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Magazine - Year 1958 - Version 2

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(श्री शंभूसिंह जी)

माता गायत्री की कृपा से पूज्य आचार्य जी का संकल्पित सहस्रकुँडी महायज्ञ सानन्द पूर्ण हो गया। परन्तु वह साधकों के मनःक्षेत्र में एक विचित्र हलचल छोड़ गया है। 1025 कुँडों में उठी यज्ञाग्नि की लहरें बढ़ बढ़ कर यह प्रेरणा दे रही थीं कि होता गण भी इसी प्रकार तेजस्वी बनकर ऊंचे उठते रहें। हवन काष्ठ जल-जल कर यह कह रहा था कि तुम भी जलकर दूसरों को जलाना। पर साधकों का मन फिर भी हलचल में था। वे जानना चाहते थे कि अब हम क्या करें? अन्त में पूज्य आचार्य जी ने अपने दीक्षान्त भाषण में उनकी जिज्ञासा को यह बतला कर शान्त किया कि “महायज्ञ के बाद आप इस वर्ष में अपने यहाँ भी एक गायत्री यज्ञ करें।”

परन्तु फिर भी अनेक लोग यह जानना चाहते हैं कि यज्ञ कैसे करें? उनको मैं बतलाना चाहता हूँ कि अब वे इस सम्बन्ध में विशेष चिन्ता और आशंका न करें। गायत्री यज्ञों की यह शृंखला देश भर को यज्ञ-भूमि बनाकर रहेगी और फिर से ऋषि और ऋषिकाएँ उत्पन्न करेगी। इसके लिये यज्ञकर्ता शाखाओं को 2-3 मास पूर्व ही निमंत्रण पत्र छपाकर जनता में बाँट देना चाहिये और घर-घर जाकर यह प्रार्थना करनी चाहिये कि—

(1) आप इस यज्ञ के याज्ञिक बनने के लिये 24 हजार जप गायत्री मंत्र का करने का निश्चय करें या चालीसा पाठ अथवा मंत्र लेखन करें।

(2) माताएँ और बहिनें घर-घर घूम कर जल यात्रा के लिये ऐसी महिलाओं को तैयार करें जो यज्ञ तक नित्य स्नान करके 1 माला गायत्री जप, या 1 चालीसा पाठ या 11 मंत्र लिखने का व्रत लें। इस प्रकार के भागीदारों की सूची बनाते जावें।

(3) यज्ञ -तिथि के एक मास पूर्व यज्ञ-शाला का निर्माण आरम्भ कर दें। सब साधक दिन या रात में किसी भी समय इकट्ठे होकर श्रमदान से इस कार्य को सम्पन्न करें। ग्राम निवासियों से घर-घर जाकर प्रार्थना करें कि वे श्रमदान करने आवें। जिस यज्ञ में जितने अधिक व्यक्तियों ने श्रमदान किया होगा वह उतना ही अधिक सफल समझा जायगा। सम्पन्न व्यक्तियों या बड़े पदाधिकारियों से भी एक पत्थर या एक टोकरी मिट्टी अवश्य डालने की प्रार्थना करके उनको भी इस यज्ञ के पुण्य में सम्मिलित करना चाहिये।

(4) जब कुण्ड और यज्ञशाला बन जावें तो गायत्री-उपासिकाओं को गाँव की समस्त माताओं के पास जाकर उसे लेसने, लीपने, पोतने, रंगने के कार्य में श्रमदान करने की प्रार्थना करनी चाहिये।

(5) यज्ञशाला की सजावट स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार श्रम से ही करनी चाहिये।

(6) कुछ समय पहले ही यज्ञ के समस्त आवश्यक सामान की सूची तैयार करके जनता से पैसा नहीं, वस्तुएँ ही माँगें, तथा जिसका सामान हो उसे ही यज्ञ के अवसर पर अपने साथ लाने की प्रेरणा दें। एक व्यक्ति के पैसे से होने वाला यज्ञ गायत्री -यज्ञ नहीं। इसलिये कोई घर ऐसा न बचना चाहिये जो इस पुण्य-कार्य में भाग न ले। इसलिये और कुछ न हो तो घर-घर में फेरी लगाकर उनसे स्वेच्छानुसार थोड़ा बहुत हविष्यान्न ही यज्ञ के लिए लेना चाहिये। एक व्यक्ति से अधिक से अधिक लेने की इच्छा न करके अधिक से अधिक व्यक्तियों से थोड़ा-थोड़ा लेकर कार्य सम्पन्न करना विशेष उत्तम है। इससे सब में यज्ञ के प्रति आत्मीयता की भावना की वृद्धि होगी और पारस्परिक समानता में भाव का भी उदय होगा। यज्ञ में समिधा, सामग्री, सजावट जो कुछ भी हो वह पैसे से कम और पसीने से अधिक हो।

(7) जहाँ यज्ञ हो वहाँ के स्थानीय व्यक्ति यथासम्भव उसमें भोजन न करें। बाहर से आने वाले उपासकों को ही कच्चा भोजन, साग, सत्तू आदि सात्विक आहार देना चाहिये।

(8) पूर्णाहुति का प्रसाद थोड़ा-थोड़ा सभी दर्शकों को बाँटना चाहिये। उसी के साथ चालीसा, चित्र, गायत्री साहित्य का प्रसाद भी जिज्ञासुओं को देना चाहिये।

(9)जो लोग होता बनने की परिस्थिति में न हों उन्हें यज्ञशाला की 108 या 24 परिक्रमाएँ लगाने का पुण्य प्राप्त करने की प्रेरणा करनी चाहिये।

कहने का साराँश यही है कि इन यज्ञों का उद्देश्य जनता में गायत्री व यज्ञ के प्रति श्रद्धा व विश्वास उत्पन्न करना तथा इनसे जो उपदेश मिलते हैं उन पर अपने दैनिक जीवन में आचरण करना होना चाहिये । यह उद्देश्य जिस यज्ञ से जितने अधिक अंशों में पूरा होगा वह उतना ही महान समझा जायगा।

कुण्डों की संख्या हमारे यज्ञों की महानता की कसौटी नहीं है

यज्ञ चाहे थोड़े ही कुण्डों का हो पर उसके द्वारा जितने अधिक उपासक, उपाध्याय बनेंगे वह उतना ही महत्वपूर्ण एवं महान समझा जायेगा।

इस प्रकार सन् 59 में प्रत्येक शाखा को यज्ञ की व्यवस्था करनी चाहिये। उसका बाह्य कलेवर चाहे छोटा हो पर उसकी जड़ें मजबूत बना कर अपने क्षेत्र में गायत्री माता व यज्ञ पिता का स्थायी रूप से प्रचार करना चाहिये। अब महायज्ञ के बाद हमारा कार्यक्रम— कर्तव्य यही है कि हम गायत्री व यज्ञ का संदेश घर-घर में पहुँचा दें।

मथुरा में—

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