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Magazine - Year 1969 - Version 2

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आत्म-बल हमारी सबसे बड़ी वैभव विभूति

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ईश्वर की कृपा स्वरूप- उनके कृपा और अनुग्रह के रूप में एक ही पुरस्कार मिलता है- आत्म-बल यह वह कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठकर हर कामना के समाधान का मार्ग मिल सकता है। यह, वह पारस है, जिसको छूकर छोटी परिस्थिति में पड़ा हुआ लोहे जैसा लगने वाला व्यक्ति भी स्वर्ण जैसा शोभायमान और बहुमूल्य बन सकता है। जिसके पास आत्म बल है, उसके पास कभी किसी वस्तु की कमी नहीं रह सकती।

गायत्री महामंत्र में सविता देवता के वरेण्य वर्ग की याचना अथवा उपासना की जाती है। तेजस्वी परमात्मा हमें ब्रह्म तेज प्रदान करेंगे तो फिर और कमी किस बात की रह जायेगी स्वर्ण मुद्रा के बदले संसार भर में कहीं भी, कोई भी, वस्तु खरीदी जा सकती है। आत्म तेज के बदले में भी हर क्षेत्र में प्रगति का पथ प्रशस्त किया जा सकता है। जिसे यह दैवीय वरदान मिल गया, वह धन्य हो गया और जिसे इससे वंचित रहना पड़ा उसके लिए प्रचुर सुविधा सामग्री होते हुए भी पग पग पर भय, चिन्ता, निराशा, आशंका, बेचैनी के दृश्य ही दृष्टिगोचर होते रहेंगे। कभी चैन की नींद सोने का अवसर ना मिलेगा।

अपना स्वरूप, अपना वर्चस्व, अपना महत्व न समझने का नाम ही अज्ञान है। बहुत पढ़ा होने पर भी कोई व्यक्ति अज्ञानी ही रहेगा, यदि उसे आत्म-बोध नहीं हुआ। ऐसा अज्ञानी अन्धकार में भटकता है और उपनिषद् की भाषा में ‘असुर्या’ नामक तमसाछन्न नरक में दुःख दैन्य की यातना सहता हुआ-रोते कलपते- जीवन भार वहन करता है।

यदि हममें आत्मा है- अपने अन्दर आत्म-तत्त्व विद्यमान् है तो फिर उसका स्वाभाविक गुण आत्म-बल भी अपने अन्दर ही होना चाहिए, उसे कहीं बाहर ढूँढ़ना नहीं पड़ता और न कहीं बाहर से लाना पड़ता है वह तो अजस्र मात्रा में अपने ही भीतर विद्यमान् है। केवल उसे उभारना, निखारना, सँभालना भर है। इतने भर प्रयत्न को यदि साधना कहा जाता हो तो उसे कहने, मानने में भी कोई हर्ज नहीं है। इस साधना का यही स्वरूप है कि हम अपने परम शक्तिशाली स्वरूप की अनुभूति करें और यह समझें कि अपने चारों और जो वातावरण घिरा हुआ है, वह मकड़ी के जाले की तरह अपना ही कर्तव्य है। हमारी भीतरी स्थिति ही बाहरी क्षेत्र में सुख-दुःख अथवा सुविधा-असुविधा का रूप धारण कर घूमती रहती है। हम कारण है परिस्थितियाँ कारण। अपनी मान्यतायें और गतिविधियाँ ही है, जो आरोह अवरोह बनकर हमें हँसाने रुलाने के लिए छाया चित्र की तरह आती जाती रहती है।

हम आज जैसे भी कुछ है अपनी ही मान्यताओं के कारण बने है। अपना आन्तरिक ढाँचा बदल दें तो बाह्य परिस्थितियों का स्वरूप बदलने में तनिक भी देर न लगेगी। भवसागर के बन्धन, जंजीरें किसी और ने नहीं बाँधी है, उन्हें हमने स्वयं ही बनाया और धारण किया है। माया नाम की भवबन्धन में बाँधने वाली सत्ता का अस्तित्व संसार में अन्यत्र कहीं नहीं है, उसे अपनी प्रतिगामी मान्यताओं की प्रतिक्रिया मात्र समझना चाहिये।

गुण, कर्म, स्वभाव की दुर्बलताएँ ही हमारी प्रगति में मुख्य बाधाएँ हैं। यदि अपने में सद्गुणों का- सत्कर्मों का- सत्प्रवृत्तियों का- सद्भाव का बाहुल्य हो तो निश्चित रूप से सम्पदायें और विभूतियाँ चारों और से खींचकर हमारे आस-पास जमा होने लगेगी। पुष्प खिलता है तो उस पर भ्रमर, मधुमक्खी, तितली अनायास ही मँडराने लगते हैं। मनुष्य का अन्तःकरण परिष्कृत हो- व्यक्तित्व उत्कृष्ट बने तो कोई कारण नहीं की उसे प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष- व्यक्तियों और सूक्ष्म चेतनाओं का सहयोग न मिले। विभिन्न क्षेत्रों में आश्चर्यजनक प्रगति कर सकने वाले व्यक्तियों की सफलताओं का मूल कारण यदि बारीकी से तलाश किया जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उन्होंने अपने सद्गुणों को बढ़ाया, उनसे गतिविधियाँ सुव्यवस्थित बनी, इनसे दूसरे लोग प्रभावित हुए, उन्हें प्रामाणिक माना। प्रामाणिकता का सहयोग मिलता है। जिसे जन श्रद्धा एवं सहयोग उपलब्ध है, उसके लिए प्रगति पथ पर आगे बढ़ने के मार्ग में आने वाले अवरोध तृषा के समान हैं। वे दिखते भर हैं, सामने आते ही चूर-चूर हो जाते हैं। आत्मा की शक्ति इतनी प्रचण्ड है कि उसके सामने किसी संकट का ठहर सकना सम्भव नहीं।

आत्म-बल का प्रकाश ही नगण्य से मानव जीवन को विभूतिवान बनाता है। जीवन की तलाश ढोने वाले करोड़ों नर-पशुओं के बीच जो भी अपना अनुकरणीय प्रकरण इतिहास के पृष्ठों पर छोड़ सकने वाले थोड़े से नर-रत्न होते हैं, उनमें दूसरों की अपेक्षा एक ही विशेषता- आत्म बल की अधिकता होती है। इसके बिना तन कर कोई खड़ा नहीं हो सकता, न कोई महत्त्वपूर्ण निर्माण करता है और न उन महत्त्वपूर्ण कार्यं का सम्पादन करने का साहस कर सकता है, जो मानव जीवन को आनन्द और उल्लास से परिपूर्ण प्रकाशवान एवं धन्य बनाते हैं। आत्म बल ही वह जीवन तत्त्व है, जो साँस लेते हुए जीवित मृत के टिड्डी दल में से किसी सजीव को सूर्य-चन्द्र की तरह चमकने में समर्थ बना सकता है।

आत्म-बल का रत्न-भण्डार आत्म-चेतना की भूमिका में जागृत होने पर ही उपलब्ध होता है। ‘मैं आत्मा हूँ’ यह मान्यता यदि अन्तरात्मा के गहन अन्तरंग तक प्रवेश कर जाय तो व्यक्ति सचमुच यह अनुभव करने लगे कि वह शरीर एवं मन से ऊपर उठी हुई ईश्वरीय पवित्रता एवं महानता से सुसम्पन्न आत्मा है। उसे अपनी गतिविधियाँ आत्मा के कर्तव्य और गौरव से बनानी है तो इस भावना की प्रतिध्वनि उसके रोम-रोम में गूँज उठेगी और नये सिरे से उसे विचार करना होगा कि उसका जीवन लक्ष्य, कर्तव्य एवं गन्तव्य मार्ग कहाँ है। इन प्रश्नों का उत्तर कठिन नहीं है। हर अन्तःकरण में इन प्रश्नों का उत्तर मौजूद है। उसे किसी गुरु या शास्त्र से पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

आत्म-चेतना की भूमिका में अन्तःकरण जाग पड़े तो इसे महानतम सौभाग्य कहना चाहिये। ईश्वर का यही सबसे बड़ा अनुग्रह, देवताओं का सबसे बड़ा वरदान और गुरुजनों का यही सबसे बड़ा आशीर्वाद है। नर-तन की सार्थकता इस महान् जागरण पर ही अवलम्बित है। जो इस भूमिका में जगा उसी ने अपने अन्तरंग और बहिरंग जीवन को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढाला और उसी की गतिविधियाँ आदर्शवादिता का महान् प्रकाश बनकर इतिहास के पृष्ठों पर चमकी। स्वाति बूँद पड़ने से सीप में मोती, केले में कपूर, बाँस में वंशलोचन, सर्प में मणि उत्पन्न होने की बात सुनी गई है।

यह बातें प्रामाणिक हो चाहें अप्रमाणिक, पर यह नितान्त सत्य है कि आत्म-चेतना की भूमिका में जगा हुआ मनुष्य नर से नारायण बन जाता है। पपीहे की प्यास स्वाति नक्षत्र का जल पीने से शान्त होती सुनी गई है, कह नहीं सकते कि यह कहाँ तक ठीक है पर यह नितान्त सत्य है कि आत्मा की प्यास तभी बुझती है, जब अन्तःकरण आत्म चेतना की भूमिका में जाग जाता है और यह अनुभव करता है कि मैं शरीर और मन नहीं वरन् अविनाशी आत्मा हूँ। मुझे शरीर और मन की लपक बुझाते रहने के लिये नहीं वरन् आत्मा के गौरव की कथा करने के लिये इस बहुमूल्य मानव-जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग करना है।

इस धर्म संकट की घड़ी में आत्मा को महाभारत के अर्जुन की स्थिति में खड़ा होना होता है। चिर परिचित चिर अभ्यस्त पुरानी मान्यतायें एवं गतिविधियों के प्रति मोह, ममता का होना स्वाभाविक है। अर्जुन अपने चारों ओर स्वजन, सम्बन्धियों से घिरा हुआ और खड़ा हुआ देखता है। वे सभी विरोधी बने हुए हैं। इनसे कैसे लड़ा जाय? यह मोह अर्जुन को आ घेरता है और वह गाण्डीव को नीचे रखकर बैठ जाता है। आत्म- भूमिका में जागृत हुआ व्यक्ति अपनी वर्तमान गतिविधियों पर दृष्टि डालता है तो वे निरर्थक बाल-क्रीड़ा मात्र दीखती हैं। जरा-सा पेट- थोड़े से परिश्रम से गुजर की सम्भावना-फिर अधिकाधिक धन कमाने के पीछे जीवन-लक्ष्य के लिये आवश्यक कर्तव्यों की उपेक्षा क्यों? कुत्ते द्वारा सूखी हड्डी चबाये जाने पर अपने ही जबड़ों का रक्त पाकर उसे जो प्रसन्नता होती है, वैसा ही अनुकरण इन्द्रिय-वासना के लिये जीवन-तत्त्व को निचोड़ते हुए करते रहने में क्या बुद्धिमतां?

अनेकों दोष दुर्गुणों और अवांछनीय क्रिया-कलापों में संलग्न जीवन क्रम से इतना मोह किस लिये? यह प्रश्न उत्पन्न होते हैं। कर्तव्य कहता है कि पुराने ढर्रे को तोड़े, इससे लड़ों और अवांछनीय को हटाओ। पर अर्जुन का मोह उस पुराने, चिर अभ्यास, चिर परिचित ढर्रे को छोड़ने, तोड़ने का साहस नहीं कर पाता और सोचता है जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दिया जाय। कर्तव्य पालन यदि इतना झंझट भरा है- आत्म जागरण का यदि इतना महँगा मूल्य चुकाना पड़ता तो उसे छोड़ ही क्यों न दिया जाय?

गीता ग्रन्थ आत्मा की इसी समस्या को सुलझाने के लिये लिखा गया है। भगवान् ने अनेक तर्कों और तथ्यों के आधार पर अर्जुन को समझाया कि यह चिर परिचित गतिविधियों कुटुम्बी, सम्बन्धियों की तरह अति निकटवर्ती और प्रिय बन गई है, फिर भी इन्हें हटाया जाना आवश्यक है। यदि इन्हें जहाँ के तहाँ यथावत् रहने दिया गया तो अनीति और पाप का ही दौर-दौरा बना रहेगा। साधना समर में अपने ही अज्ञान असुर से तो लड़ना पड़ता है, यदि इस संघर्ष संग्राम से इनकार किया गया तो वीर क्षत्रियों को मिलने वाले श्रेय और स्वर्ग से वंचित रहना पड़ेगा। कर्तव्य धर्म के साथ संघर्ष जुड़ा हुआ है। यदि संघर्ष से मुख मोड़ना है तो कर्तव्य धर्म भी छोड़ना पड़ेगा। अतएव अर्जुन चिर-परिचितों का चिर-सहचरों का मोह छोड़ और वह कर जिससे श्रेयस् की साधना सम्पन्न होती है।

आत्म-बल उपलब्ध करने की साधना करने वाले हर साधक को अर्जुन का अनुसरण करते हुए अग्नि परीक्षा में होकर गुजरना होता है। उसे सबसे पहला काम आत्म-निरीक्षण द्वारा अपनी दुष्प्रवृत्तियों और मूर्खताओं का निराकरण करना होता है। जो गतिविधियाँ शरीर और मन को प्रसन्नता दे पर आत्मा को भूखा मारे, उन्हें मूर्खता नहीं तो और क्या कहा जाय? जो प्रवृत्तियाँ नश्वर संसार की विनोदात्मक हलचलों में रस लेने के लिये प्रेरित करती रहे- उसके लिए कुकर्म करने तक के लिये फुसलाते रहे आत्मा को नारकीय यातनाएँ सहने को विवश करे, उन्हें मूर्खता नहीं तो और क्या कहें? विवेक भूमिका में जागृत आत्मा यदि अपनी मूर्खताओं को भी न हटा सका तो उसके जागरण का आखिर प्रयोजन ही क्या रहा?

आत्म-बल वे उपार्जित करते हैं जो आत्म समीक्षा और आत्म-सुधार के लिये अपनी चिर अभ्यस्त गतिविधियों को उलट-पुलट डालने का साहस कर सकें और इस मार्ग में जो उपहास, विरोध, कष्ट एवं अवरोध सहना पड़े, उसे

न्यायाधीशों ने महात्मा सुकरात को मौत की सजा सुनाई। उपस्थित जनता यह देखने को उत्सुक थी कि मौत की सजा का सुकरात पर क्या असर होता है। सरकारी कर्मचारियों ने सुकरात से पूछा- “महात्मा! आपकी कौन सी इच्छा है, जिसे आप मरने से पहले पूरा करना चाहते हैं।”

सुकरात मुसकराये और बोले- “ अब मैं मरकर उलझनों से छुटकारा पाना चाहता हूँ। मैं उन लोगों से बहुत प्रसन्न हूँ, जिन्होंने मुझे मौत की सजा दी। मेरी इच्छा है कि जब मेरे बच्चे बड़े हो जाएँ तब यदि वे सत्य के बजाय वैभव या अन्य कोई वस्तु खोजें तो उन्हें कड़े से कड़ा दंड देने की व्यवस्था की जाय।”

धैर्यपूर्वक सहन कर लें। भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के लिए- सम्पत्तियों और विभूतियों से सुसम्पन्न बनने के लिये आत्म बल आवश्यक है। उसकी उपयोगिता हमें जाननी ही चाहिये और इस संसार के इस एकमात्र सार तत्त्व को प्राप्त करने के लिये कुछ उठा न रखना चाहिये। संसार के सारे वैभव आत्म-बल की तुलना में तुच्छ हैं। जिसके पास आत्म बल है वही आत्म-भूमिका में जागृत हुआ जीवन युक्त नर नारायण है। जो आत्म-बल सम्पन्न है, उसके लिये इस संसार में कुछ ऐसा कुछ नहीं जिसे असम्भव कहा जा सके।

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