
कर्मयोग की अनिवार्य आवश्यकता
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जीवन में पूर्णता प्राप्ति के लिए हमारे पूर्वज मनीषियों ने तीन मार्ग बताये हैं। ज्ञानयोग, भक्ति योग और कर्मयोग। ज्ञानयोग, उच्च बौद्धिक चेतना सम्पन्न, सूक्ष्मदर्शी, चिन्तन प्रधान भाव अर्जन करने की प्रेरणा देता है, और भक्तियोग में हृदय की शुद्धि, आत्म समर्पण की उत्कट भावना, अनन्य प्रेम को आवश्यक बताया गया है। किन्तु कर्मयोग का समावेश भी इन दोनों के साथ अनिवार्य माना गया है।
आज के संघर्षमय युग में तो कर्मयोग “युगधर्म” कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी क्योंकि इसकी साधना, आचरण, सरलता से किए जा सकते हैं। महाभारत का युद्ध शुरू होने को था, दोनों सेनायें आमने-सामने खड़ी थी। बीच में खड़े मोहग्रस्त विक्षिप्त मन अर्जुन को श्रीकृष्ण ने कहीं कन्दराओं में एकान्त में बैठकर तत्वज्ञान की साधना के लिए नहीं कहा था और न भाव भक्ति में विह्वल हो निज सुधि विसार कर परमात्मा को पुकारने के लिए ही कहा।
समस्त गीता का एक मात्र निष्कर्ष अर्जुन को निष्काम कर्मयोग की शिक्षा देकर महाभारत के युद्ध में प्रवृत्त करना था, जिसमें स्वयं अर्जुन की भी प्रतिष्ठा, कर्तव्य, परायणता, मुक्ति एवं पूर्णता सन्निहित थी। मनुष्य मात्र जीवन के महाभारत संग्राम में खड़ा है। दुविधा, संघर्ष, जीवन के कटु अनुभव, अवरोध, कठिनाइयों में मनुष्य जहाँ विपन्न सा खड़ा है वहाँ गीता का कर्मयोग ही उसे आगे बढ़ाने का मार्ग खोलता है। कर्मयोग से मनुष्य के आन्तरिक एवं बाह्य जीवन का परिष्कार होता है। अनेकों जन्मों की ग्रन्थियों का निराकरण हो जाता है। मन शक्तिशाली और शुद्ध बनता है। आन्तरिक जीवन के साथ ही बाह्य जीवन भी सफल और सुन्दर बनता है।
कर्मयोग में प्रवृत्त होने से मनुष्य और समाज के निकट संपर्क स्थापित होते हैं। जिससे मनुष्य में एकाकीपन की भावना, घबराहट, डर संकोच आदि की वृत्तियाँ दूर होकर मनुष्य की गति, एवं क्षमताओं में वृद्धि होती है। बहुधा कई लोगों को दूसरों से मिलने जुलने, बातचीत करने में एक प्रकार की घबराहट, बेचैनी सी होती है। जिसके लिए लोग दूसरों के संपर्क से बचने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु इससे मनुष्य का व्यक्तित्व अविकसित ही रह जाता है। लेकिन कार्य क्षेत्र में उतरने पर, कर्मयोग का अवलम्बन लेने पर तो मनुष्य को दूसरों से संपर्क स्थापित करना ही पड़ता है। दूसरों के साथ मिल जुलकर हम किस प्रकार काम करें, कैसे सोचें और चाहना करें? इसी विज्ञान को कर्मयोग कहा गया है।
अकर्मण्य न बैठकर अच्छे, रचनात्मक कार्यों में लगे रहना अपने मन को शक्तिशाली बनाने का एक सरल उपाय है। स्वयं बैठने पर ही मनुष्य के मन में निकम्मी बातें उठनी शुरू होती हैं जिनसे मानसिक कमजोरियाँ बढ़ती हैं। कुविचारों की बढ़ोतरी कुमार्ग की प्रेरणा देती है। इससे चरित्र बिगड़ता है, स्वभाव गंदा होता है और मनोबल क्षीण होने लगता है। मनुष्य तरह-तरह के शारीरिक और मानसिक रोगों से घिर जाता है। निरन्तर किसी काम में लगे रहने से खाली दिमाग शैतान की दुकान नहीं बन पाता, बुरे विचारों के आने जाने के लिए कोई समय ही नहीं रहता। इसके अतिरिक्त काम की सफलता से आत्म विश्वास बढ़ता है और इससे मनुष्य में आत्म नियन्त्रण की शक्ति बढ़ती है इस तरह काम में लगे रहने से मनुष्य की शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है और इनके फलस्वरूप ही बाह्य जीवन में सफलता मिलती है।
श्रद्धा, निष्ठा एवं लगन के साथ किया गया कोई भी काम मनुष्य को सद्भाव, उच्च, विचार, उत्साह, सन्तोष, शान्ति प्रदान करता है। किसी भी भले काम में लग कर मनुष्य बाह्य संसार में कुछ भी सफलता प्राप्त करें, किन्तु आन्तरिक लाभ शान्ति, आत्म प्रसाद, उच्च विचार सद्गुणावलोकन की दृष्टि तो प्राप्त होती ही है। मानसिक विकारों पर नियन्त्रण प्राप्त होकर नैतिक तथा बौद्धिक उन्नति होती है। कुल मिलाकर कर्मयोगी की अंतर्बाह्य जीवन में सफलता ही मिलती है।
कुविचारों और दुष्प्रवृत्तियों से बचने के लिए अपनी समस्त शक्ति को रचनात्मक कार्यों में लगा देना श्रेयस्कर होता है। इससे एक तो दुष्कर्मों के लिए समय ही नहीं मिलेगा साथ ही कुविचारों को फलित होने का मौका भी प्राप्त नहीं होगा। अकर्मण्यता की स्थिति में अनेकों दूषित मनोभाव उत्पन्न होते रहते हैं, बढ़ते हैं और भयंकर रूप धारण कर लेते हैं। काम में लगे रहने पर दूषित भावों की शक्ति रचनात्मक कार्यों में परिवर्तित हो जाती है। सक्रिय रहने पर मनुष्य के अच्छे बुरे दोनों तरह के भावों का समन्वय हो जाता है। सब मिलकर कार्य की पूर्णता में लग जाते हैं। अतः अन्तर्द्वन्द्व की नौबत ही नहीं आती।
चिन्ता से मुक्ति के लिए सक्रिय रहना आवश्यक है। इससे इच्छाशक्ति भी बढ़ेगी और दूषित भावों का भी शोधन होगा। कोई भी काम जो सरल एवं अपनी रुचि के अनुकूल हो उसमें लग जाना चाहिए। चिंता, क्रोध, शोक आदि हीन भावों से ग्रस्त व्यक्ति के लिए तो अकर्मण्य रहना बड़ा भारी कुपथ्य है, इससे रोग दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही जाता है। दूसरों की सेवा, घर का काम, अध्ययन, शिल्प, कला, साहित्य साधना आदि छोटे बड़े कार्यों में से अपनी रुचि के अनुसार निर्णय कर उसमें दत्त-चित्त होकर लग जाना चिन्ता, मानसिक विकार, उद्विग्नता आदि से बचने का सरल उपाय है । जो लोग अपने कार्यों में दत्तचित्त होकर नहीं लगे रहते बहुधा चिन्तायें उन्हें ही सताती हैं। जो व्यक्ति दृढ़ता के साथ अपने आपको काम में लगा सकता है वही विकारों से छुटकारा पाने में समर्थ हो सकता है। कर्मशील व्यक्ति भूत भविष्य की उधेड़बुन में उलझा नहीं रहता, वरन् वर्तमान को महत्व देता है और अपने काम में लगा रहता है।
कर्मयोग जीवन में होने वाली क्षति, हानि आदि के लिए रोने, शोक करने, दुख भगाने की इजाजत नहीं देता। वहाँ तो पद-पद पर नव सृजन निर्माण के द्वारा क्षति, हानि के गढ्ढों को भर देने का विधान है और यह सच भी है कि किसी हानि, क्षति के लिए दुख मनाने, शोक करने से कोई लाभ नहीं होता वरन् उसकी पूर्ति करने में लग जाना ही उसका समाधान है, जो कर्मयोग, सक्रियता से ही सम्भव है। बिना क्रिया के तो सृजन और निर्माण के काम कैसे होंगे? और बिना सृजन के पूर्ति भी सम्भव न होगी। धन की क्षति के लिए धन कमाने के प्रयत्न करना, परीक्षा में असफल होने पर पढ़ाई की तैयारी में लग जाना, इसी तरह अन्य सभी