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Magazine - Year 1958 - Version 2

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महायज्ञ की दिव्य झाँकियाँ

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(श्री मार्कंडेय ‘ऋषि,’ काशी)

महायज्ञ के विषय में लेखनी उठाते ही सब से पहले उस दिन की याद आती है जब-लगभग दस महीने पहले, आचार्य जी ने एक दिन हम सब तपोभूमि वासियों से पूछा था कि “हमारा विचार यहाँ एक हजार कुण्डों का यज्ञ करने का हो रहा है, तुम सब इस विषय में अपनी सम्मति दो। पिछली बार जो 108 कुण्डों का यज्ञ किया गया उसकी गर्मी (प्रेरणा) अब तक रही और फलतः सैंकड़ों स्थानों में यज्ञ किये गये। अब यदि एक हजार कुण्डों का कर सकें तो उसके प्रभाव से यह यज्ञ-परम्परा बहुत अग्रसर हो सकेगी, और हम सन् 1962 के भयंकर समय का थोड़ा बहुत निराकरण करने में समर्थ हो सकेंगे।” हमने कहा-”गुरुजी, इधर आपका स्वास्थ्य कमजोर हो गया है और इतने बड़े महायज्ञ में असीम परिश्रम की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही बहुसंख्यक सुयोग्य, श्रद्धालु, ईमानदार कार्यकर्त्ताओं का सहयोग मिलना भी आवश्यक है। इसलिये इन बातों का ध्यान रखकर ही इस विषय में निश्चय करना चाहिये।” आचार्य जी ने हँसकर उत्तर दिया—”मार्कंडेय जी, आप हमारे स्वास्थ्य की चिन्ता मत कीजिये! जब महायज्ञ करना होगा तो हम भोजन में पौष्टिक पदार्थ खायेंगे और मोटर गाड़ी से आएंगे’ जायेंगे! रह गई सहयोगियों की बात, सो अच्छे कामों में भगवान सहायता करते हैं। तुम सब लोग तैयार हो जाओ तो यह यज्ञ अवश्य हो जायगा और मैं इसी समय इसको पूरा करने का संकल्प करता हूँ।”

अब महायज्ञ के आरम्भ होने में केवल दो दिन का समय रह गया है तपोभूमि के सामने से सैंकड़ों शाखाओं के उपासक और उपासिकाएँ गायत्री परिवार के झण्डे लेकर निकल रहे हैं। मथुरा के जंक्शन स्टेशन से लेकर बिड़ला मंदिर तक इन लोगों की चींटियों की -सी कतारें चल रही हैं। इन लोगों के दल के दल तपोभूमि में गायत्री माता के दर्शन करने चले आ रहे हैं और उनके जयकारों से आकाश गूँज रहा है। तपोभूमि से आगे चलते ही ऐसा जान पड़ता है मानो मीलों लम्बा चौड़ा कोई नया नगर जादू के जोर से बसा दिया गया हो। सब दिशाओं में ताँगे, रिक्शे, दुकानें, तम्बू, भोजन शालायें, साधु, संन्यासी, धर्मोपदेशक आदि देखते-देखते दर्शक के मन में एक अनिर्वचनीय भाव का उदय होता है कि “अहा, आचार्य जी के एक क्षण के संकल्प ने किस प्रकार जंगल में मंगल करके दिखा दिया।” हमको तो कई बार हर्ष से रोमाँच हो आया और हृदय आनन्द से परिपूर्ण हो गया।

यह एक हजार कुण्डों की अभूतपूर्व यज्ञशाला है। फाटक के भीतर प्रवेश करते ही नर नारियों की अपार भीड़ के कारण चल सकना कठिन हो जाता है। होता और यजमान अपने-अपने स्थानों पर बैठे हुये हैं। गायत्री-मंत्रों की एक दिव्य ध्वनि सर्वत्र गूँज रही है। एक तरफ ब्रह्मचारी योगेन्द्र अपनी गम्भीर गर्जना से यज्ञ का संचालन कर रहे हैं। पास में कितने ही विद्वान सहयोगार्थ बैठे हैं। पूज्य आचार्य जी और माता भगवती देवी भी वहीं विराजमान हैं। अहा, इन दोनों तपस्वियों के दर्शन के लिये असंख्य भीड़ उमड़ी चली आ रही है। सब चरण स्पर्श करना चाहते हैं, पर इसके लिये पहले ही निषेध कर दिया गया है। तो भी स्वयं-सेवक लोग समस्त भीड़ को रोकने में असमर्थ हो जाते हैं और इक्के दुक्के व्यक्ति आचार्य जी के चरणों तक पहुँच ही जाते हैं। नवरात्रि से ही जौ के सत्तू पर रहने वाले कृशकाय आचार्य जी और माता भगवती देवी अपने संकल्प को पूर्ण होते देख हर्षित हो रहे हैं। यज्ञशाला के मध्य में बने प्रधान यज्ञ कुण्ड के पास खड़े एक लम्बे से संन्यासी वहाँ की देख भाल कर रहे हैं और चारों तरफ पीले वस्त्र पहिने असंख्यों नर नारी पवित्र वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुये आहुतियाँ दे रहे हैं। यज्ञशाला के प्रत्येक प्रवेश द्वार पर यज्ञ-रक्षक खड़े हुये होताओं के अतिरिक्त अन्य लोगों को भीतर जाने से रोक रहे हैं।

अब यज्ञशाला के परिक्रमा मार्ग पर आगे बढ़िये तो असंख्य श्रद्धालु व्यक्ति 24 और 108 परिक्रमाएँ लगाने में संलग्न हैं। कोई-कोई तो लेट-लेट कर ‘दण्डौती’ परिक्रमा दे रहे हैं। अरे, यह देखो भयंकर भीड़ के कारण अनेक लोगों के पैर उन दण्डौती करने वालों की पीठ पर पड़ गये। मैंने इस प्रकार परिक्रमा देने वाली एक स्त्री से कहा— “माताजी,इस समय अपार भीड़ है, आप संध्या के समय शेष परिक्रमा पूरी कर लेना।” पर इस बात को कौन सुनता है। उसे तो परिक्रमा पूरी करनी है, प्राणों की परवाह नहीं!

परिक्रमा-मार्ग में कीर्तन करते, झण्डे लिये, जयघोष करते गायत्री उपासक तथा नजदीक और दूर के स्थानों के दर्शक अपने को परम सौभाग्यवान समझ रहे हैं। अब आगे कुआं है, जहाँ लोगों को पानी पिलाने की व्यवस्था है। दस व्यक्ति पूरी शक्ति से कार्य कर रहे हैं पर प्यासे लोगों की भीड़ इससे भी कहीं अधिक है और बड़ी धक्कमधक्का हो रही है। पास में ही यज्ञ- सामग्री का विशाल भंडार है। जिसमें तपोभूमि के ‘वैद्यजी’ श्री रामलाल अपने सहयोगियों के साथ डटे हुये सामग्री और घी समस्त एक हजार कुण्डों पर पहुँचाने की व्यवस्था कर रहे हैं। यह कार्य इतना विशाल था कि यज्ञ-शाला व्यवस्थापक रामलाल जी कई दिन तक भंडार से बाहर ही नहीं निकले और उनका खाना-पीना, सोना, नित्यकर्म आदि सब बन्द हो गया। एक हजार कुण्डों पर होताओं के नये-नये दलों को सामग्री आदि पहुँचाने में कई सौ स्वयं सेवकों को लगातार दौड़−धूप करनी पड़ती थी और अगले दिन के लिये पहले दिन रात से ही सब तैयारी करके रखनी पड़ती थी। स्वेच्छा सहयोग के लिये आने वाली सामग्री, घी, रुपये पैसों को जमा करने का काम भी बहुत बड़ा था। इन्हीं कामों की देखभाल में व्यवस्थापक जी को लगातार 24 घण्टे व्यस्त रहना पड़ता था।

महायज्ञ की सब बातें इस छोटे से लेख में वर्णन नहीं की जा सकतीं। जिन्होंने उसमें भाग लिया, सहयोग किया, दर्शन किये वे ही उसकी महानता का अनुमान कर सकते हैं। यज्ञ-नगर, प्रवचन-पंडाल यज्ञ- शाला भोजन शाला की अपार भीड़ स्वयं सेवकों का परम उत्साह, होता और याज्ञिकों की हार्दिक भक्ति , ब्रह्म के मंडप और मुख्य यज्ञ-कुँड की दिव्य छटा आदि बातें जीवन भर सदैव याद रहेंगी। अहा,क्या सम्भव है कि हम पुनः इस जीवन में ऐसे महायज्ञ में भूख, नींद त्याग कर तन मन से सेवा कर सकेंगे, अथवा फिर कभी इन नेत्रों से ऐसे दिव्य दृश्य देख सकेंगे।

लोग कहते हैं कि मथुरा के कितने ही लोगों ने महायज्ञ का विरोध किया, उसमें विघ्न डालने की चेष्टा की, पर हमको तो चारों तरफ सहयोग ही सहयोग और आश्चर्य जनक सेवा भावना के दर्शन हो रहे थे। सैंकड़ों नर-नारी इस बात के लिये तड़प रहे थे कि हमको भी इस पुण्य आयोजन में कुछ परिश्रम करने का -सेवा का अवसर मिल जाय तो जीवन धन्य हो जाय। अभी पता लगा है कि मथुरा के ही एक सेठ जी अपनी मिल के सब कर्मचारियों के साथ अपनी ही इच्छा से 4 दिन तक सेवा कार्य में लगे रहे। इस कार्य के लिये उन्होंने न तो आचार्य जी से पूछा और न किसी को कुछ बतलाया। वे हर एक कार्य में, जहाँ भी आवश्यकता हुई अपने कर्मचारियों सहित सहयोग देते रहे और आयोजन समाप्त होने पर चुप-चाप चले गये। थोड़े ही लोग इन की इस निःस्वार्थ सेवा का रहस्य जान पाये। उन सेठजी का कहना है कि यज्ञ से एक दिन पूर्व सुषुप्ति की सी अवस्था में उनके निकट एक कन्या आई और यज्ञ में सहयोग की प्रेरणा देकर अदृश्य हो गई। फिर क्या था, सवेरे ही उन्होंने अपनी मिल का काम स्थगित कर दिया और अपने पचास कर्मचारियों को लेकर सेवा-कार्य में लग गये। इसी प्रकार अन्य सैंकड़ों व्यक्तियों ने, जिनमें अधिकाँश गायत्री परिवार के ही हैं, रात दिन परिश्रम करके और अपने स्थानों पर डटे रह कर इस पुण्य-कार्य में सहयोग दिया और इस प्रकार पूज्य आचार्य जी के दस महीना पूर्व कहे वाक्यों को चरितार्थ कर दिखाया।

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