक पदार्थ हैं। यदि हम अपने भोजन में अन्न के साथ शाक भाजी और फल अधिक परिमाण में रखा करें तो अधिक लाभ उठाने के अतिरिक्त अन्न की बचत भी कर सकते हैं। इसके लिये हमें शाक−भाजी और फल अधिकाधिक उत्पन्न करने में जुट जाना पड़ेगा। थोड़े−थोड़े स्थानों में भी एक−एक कुटुम्ब के लिये सदा हरे व ताजे शाक, भाजी तथा फल उत्पन्न किये जा सकते हैं। प्रत्येक कुटुम्ब को जिसके घर के पास थोड़ा भी खुला मैदान हो—चाहे वह नगर का निवासी हो अथवा ग्राम का—पर्याप्त शाक−भाजी व फल अन्न तो एक जमीन से वर्ष में एक ही बार उत्पन्न किये जा सकते हैं, किन्तु शाक−भाजी की तो कोई फसल सदा और सब मौसम में तैयार की जा सकती है।

अब रह गयी एक तीसरी बात, और वह है उपवास। उपवास का महत्व हमारे हिन्दू समाज में विशेष रहा है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में उपवास (व्रत) रखने का चलन विशेष रहा है, क्यों कि हमारे दूरदर्शी ऋषियों ने इसे धर्म का अम्बर (जामा) पहिना दिया है, क्यों कि वे जानते थे कि स्वास्थ्य विज्ञान ने अनभिज्ञ जनता उपवास के महत्त्व को भूल कर उसकी नितान्त अपेक्षा वा अवहेलना कर बैठेगी। इसी लिए उन्होंने उपवासों की तिथियाँ, समय और ऋतु के अनुसार, विचार कर भिन्न−भिन्न व्रतों के नाम से रख दिया है, जिसे स्त्री समाज ने अपनी विशेष धार्मिक भावुकता के कारण अब तक प्रचलित रखा है। किन्तु पुरुष समाज का ध्यान इस ओर बहुत ही कम है। आज के नव शिक्षित युवक तो उपवास व व्रत की बातों का उपहास करते देखे जाते हैं। सन्तोष है कि आधुनिक युग के ऋषि महात्मा गाँधी ने उपवास की उपयोगिता की और देश के नर−नारियों का ध्यान अपने कर्मठ जीवन द्वारा पुनः आकृष्ट किया है। अब लोग समझने लगे हैं कि उपवास हमारे स्वस्थ जीवन का एक विशेष अंग है। यदि हम सप्ताह में एक दिन, जैसे की हम अपने कार्यों से प्रायः अवकाश लिया करते हैं अपने आमाशय (पेट) को भी अवकाश व छुट्टी दिया करें, तो हमारा शरीर स्वस्थ बना रहेगा और हमारे कार्य करने की शक्ति संतुलित रहेगी। हम जानते हैं कि जिस मशीन निर्जीव से हम बराबर काम लेते हैं और उसे बीच बीच में अवकाश नहीं देते वह भी बहुत शीघ्र खराब हो जाया करती है। आपको सुन कर आश्चर्य होगा कि आपके शरीर के अन्दर आपकी अन्न प्रणाली रूपी सजीव मशीन की आपके द्वारा दुर्दशा हो रही है। आप अपने आमाशय व अन्न प्रणाली के कार्य को सदा अपूर्ण और असमाप्त बनाये रखते हैं, कारण, एक समय का जरूरत से अधिक किया हुआ भोजन अभी पूर्ण रूप से पचने भी नहीं पाता कि आप फिर भोजन से भर देते हैं। विचारे आमाशय के आराम करने का अवकाश कब और कैसे मिले? इसलिये आवश्यक है कि आपकी असावधानी के कारण उक्त मशीन की खराबियों को दूर करने के लिये उसे सप्ताह में एक दिन विश्राम दिया जाया करे अर्थात् एक दिन उपवास रखा जाय। इससे हमारी इस अन्तरंग मशीन का जीवन और कार्य क्षमता बढ़ेगी।

हमें अपने पेट की भीतरी मशीन को अवकाश देने का थोड़ा−थोड़ा करके अभ्यास करना चाहिए। पहले सप्ताह से एक दिन एक समय का भोजन बन्द करने का अभ्यास किया जाय। शनैःशनैः पूरे एक दिन का उपवास रक्खा जाय। इससे उपवास रखने वाले को कोई कष्ट न होगा।

इस उपवास क्रम से हम अपने शरीर के विकारों को दूर कर मन और शरीर को शुद्ध कर सकेंगे। साथ ही साथ हम देखेंगे कि इससे लेशमात्र भी कष्ट न होगा, वरन् एक प्रकार से हमारे शरीर और मन में नव−शक्ति का संचार होगा और यदि सभी कुटुंब के प्राणी— छोटे बच्चों को छोड़ कर सप्ताह में एक दिन उपवास करें तो प्रति सप्ताह खर्च का प्रायः सातवाँ भाग अन्न बचा लें। इस प्रकार वर्ष भर के प्रायः डेढ़ मास के अन्न खर्च से मुक्ति पा जायँ ऐसे काल में जब अन्न की समस्या इतनी जटिल हो रही है यदि जनता इस ओर अपना समुचित ध्यान दे, और इसके अनुसार कार्य करना प्रारम्भ करदे तो यह सुझाव बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

First 16 18 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • मातृ−वन्दना
  • जीवन−दर्शन
  • जीवन−दर्शन (Kavita)
  • यज्ञमय जीवन से मानव का अभ्युदय
  • यज्ञ का महत्व
  • यज्ञ की आवश्यकता
  • आत्म−बल ही देव−बल हैं।
  • “आध्यात्मिक शक्तियों का साक्षात्कार”
  • प्रत्येक भक्त हो सकता है।
  • अन्दर की पुस्तक भी पढ़िये
  • त्रिशंकु की स्वर्ग यात्रा
  • जागो और पुरुषार्थी बनो।
  • गायत्री उपासना से आत्म कल्याण
  • शान्तिदायिनी निद्रा
  • पारिवारिक सुव्यवस्था
  • प्रलोभनों में मत ललचाइये
  • भोजन सम्बन्धी आवश्यक जानकारी
  • विशद् गायत्री महायज्ञ
  • सन्त दर्शन
  • सन्त दर्शन (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj