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Magazine - Year 1957 - Version 2

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संयम श्रम स्वावलम्बन और स्नेह

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(श्री स्वामी शरणानन्द जी)

शारीरिक हित की दृष्टि से आहार-विहार में संयम तथा दैनिक कार्यों में स्वावलम्बन। मानव शरीर बड़े ही महत्व की वस्तु है, क्योंकि इस तन से ही प्राणी साधना में प्रवृत्त होकर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर कृत-कृत्य हो सकता है। अतः ऐसे अनुपम शरीर के हित के लिए आहार-विहार में संयम करना अनिवार्य है। किन्तु, असावधानी के कारण प्राणी हित की दृष्टि को त्याग कर सुख की दृष्टि अपनाता है, अर्थात् आहार-विहार में विलासी तथा असंयमी हो जाता है। इसका परिणाम बड़ा ही भयंकर तथा दुःखद सिद्ध होता है; क्योंकि अहितकर चेष्टाओं में प्रवृत्त होना जीवन का अनादर है, प्रकृति का विरोध है और पौरुषेय विधान का उल्लंघन है। इतना ही नहीं, प्राणी सुख-दुःख के पाश में आबद्ध होकर अपने को दीन-हीन बना लेता है और साधन-युक्त जीवन से वंचित हो जाता है, जो वास्तव में पशुता है। आहार का सम्बन्ध प्राण अर्थात् जीवन-शक्ति से है और विहार का सम्बन्ध मन इन्द्रिय आदि से है। प्राण-शक्ति का क्षय अथवा अभाव होने पर मन इन्द्रियादि सभी अपने कर्त्तव्य से च्युत हो जाते हैं, जिससे प्राणी अपने अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर पाता। इस दृष्टि से जीवन-शक्ति का सुरक्षित रखना तथा उसका सद्व्यय करना अत्यन्त आवश्यक है।

जीवन-शक्ति को सुरक्षित रखने के लिए आहार अर्थात् भोजन-विज्ञान पर यथेष्ट विचार करना चाहिए और जिस आहार से शारीरिक हित हो, उसी का सेवन करना चाहिए।

आहार बहुधा तीन प्रकार के होते हैं। 1- हितकर 2- रुचिकर 3- सुखकर। हितकर आहार सदैव करना चाहिए, रुचिकर कोई एक वस्तु होनी चाहिए और सुखकर कभी-कभी लेना चाहिये। हितकर भोजन वही है जिसमें अधिक से अधिक प्राकृतिक तथा सात्विकता हो- जैसे स्वस्थ गौ का धारोष्ण दुग्ध और गेहूँ, जौ, चावल, मूँगफली एवं पत्ती वाले शाक इत्यादि। रुचिकर तथा सुखकर भोजन में इतना अन्तर है कि रुचि शरीर की आवश्यकतानुसार यथासमय वह रसों में से किसी रस विशेष की हुआ करती है, वस्तु की नहीं और सुखकर भोजन में स्वाद की प्रधानता होने के कारण किसी वस्तु विशेष का आग्रह रहता है, केवल रस का नहीं। रुचिकर भोजन में प्रधानता रस की होती है, स्वाद की नहीं, यद्यपि स्वाद रुचिकर में ही आता है किन्तु तृष्णा पूर्वक भोजन करने से रस का बोध हो नहीं पाता और केवल वस्तु तथा स्वाद में प्रवृत्त दृढ़ हो जाती है, जो अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति का कारण है। आसक्तिपूर्वक भोजन करने का स्वभाव केवल इस कारण बन जाता है कि प्राणी भोजन में ही जीवन-बुद्धि कर लेते हैं जो वास्तव में प्रमाद हैं। भोजन वास्तव में यज्ञ है, उपभोग नहीं। इस दृष्टि से भोजन से उन्हीं वस्तुओं को लेना चाहिए जिनसे प्राण-देवता की यथावत पूजा-सेवा हो सके अर्थात् प्राण-शक्ति सुरक्षित रह सके। यज्ञ में उन्हीं वस्तुओं का उपयोग होता है अर्थात् आहुति दी जाती है। जो हितकर हों और हित उन्हीं वस्तुओं से होता है जो स्वभाव से सात्विक हों।

भोजन कब और कैसे करना चाहिए- इसकी जानकारी भी आवश्यक है। स्वास्थ्य की दृष्टि से दिन के दूसरे पहर में और रात्रि के प्रथम पहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। भोजन शाँत तथा प्रसन्न चित्त से चबा-चबाकर करना चाहिए, जिससे मुँह का रोला रस पर्याप्त मात्रा में मिल जाय, इस सम्बन्ध में किसी-किसी ने तो यहाँ तक कह दिया है कि भोज्य पदार्थों को पीओ और पेय पदार्थों को खाओ, अर्थात् भोज्य पदार्थों को इतना चबाओ कि वह तरल बन जाय। भोजन की मात्रा न तो अधिक हो, न कम। भोजन उतनी ही मात्रा में करना चाहिये जिससे पेट का भान न हो। पेट का भान न्यून या अधिक आहार करने पर ही होता है। और ये दोनों स्थितियाँ अप्राकृतिक हैं। कुछ न कुछ शारीरिक श्रम किये बिना भोजन करना अहितकर है, अतएव कुछ श्रम करने के पश्चात ही भोजन करना चाहिए। भोजन की उत्पत्ति तथा उसके पचाने का सम्बन्ध सूर्य से है। इसी कारण दिन के दूसरे पहर के भीतर और रात्रि के प्रथम पहर में भोजन करना हितकर होता है। भोजन उन्हीं लोगों का बनाया हुआ स्वास्थ्यकर होता है जिनमें कर्म, विचार तथा स्नेह की एकता हो। भोजन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि अपने समीप कोई ऐसा प्राणी तो नहीं जिसने भोजन न किया हो। जहाँ तक हो सके यथाशक्ति बाँटकर ही भोजन करना चाहिए। भोजन बनाते तथा बनवाते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि बनाए हुए भोजन में से दूसरों को भी देना है। केवल अपने लिए ही भोजन बनाना अथवा बनवाना उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्येक प्राणी ने उस अवस्था में भी भोजन किया है जब कि वह स्वयं नहीं बना सकता था। इस निर्विवाद सत्य का सदैव आदर करना चाहिए। स्मरण रहे कि हमें जो कुछ मिला है वह किसी की देन है। अतएव देने के योग्य होने पर देकर ही भोजन करना चाहिए।

विहार, मन इन्द्रिय आदि का भोजन है। इस सम्बन्ध में भी यथेष्ट ध्यान रखना अनिवार्य है। मन, इन्द्रिय आदि में उत्पन्न हुये वेग को दबाना अथवा अमर्यादित ढंग से पूरा करना उचित नहीं है। जो वेग उत्पन्न हो उसको नियमानुकूल साधन-बुद्धि से पूरा करना चाहिए। वेग छिपे हुए राग का परिणाम है। जिस राग को विवेक-पूर्वक नहीं मिटा पाते उसकी वास्तविकता का अनुभव करने के लिए नियमित एवं धर्मानुकूल प्रवृत्ति अनिवार्य है। तथा प्रत्येक प्रवृत्ति के अन्त में स्वाभाविक निवृत्ति को अपना कर मन एवं इन्द्रिय आदि को स्वस्थ तथा शाँत करना चाहिए, क्योंकि प्रवृत्ति के अन्त में मन, इन्द्रिय आदि के शाँत तथा स्थिर होने पर ही आवश्यक शक्ति का विकास होता है-जो उन्नति का मूल है।

छींक, प्यास, भूख, निद्रा एवं मलमूत्र-त्याग इत्यादि शारीरिक वेगों का यथासमय तुरन्त निकास करना ही स्वास्थ्यकर है। कामवेग के सम्बन्ध की बात पर भी विचार करना आवश्यक है। मनोविज्ञान की दृष्टि से काम का वेग शरीर के अन्य सभी वेगों से बलवान तथा प्रधान है। जब तक सर्व इन्द्रियों का ब्रह्मचर्य सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक काम पर विजयी होना सम्भव नहीं। शरीर की सत्यता तथा सुन्दरता एवं इन्द्रियजन्य ज्ञान का सद्भाव जब तक रहता है, तब तक काम का अन्त नहीं हो पाता। अतः काम पर विजयी होने के लिए शरीर की वास्तविकता का यथेष्ट ज्ञान तथा अपने अभीष्ट में अत्यन्त प्रियता जागृत होना अनिवार्य है, कारण कि लक्ष्य की प्रियता का रस सभी इच्छाओं को खाकर तीव्र लालसा उत्पन्न करता है, जो काम का अन्त करने में समर्थ है। किसी आस्तिक का कथन है कि राम की लालसा काम को खा कर राम से अभिन्न कर देती है। इसके अतिरिक्त जहाँ तक हो सभी व्यक्तिगत कार्य अपने आप कर लेना चाहिए किसी अन्य की सहायता उस समय तक न ली जाय जब तक कोई विवशता न आ जाय, कारण कि स्वयं अपना काम अपने आप न करने से श्रम के महत्व का अनादर होता है जिससे प्राणी आलसी और विलासी बन जाता है, इससे अर्थ का महत्व बढ़ता है। जो प्राणों में संग्रह की भावना उत्पन्न करता है, इससे उसमें मिथ्याभिमान आ जाता है और समाज में दरिद्रता की वृद्धि होती है। अतः स्वावलम्बन को अपना कर ही समाज की दरिद्रता का अपहरण तथा अपने को आलस्य, अभिमान एवं विलासिता से मुक्त किया जा सकता है।

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