• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • भस्म हो गयी (Kavita)
    • धर्म ‘नकद’ है, उधार नहीं
    • जीवन का सर्वस्व-शील
    • जीवन के मूल्यवान क्षणों का सद्व्यय
    • भारतीय संस्कृति अमर है।
    • पंच ऋण और पंच महायज्ञ
    • यज्ञ के साथ (Kavita)
    • हमारा सच्चा सम्बन्धी कौन?
    • श्री विष्णु और वाहन गरुड़
    • हिन्दू धर्म महान है।
    • महिलाओं की साँस्कृतिक शिक्षा
    • चरित्र-उत्थान के बिना राष्ट्रोन्नति असम्भव
    • इन्द्रिय संयम द्वारा सद्बुद्धि
    • संयम श्रम स्वावलम्बन और स्नेह
    • ब्रह्मचर्य की महान शक्ति
    • वेदों में सूर्य किरण चिकित्सा
    • अब हमें ऐसे नेता चाहिये।
    • हमारी शिक्षा पद्धति कैसी हो?
    • गायत्री परिवार-समाचार
    • गायत्री परिवार की उत्साहवर्धक प्रगति
    • Quotation
    • गायत्री उपासना के अनुभव
    • नारी, तेरी महिमा महान!
    • नारी, तेरी महिमा महान (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login





Magazine - Year 1957 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


हमारी शिक्षा पद्धति कैसी हो?

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 17 19 Last
(श्री सत्य भक्त जी)

शिक्षा बड़ा व्यापक विषय है। दुर्भाग्यवश वर्तमान समय में हम शिक्षा का अर्थ किसी स्कूल या कालेज में जाकर विभिन्न विषयों की दस-पाँच या बीस-तीस पुस्तकें अध्यापकों से पढ़ लेना ही समझते हैं। जिस व्यक्ति ने इस नियत पाठ्यक्रम के अनुसार जितनी अधिक पुस्तकें पढ़ी हैं और जितनी ऊँची परीक्षाएं पास की हैं वह हमारी दृष्टि में उतना ही अधिक शिक्षित या विद्वान है। आजकल लोगों का यही खयाल है कि जो व्यक्ति अक्षरों से परिचित नहीं है और एक या कई भाषाओं को लिखने-पढ़ने की योग्यता नहीं रखता वह शिक्षित कदापि नहीं कहला सकता।

पर इन विचारों में सत्य का अंश बहुत ही कम है। यह सत्य है कि इस जमाने में विभिन्न प्रकार के विषयों की जानकारी प्राप्त करने की सबसे सरल और सुविधाजनक मार्ग पुस्तकों का पठन-पाठन ही बन गया है, पर यह कल्पना करना कि शिक्षित होने का केवल यही एक मार्ग है, ठीक नहीं है। ऐसे ही विचारों वाले व्यक्ति प्राचीन भारतवासियों को, जिनमें लिखने-पढ़ने के अभ्यासी थोड़े ही थे, शिक्षित मानने में संकोच किया करते हैं।

वास्तव में शिक्षा का संपर्क स्कूली पठन-पाठन से ज्यादा नहीं है। और जिसे सुशिक्षा कहा जाता है वह तो दूसरी ही चीज है। आज कल दुनिया की निगाह में शिक्षा का मुख्य लक्षण कोई अच्छी सी नौकरी कर सकना अथवा किसी अन्य बड़े समझे जाने वाले पेशे के द्वारा जीविकोपार्जन करना समझा जाता है। क्योंकि इन सभी कामों में लिखना-पढ़ना अनिवार्य होता है इसलिए आजकल इन कामों में सफल होने वाले व्यक्ति ही शिक्षित समझे जाते हैं।

यही सब से बड़ा अंतर प्राचीन और अर्वाचीन शिक्षा प्रणाली में है। उस समय कागज, कलम और पुस्तकें लेकर पढ़ने-लिखने का अभ्यास करने के बजाय विद्यार्थी का चरित्र गठन करना और जीवन संग्रह में उसे अपना और दूसरों का हित कर सकने योग्य बनाना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था। दूसरा उद्देश्य यह था कि मनुष्य को केवल भौतिकता की तरफ दृष्टि रखने वाला न बनाकर वह उसके जीवन को आध्यात्मिकता की तरफ मोड़ती थी। क्योंकि जो व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों को अपने समान समझकर उनके हित-अनहित का ध्यान न रखेगा वह समाज के लिए कभी श्रेष्ठ नागरिक सिद्ध न होगा। जो स्वार्थी व्यक्ति भौतिक लाभों को ही सब कुछ समझकर अपनी बुद्धि का उपयोग अपने लिए अधिक से अधिक सामग्री प्राप्त करने और दूसरों को उससे वंचित रखने में करता है वह प्राचीन आदर्श की कसौटी पर निस्संदेह एक पढ़ा-लिखा मूर्ख है। उसे सुशिक्षित कहना शिक्षा का अपमान करना है।

प्राचीन भारत में शिक्षा की व्यवस्था के लिए गुरुकुल प्रणाली का विकास किया गया था। एक-एक ऋषि, महर्षि सैकड़ों, हजारों विद्यार्थियों को अपने यहाँ रख कर जीवन की आवश्यकीय शिक्षा प्रदान करते थे। उस समय कागज का आविष्कार नहीं हुआ था, इसलिए पुस्तकों द्वारा शिक्षा देने वाला प्रश्न ही नहीं उठता था। उस समय सब प्रकार की शिक्षा मौखिक या व्यवहारिक रूप में ही दी जाती थी। इसलिए उस समय के विद्यार्थी जो कुछ पढ़ते थे उसे जन्म भर के लिए स्मरण शक्ति द्वारा सुरक्षित बना लेते थे। आजकल के समान इम्तिहान समाप्त होते ही पुस्तकों से नाता तोड़ लेने और पढ़े हुए विषयों में से तीन चौथाई को कुछ ही महीनों में भुला देने वाली शिक्षा प्रणाली उस समय न थी।

उस समय गुरुकुलों में जो कुछ शिक्षा दी जाती थी वह पूर्णरूप से व्यवहारिक होती थी। सबसे पहले विद्यार्थी को स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाया जाता था, जिससे वह अपने आगामी जीवन में कहीं भी और कैसी भी परिस्थिति में अपने पैरों पर खड़ा हो सकता था। पच्चीस वर्ष की आयु तक पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन कराके उसके शरीर को फौलाद की तरह सुदृढ़ बना दिया जाता था। गाँवों के बाहर या जंगल के वातावरण में रहने से उसका स्वास्थ्य और सहनशक्ति इतनी मजबूत हो जाती थी कि वह प्रायः रोग और बीमारियों के आक्रमण से सुरक्षित रहता था। गुरु और गुरुकुल के आवश्यक कार्यों में उसे पूरा भाग लेना पड़ता था। कृष्ण जैसे राजवंशीय छात्र को भी गुरु के लिए जंगल से लकड़ियाँ इकट्ठी करके लानी पड़ती थीं। गायों को चराना और उनकी देखभाल करना भी विद्यार्थियों के जिम्मे था और यह एक काफी बड़ा काम था, क्योंकि उस समय एक-एक ऋषि के यहाँ हजारों गायें रहती थीं और समय-समय पर वे हजारों गायें राजाओं और श्री मानों से दान में मिल जाती थीं। गुरु की अधिक से अधिक सेवा करना और उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करना ही विद्यार्थी का परम कर्त्तव्य माना जाता था और गुरु भी उसे अपनी संतान की तरह मान कर उसके कल्याण की सदैव चेष्टा किया करते थे। इसके विपरीत जब हम आज कल स्कूल और कालेजों के लड़कों को प्रायः अपने शिक्षकों की हँसी उड़ाते, उनके विषयों में अपमानजनक बातें कहते और कभी-कभी तो सचमुच उनको मारते पीटते देखते हैं तो हमारी आँखें लज्जा से झुक जाती हैं और हम प्रार्थना करते हैं कि भगवान ऐसी शिक्षा से बचाये रखें।

प्राचीन शिक्षा पद्धति की एक बड़ी विशेषता सामाजिक समानता का प्रचार भी था। गुरुकुलों में विद्यार्थियों को हद दर्जे की सादगी से रहना पड़ता था जिससे गरीब अमीर का अन्तर शिक्षाकाल में तो समाप्त ही हो जाता था। ब्रह्मचर्य के पालन के उद्देश्य से विद्यार्थियों को सब प्रकार की तड़क-भड़क की पोशाक, तेल-फुलेल, सुगन्धित उबटन तथा शृंगार सामग्री से दूर रहना पड़ता था। भोजन के लिए गाँव के किसी गृहस्थ के यहाँ से भिक्षा माँग कर लाना ब्रह्मचारियों के लिए नियम रखा गया था। इससे एक ओर जहाँ विद्यार्थी के हृदय में नम्रता तथा विनय का भाव उत्पन्न होता था वहाँ दूसरी ओर वह अपने को समाज का ऋणी और उसका एक अंग समझने लगता था और भविष्य में समाज सेवा करना उसका कर्त्तव्य हो जाता था। इस प्रकार के वातावरण में नितान्त गरीब बालक भी उच्च शिक्षा सहज में प्राप्त कर सकते थे। कृष्ण और सुदामा तथा राजा द्रुपद तथा द्रोणाचार्य का एक साथ मित्र रूप में शिक्षा प्राप्त करना इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली इस दृष्टि से बड़ी ही दूषित हो गई है। कालेजों की शिक्षा तो इतनी खर्चीली हो गई है और वहाँ के ज्यादातर छात्र ऐसे बने-ठने तथा फैशन के पुतले रहते हैं कि किसी गरीब घर के लड़के का वहाँ पहुँच सकना ही असम्भव होता है। अगर ऐसा कोई विद्यार्थी किसी की सहायता से अथवा स्वयं ट्यूशन आदि करके वहाँ पढ़ने के लिए पहुँच भी गया तो उसे सदा नीचा देखना पड़ता है।

कुछ व्यक्ति प्राचीन शिक्षा पद्धति में यह दोष बतलाते हैं कि उसका क्षेत्र बहुत संकुचित था और उस समय के विद्यार्थियों का दृष्टिकोण उतना व्यापक न बन पाता था जितना कि आजकल। हम यह मान सकते हैं कि प्राचीन समय में शिक्षा का स्वरूप मुख्यतया धार्मिक ही होता था और अधिकाँश विद्यार्थी पूजा-पाठ, स्तुति तथा कुछ कर्मकाण्ड सम्बन्धी बातों के अतिरिक्त अन्य विषयों का ज्ञान कदाचित ही प्राप्त करते थे। और यह भी सच है कि उस समय शिक्षा-संस्थाओं में प्रवेश करने वाले विद्यार्थियों की संख्या समस्त आबादी के अनुपात से बहुत अल्प होती थी। पर उस समय की सामाजिक अवस्था और व्यवस्था ही आजकल से सर्वथा भिन्न थी और उस समय का समाज मुख्य रूप से कृषि प्रधान था। खेती-बाड़ी का काम करने वालों के लिए साहित्य और विज्ञान की शिक्षा तो आजकल भी सुलभ नहीं है और गाँवों की 90 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या निरक्षर ही है। उस समय उद्योग धन्धे भी हाथ की कारीगरी के रूप में किये जाते थे और उनका उद्देश्य विशेषतः किसानों की आवश्यकता की वस्तुएँ बनाना ही था। बड़े-बड़े नगरों की संख्या कम थी और वैदेशिक व्यापार बहुत सीमित रूप में किया जाता था। फिर उस समय शिक्षा का उद्देश्य केवल किताबी शिक्षा ग्रहण करके कोई उपाधि प्राप्त कर लेना नहीं था, वरन् प्रत्येक को उसकी जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा दी जाती थी। जैसे ब्राह्मण के पुत्र को कर्मकाण्ड की शिक्षा, क्षत्रिय पुत्र को शस्त्र-संचालन तथा राजनीति की शिक्षा, वैश्य को विविध प्रकार के उद्योग धन्धों तथा व्यापार की शिक्षा आदि। शूद्रों का एक बड़ा भाग मेहनत मजदूरी के साधारण कामों में लगा रहता होगा। ऐसी अवस्था में पढ़ने-लिखने का प्रचार कम रहा हो या उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति इने-गिने ही देखने में आते हों तो कोई आश्चर्य नहीं।

पर यह ख्याल करना कि धार्मिक क्रिया-कलाप के सिवा देश में किसी अन्य विषय की शिक्षा का प्रचार ही न था, अज्ञान का द्योतक है। छान्दोग्य उपनिषद् में एक स्थान पर सनत्कुमार के पूछने पर नारद ऋषि ने कहा था- “हे भगवान मैंने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, वेदों के अर्थ विधायक ग्रन्थ, पितृविद्या, राशिविद्या, देवविद्या, निधि विद्या, पाकोवाक्य विद्या, एकायनविद्या, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्र विद्या, सर्प देव जन विद्याओं का अध्ययन किया है।” हमारे प्राचीन साहित्य में चौदह विद्याओं और चौंसठ कलाओं का जिक्र जगह-जगह पाया जाता है। इन विद्याओं और कलाओं में जीवन की अनेक आवश्यक और उसे सुसभ्य तथा सुसंस्कृत बनाने की बातों का समावेश हो जाता है। अस्त्र-शस्त्र संचालन, संगीत, वैद्यक, ज्योतिष, चित्रकारी, मूर्ति बनाना, गृह निर्माण, वस्त्र-कला, आभूषण और सुगन्धित पदार्थों का बनाना आदि कितने ही विषयों में उस समय के भारत वासियों ने अपूर्व उन्नति की थी। ये सब कार्य बिना समुचित शिक्षा के यथोचित रूप में किये जा सकें यह संभव नहीं। यद्यपि काल प्रभाव से प्राचीन चिह्नों का हजारों वर्ष तक कायम रह सकना असंभव है, तो भी दो ढाई हजार वर्ष पुरानी अजंता, एलोरा आदि गुफाओं में जो अद्भुत मूर्तियों और चित्रकारी के नमूने मिलते हैं और प्राचीन समय की जो दस-पाँच महाविशाल इमारतें अभी दक्षिण और उत्तर भारत में पाई जाती हैं उनसे यह प्रकट होता है कि उस समय तक हमारे देश में इन विद्याओं का विकास उच्च कोटि तक पहुँच गया था। इस प्रकार का विकास तभी संभव हो सकता है जब कि देश में अच्छी शिक्षा संस्थाएँ हजार पाँच सौ वर्ष तक स्थित रह कर कार्य कर चुकीं हों या शिक्षा देने की कोई और नियमित व्यवस्था निरन्तर प्रचलित रह चुकी हो।

रह गया शिक्षा का बहुत अधिक विस्तार या घर-घर में उसका फैल जाना यह एक दृष्टि से अच्छा भी है और दूसरी दृष्टि से इसमें बहुत सी खराबियाँ भी हैं। आजकल तो हमको शिक्षा और विद्या के सार्वजनिक प्रचार का, खास कर स्कूलों और कालेजों में पढ़कर निकलने वाली विद्यार्थियों की अगणित सेना का परिणाम बेकारी और अनीति की वृद्धि ही दिखलाई पड़ रहा है। यह सच है कि आजकल शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जाती है, पर साथ ही यह शिक्षा अधिकाँश में खोखली है। उसके द्वारा मनुष्य कार्यक्षम और सुयोग्य बनने की बजाय चालाक और दिखावट पसंद बन रहे हैं। साथ ही परीक्षा पास कर लेने को विद्या और शिक्षा की कसौटी बना देने से किसी भी कार्य को सम्पन्न करने की वास्तविक योग्यता का ह्रास हो रहा है। इस समय चारों तरफ दिखलाई पड़ने वाली भीषण बेकारी की समस्या का वास्तविक कारण यही है कि विद्यार्थियों को केवल किताबी शिक्षा देकर उनमें शिक्षित होने का अभिमान तो उत्पन्न कर दिया जाता है, पर किसी लोकोपयोगी कार्य को परिश्रम, सच्चाई और बुद्धिमत्तापूर्वक करने की सामर्थ्य उनमें पैदा नहीं की जाती।

इस तरह दोनों पहलुओं पर विचार करने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि प्राचीन शिक्षा पद्धति देश और काल की वर्तमान बदली हुई दशा में जैसी की तैसी-फल दायक नहीं हो सकती और न अब ऋषियों के निजी गुरुकुलों की स्थापना हो सकना संभव है। अब एक लंगोटी या धोती पहने, मूँड मुड़ाये भोजन के लिए भिक्षा वृत्ति अंगीकार करने वाले विद्यार्थी की कल्पना भी हास्योत्पादक मानी जायगी। अब शिक्षा की व्यवस्था देश की सरकार ने अपने हाथ में ले ली है और अन्य किसी के पास इतने साधन होने असंभव हैं कि वह इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए शिक्षा की समुचित व्यवस्था कर सके। इसलिए वर्तमान स्कूलों तथा कालेजों का सर्वथा उच्छेद हो सकना तो संभव नहीं पर उनका रूपांतर होना अत्यन्त आवश्यक है और उनमें प्राचीन शिक्षा पद्धति की उपयोगी बातों का समावेश करने से बहुत अधिक लाभ उठाया जा सकता है।

इस दृष्टि से सब से पहली बात तो हम यही समझते हैं कि शिक्षा पद्धति में कोरी जानकारी की अपेक्षा गुणों का महत्व अधिक होना चाहिए। प्राचीन काल के विद्यार्थियों के पास चाहे आजकल के स्कूली लड़के-लड़कियों की तरह पुस्तकों और कापियों के ढेर नहीं लगे रहते थे और न उनमें से प्रत्येक को भूगोल और इतिहास से लेकर विज्ञान के आविष्कारों तक की पाठ्य पुस्तकें पढ़नी पड़ती थीं, पर उस समय जो कुछ सिखलाया जाता था वह जीवन भर के लिए उपयोगी होता था और उसे ऐसा पक्का कर दिया जाता था कि मनुष्य उसे कभी भूल नहीं सकता था। हम नहीं समझते कि दुनिया भर की बातों की जबानी जानकारी प्राप्त कर लेने की चेष्टा करना, पर व्यवहारिक कार्य के नाम पर शून्य होना कहाँ की बुद्धिमत्ता है।

दूसरी बात है वर्तमान समय की परीक्षाओं और डिग्रियाँ दिये जाने की प्रणाली। संभव है आरम्भ में इससे कुछ लाभ हुआ हो पर आजकल तो इसका स्वरूप अत्यन्त विकृत तथा भ्रष्ट हो गया। छल, कपट, बेईमानी, रिश्वत आदि किसी भी साधन से परीक्षोत्तीर्ण होने का प्रमाणपत्र प्राप्त कर लेना ही इस समय अधिकाँश विद्यार्थियों का लक्ष्य दिखलाई पड़ता है। इससे शिक्षा का मूल्य घटता जाता है और बी. ए., एम. ए. पास व्यक्ति चपरासी तक की नौकरी करते दिखलाई पड़ते हैं। इस प्रकार की झूठी सनदों के बजाय प्राचीन काल के छात्र शिक्षा समाप्त कर लेने पर कोई महत्व का कार्य करके दिखलाते थे और उसके द्वारा अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे। वैदिक और पौराणिक काल में गुरुदक्षिणा की प्रणाली एक सीमा तक इस उद्देश्य की पूर्ति करने वाली थी। विश्वामित्र ने अपने शिष्य गालव से आठ सौ श्यामकर्ण घोड़ों की माँग की थी, और द्रोणाचार्य ने अर्जुन को राजा द्रुपद को पकड़ लाने का आदेश दिया था। अब समय आ गया है कि परीक्षाओं की मौजूदा प्रणाली को कतई बन्द कर दिया जाय, और उसके स्थान में ऐसे तरीके का प्रयोग किया जाय जिससे विद्यार्थियों की वास्तविक योग्यता की जाँच हो सके और उनको तदनुरूप कामों में ही नियुक्त किया जा सके।

सबसे महान त्रुटि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यह है कि यह विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण करने के बजाय उसका नाश कर देती है और नवयुवकों को जीवन के आरम्भ से ही काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर आदि का दास बना देती है। इसी का परिणाम है कि जब बीस-पच्चीस वर्ष की आयु में आजकल के विद्यार्थी बी. ए., एम. ए. के डिग्रियाँ, लेकर जीवन-क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो वे प्रायः निर्बल, निस्तेज और अनेक प्रकार की आधि-व्याधि के शिकार दिखलाई पड़ते हैं। प्राचीन समय के छात्र चौबीस पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके और हर तरह के कठोर जीवन को सहन करके पूर्ण शक्ति और उत्साह के साथ जीवन-संग्राम में पदार्पण करते थे और आत्म-विश्वास के साथ प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने को प्रस्तुत रहते थे। यही दोनों प्रणालियों का सर्वप्रधान अन्तर है और उपरोक्त उद्देश्य को सम्मुख रखकर ही हमको अपनी शिक्षा-पद्धति का पुनः निर्माण करना चाहिए।

First 17 19 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • भस्म हो गयी (Kavita)
  • धर्म ‘नकद’ है, उधार नहीं
  • जीवन का सर्वस्व-शील
  • जीवन के मूल्यवान क्षणों का सद्व्यय
  • भारतीय संस्कृति अमर है।
  • पंच ऋण और पंच महायज्ञ
  • यज्ञ के साथ (Kavita)
  • हमारा सच्चा सम्बन्धी कौन?
  • श्री विष्णु और वाहन गरुड़
  • हिन्दू धर्म महान है।
  • महिलाओं की साँस्कृतिक शिक्षा
  • चरित्र-उत्थान के बिना राष्ट्रोन्नति असम्भव
  • इन्द्रिय संयम द्वारा सद्बुद्धि
  • संयम श्रम स्वावलम्बन और स्नेह
  • ब्रह्मचर्य की महान शक्ति
  • वेदों में सूर्य किरण चिकित्सा
  • अब हमें ऐसे नेता चाहिये।
  • हमारी शिक्षा पद्धति कैसी हो?
  • गायत्री परिवार-समाचार
  • गायत्री परिवार की उत्साहवर्धक प्रगति
  • Quotation
  • गायत्री उपासना के अनुभव
  • नारी, तेरी महिमा महान!
  • नारी, तेरी महिमा महान (Kavita)
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj