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Magazine - Year 1957 - Version 2

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ब्रह्मचर्य की महान शक्ति

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(सन्त टी. एल. वास्वानी)

‘ब्रह्मचर्य’ शब्द ‘ब्रह्म+चर्य’ के संयोग से बना है। इसका शब्दार्थ है ‘ब्रह्म में विचरण करना।’ अच्छा यह ‘ब्रह्म’ क्या है? इसका मौलिक अर्थ क्या है? इसका अर्थ है ‘सृजनी शक्ति, उत्पादिका शक्ति’ जो कि सृष्टि के विकास से मूल में है। ब्रह्म यही विकास या वृद्धि का तत्व है। ब्रह्म विश्व-प्राण है, उत्पादक शक्ति है। अतः ब्रह्मचर्य अर्थ मैं करता हूँ- “उत्पादिका शक्ति के साथ साहचर्य या सहयोग।” ईश्वर की उत्पादिका शक्ति ईश्वरीय शक्ति का एक अंश तुम में भी है। वह अनन्त तुम्हारे भीतर है। अनन्त उत्पादक शक्ति तुम्हारे भीतर है। उसी के साथ सहयोग करना ब्रह्मचर्य का पालन करना है।

ब्रह्मचर्य का विश्लेषण करने पर तीन तत्व मिलते हैं-

1- आत्मसंयम- ब्रह्मचर्य यथार्थ में शक्ति संयम ही है।

2- सादगी- भोजन, वेश तथा जीवन के प्रत्येक अंग में, दैनिक जीवन की हर एक बात में सादगी इसी की युवकों को जरूरत है। जो लोग जरूरतों के बढ़ाने ही को सभ्यता का अर्थ समझते हैं, उनसे मैं सहमत नहीं, सच्ची सभ्यता सादगी में है, न कि संग्रह में।

3- विचारशक्ति- ब्रह्मचर्य एक आन्तरिक शक्ति है। विचार शक्ति का विकास किस प्रकार हो सकता है, सादगी का जीवन किस प्रकार आचरण में लाया जा सकता है, तथा आत्मसंयम या आत्मशक्ति किस प्रकार बढ़ सकती है इन बातों के विवेचन का समय आज नहीं। कुछ ऐसे साधन और अभ्यास हैं, जिन्हें ब्रह्मचर्य भाव की वृद्धि के लिए पालन करना आवश्यक है। आज मैं उन पर भी विचार न करूंगा।

जितना ही अधिक मैं सोचता हूँ, मुझे स्पष्ट होता जाता है कि प्राचीन और आधुनिक में जो बड़ा भारी भेद है, वह है ब्रह्मचर्य और भोग का। वर्तमान आदर्शों के आन्तरिक महत्व को मैं नहीं भुलाता। आजकल के वैज्ञानिक विवेचन, आलोचनात्मक भाव तथा राजनीतिक स्वतंत्रता की भावनाओं का मैं अनादर नहीं करता, किन्तु आधुनिक सभ्यता की इन आन्तरिक और गूढ़तर भावनाओं पर हमारी शालाओं में आजकल जोर नहीं दिया जाता। वहाँ तो आधुनिक सभ्यता के ऊपरी पहलू और गलत भावनाओं और दुर्गुणों ही पर दृष्टि रखी जाती है। नवयुवक भोग के पीछे दौड़ रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि सभ्यता का अर्थ जरूरतों की बढ़ती या कामनाओं का संग्रह नहीं, किन्तु उनकी सादगी है। वे नहीं समझते कि मनुष्यता का नियम आत्मभोग नहीं, किन्तु आत्मसंयम है। प्राचीन भारत ने यह अनुभव किया था कि मनुष्य भोग विलासी जानवर नहीं, किन्तु वह एक दिव्य पुरुष है, जो कि आत्मसंयम और आत्म-तपस्या के द्वारा अपनी दिव्य मनुष्यता का अनुभव प्राप्त करना चाहता है। प्राचीन आदर्श ब्रह्मचर्य था, वर्तमान आदर्श बहुतों की दृष्टि में भोगचर्य जान पड़ता है। वे आरामतलबी और विलासिता चाहते हैं, पर हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार तपस्या ही सभ्यता और सृष्टि की आधारशिला है।

ईश्वर के साथ साहचर्य

किन्तु तपस्या और संन्यास में बहुत अन्तर है। सच्चे ब्रह्मचारी और संन्यासी इन दोनों में भेद है। प्राचीन ग्रन्थ बारबार यही कहते हैं कि ईश्वर आनन्द रूप है। यह विश्व उसी सनातन आनन्द का व्यक्त रूप है। एक उपनिषद् में एक कथा आती है, उसमें कहा गया है कि एक ब्रह्मचारी गुरु के पास जाता है और पूछता है- “गुरु जी! मुझे बताइए ब्रह्म क्या है?” कथा लम्बी है, किन्तु उसका तात्पर्य संक्षेप में कहा जा सकता है। ब्रह्मचारी के प्रश्न के उत्तर में गुरु उसे अनेक ध्यान के साधन बतलाता है। इसके बाद विद्यार्थी गुरु के पास आकर कहता है- “गुरु जी! अब मुझे समझ पड़ा कि ब्रह्म आनन्द रूप है।” सचमुच ईश्वर आनन्द रूप है और विश्व उसी आनन्द का व्यक्त स्वरूप है। सच्चे ब्रह्मचारी को सब कुछ त्यागने की जरूरत नहीं। उसके हृदय में मनुष्य मात्र के प्रति महान प्रेम है। अपने देश तथा अपने देशवासियों के ही लिए नहीं, बल्कि प्राणी मात्र के प्रति प्रगाढ़ प्रेम है।

पूर्ण उन्नतावस्था में ब्रह्मचर्य ब्रह्म के साथ साहचर्य मात्र है। ईश्वर की उत्पादिका शक्ति के साथ सहयोग है। सच्चे ब्रह्मचारी का जीवन धन्य है। किन शब्दों में उसका वर्णन किया जाय? ब्रह्मचारी हर जगह ईश्वर का अस्तित्व अनुभव करता है, उसे विचार, आकाँक्षा और कर्म में अनुभव करता है। ब्रह्मचारी ईश्वर के साथ चलता-फिरता है, ब्रह्मचारी का हृदय आनन्द से ओत-प्रोत होता है, किंतु याद रहे, यह आनन्द इन्द्रिय सुख से बहुत परे है। इन्द्रिय सुख और चीज है, आनन्द आत्मा से सम्बन्ध रखता है। इसी आनन्द से सेवा और कष्ट सहन की शक्ति उत्पन्न होती है। इसी आनन्द से जीवन को सौंदर्यमय करने और निर्माण करने की शक्ति आती है। आनन्द ही जीवन की निर्माण करने वाली शक्ति है। राष्ट्र-निर्माण के लिए ब्रह्मचर्य की-पवित्रता, आत्म-संयम तथा तपस्या की आवश्यकता है।

तपस्वी या राजनीतिज्ञ?

हम भारत का फिर से किस प्रकार निर्माण कर सकते हैं? यह प्रश्न मुझसे देश के भिन्न-भिन्न हिस्से में नवयुवकों ने पूछा है हम लोगों में कुछ ऐसे भी हो सकते हैं, कुछ वयोवृद्ध राजनीतिज्ञ ऐसे भी हैं जो समझते हैं कि- ब्रिटिश सरकार से टुकड़ों या सुधारों की याचना कर नवीन भारत बनाया जा सकता है। मैं ऐसे लोगों में से नहीं। कुछ लोग हैं, जिन्हें शाही कमीशनों, कौन्सिल की बहसों और पार्लियामेंट के कागजों पर विश्वास है, किन्तु मेरा विश्वास दूसरा ही है। मेरी दृढ़ धारणा है कि यदि नवीन भारत का निर्माण हो सकता है, तो केवल तपस्या से। नवीन राष्ट्र को तपस्वी ही बनायेंगे, न कि राजनीतिक लोग। वह भारत जो कि विश्व को महान संदेश सुनायेगा, वह भारत जो कि आगे चलकर जगत को सेवक बनाने वाला है-वह सच्चा स्वतंत्र भारत-ब्रह्मचर्य से उत्पन्न हुई शक्ति, पवित्रता, ज्ञान और तपस्या से ही पैदा हुए बल के ही द्वारा निर्मित होगा, न कि कौंसिल की स्पीचों या पार्लियामेंट के भाषणों से।

इसलिए अन्त में आपसे मैं केवल यही कहना चाहता हूँ कि तपस्या की शक्ति का विकास करो। प्राचीन ग्रंथ बतलाते हैं कि तपस्या ही से विश्व का निर्माण हुआ। हम पढ़ते हैं कि आरम्भ में कुछ भी नहीं था। तब उस महान विश्वात्मा परमात्मा ने तप किया और उसी से सब लोगों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार की तपस्या ही से नवीन राष्ट्र की उत्पत्ति होगी। तुम लोग जो कि नवयुवक हो, यदि इसी तपस्या या ब्रह्मचर्य की भावना को दृढ़ करो, तो उस स्वतन्त्र भारत, नवीन भारत का दिन अधिक दूर नहीं है। तपस्या, आत्मत्याग, आत्मसंयम और ब्रह्मचर्य यही राष्ट्रीय उन्नति के मूल मंत्र हैं। एक छोटी सी कहानी जो मुझे बहुत रुचती है। वह कहानी एक बालिका की है। उसके देश पर शत्रुओं ने चढ़ाई की है। देश-रक्षा के लिए बहुत से लोग युद्ध-क्षेत्र की ओर जा रहे हैं। वह थोड़ी सी अवस्था की नन्हीं सी बालिका देव-मन्दिर में आकर प्रार्थना करती है- “मेरे प्रभु, मेरे स्वामी, मुझे बलिदान के रूप में ग्रहण करो।” वह अपने देश की अनिवार्य आवश्यकताओं की सूचनाएँ पढ़ती है। वह अपनी माता के पास जाकर कहती है- “माता, मैं जा रही हूँ, मुझे अपना आशीष दो।” माँ पूछती है- “जा कहाँ रही है बेटी?” बालिका कहती है- “मैं अपने देश की करुण अवस्था की सूचनाएँ पढ़ती हूँ। मेरे बहुत से देशवासी युद्धभूमि पर घायल पड़े हुए हैं। मुझे घायलों की चिकित्सा करनी कुछ-कुछ आती है, इसलिए मैं वहीं जाकर सेवा करना चाहती हूँ। मुझे आशीर्वाद दो।” माता कहती है- “तू मेरी इकलौती लड़की है, तू ही मेरे जीवन की ज्योति, आँखों का तारा है अभी तू लड़की है। मैं उस दिन की प्रतीक्षा करती हूँ, जब तेरा ब्याह होगा और तू आनन्द से रहेगी, कहीं एक-आध गोली तेरी छाती को पार कर गई तो मेरी सब आशाओं पर पानी फिर जायेगा, इसलिए लड़ाई में मत जा बेटी!” लड़की कहती है- “अम्मा! तू मुझसे सुख और आराम की बातें करती है, किन्तु मैंने बार-बार अपने प्रभु परमात्मा से यही प्रार्थना की है कि मुझे बलिदान रूप से स्वीकार करो। मैं अपनी प्रतिज्ञा का अवश्य पालन करूंगी और अब जाती हूँ आशीष दो।” इस उच्चात्मा बालिका की माँ अपनी आँखों में आँसू और हृदय में प्रेम भर कहती है- “तू ने ठीक ही प्रार्थना की है, और तू अपनी प्रतिज्ञा को पूरी कर, प्यारी बच्ची, तू अवश्य जा, मेरी असीस तेरी रक्षा करेगी।”

वह बालिका रणभूमि में जाती है, और उस लड़की का स्मरण करते हुए मेरे मन में आता है कि भारत में कितने ऐसे युवक हैं, जो यह प्रार्थना करें कि हे नाथ! मुझे बलिदान के रूप में ग्रहण करो। विश्वास रखो कि नवीन भारत बातों, लम्बी सभाओं और कागजी प्रस्तावों से नहीं बनेगा। नवीन भारत उन्हीं ब्रह्मचारियों और तपस्वियों के दलों के द्वारा बनेगा, जिनके हृदय में यह मूक आकाँक्षा यह मौन प्रार्थना होगी- “हे नाथ, मुझे बलिदान रूप से ग्रहण करो।”

आज भारत को ऐसे ही नवयुवकों की आवश्यकता है। दरिद्रता की चादर ओढ़े और भारत के नव निर्माण की आकाँक्षा से भरे हुए वे देश में इधर से उधर घूमते फिरेंगे। गाँव-गाँव में वे जायेंगे और मूर्ख जनता को भारत और उसके प्राचीन ऋषियों का दिव्य सन्देश सुनावेंगे। सचमुच धन्य होंगे वे नवयुवक, क्योंकि उन्हीं को प्रभु भारत के भाग्य-निर्माण के साधन बनायेंगे और वे ही माता के मन्दिर के निर्माणकर्ता बनेंगे।

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