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Magazine - Year 1969 - Version 2

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Language: HINDI
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सज्जनता और मधुर व्यवहार-मनुष्यता की पहली शर्त

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(प. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित)

(‘अशिष्टता न कीजिए पुस्तिका का एक अंश)

किसी के भीतर क्या है, इसका परिचय उसके व्यवहार से जाना जा सकता है। जो शराब पीकर और लहसुन खाकर आया होगा, उसके मुख से बदबू आ रही होगी। इसी प्रकार जिसके भीतर दुर्भावनायें, अहंकार और दुष्टता का ओछापन भरा होगा, वह दूसरों के साथ अभद्रतापूर्ण व्यवहार करेगा। उसकी वाणी से कर्कशता और असभ्यता टपकेगी। दूसरे से इस तरह बोलेगा जिससे उसे नीचा दिखाने, चिढ़ाने, तिरस्कृत करने और मूर्ख सिद्ध करने का भाव टपके। ऐसे लोग किसी पर अपने बड़प्पन की छाप नहीं छोड़ सकते, उल्टे घृणास्पद और द्वेष भाजन बनते चले जाते हैं। कटु वचन मर्म बेधी होते हैं, वे जिस पर छोड़े जाते हैं, उसे तिलमिला देते हैं और सदा के लिए शत्रु बना लेते हैं। कहते हैं कि ‘तीर का घाव भर जाता है, पर बात का घाव नहीं भरता’ यह कहावत बहुत उदार लोगों को छोड़कर सर्वसाधारण के सम्बन्ध में सोलह आने सच है। कटु-भाषी निरन्तर अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाता है और मित्रों को घटाता चला जाता है। किसी के मन में उसके प्रति आदर नहीं रह जाता। आश्रित परिवार के सदस्यों और कुछ स्वार्थ सिद्ध के लिये कानाफूसी करने वालों के अतिरिक्त और किसी की उनमें दिलचस्पी नहीं रह जाती। उद्धत स्वभाव के व्यक्ति अपना दोष आप भले ही न समझें, दूसरे लोग उन्हें बहुत उथला हलका मानते हैं और उदासीनता, उपेक्षा का व्यवहार करने लगते हैं। समय पड़ने पर ऐसा व्यक्ति किसी को अपना सच्चा मित्र नहीं पाता और आड़े वक्त उसके काम नहीं आता है। सच तो यह है कि मुसीबत के वक्त वे सब लोग प्रसन्न होते हैं, जिनको कभी तिरस्कार सहना पड़ा था। ऐसे अवसर पर वे बदला निकालने और कठिनाई बढ़ाने की ही घात सोच सकते हैं।

हमें संसार में रहना है तो सही व्यवहार करना भी सीखना चाहिये। सेवा सहायता करना तो आगे की बात है पर इतनी सज्जनता तो हर व्यक्ति में होनी ही चाहिये कि जिससे वास्ता पड़े उससे नम्रता, सद्भावना के साथ मीठे वचन बोलें और थोड़ी-सी देर जब कभी किसी से मिलने का अवसर आवे, तब शिष्टाचार बरतें। इसमें न तो पैसा व्यय होता है, न समय। कितने समय में कटु वचन बोले जाते हैं और अभद्र व्यवहार किया जाता है उससे भी कम समय में पीछे और शिष्ट तरीके से भी बरता जा सकता है। जो बात कड़ेपन और रुखाई के साथ कही गई थी, उसे ही मिठास के साथ भी उतनी ही देर में कहा जा सकता है। उद्धत स्वभाव दूसरों पर बुरी छाप छोड़ता है और उसका परिणाम कभी न कभी बुरा ही निकलता है। अकारण अपने शत्रु बढ़ाते चलना, कुछ बुद्धिमानी की बात नहीं। इस प्रकार के स्वभाव का व्यक्ति अन्ततः घाटे में ही रहता है। जिसके साथ दुर्व्यवहार किया गया, अप्रसन्न केवल वही नहीं होता वरन् जिनने उस प्रसंग को देखा, सुना है वे भी दुःखी और असन्तुष्ट होते हैं। उद्धतता के ओछेपन की बुरी छाप उन सुनने, देखने वालों पर भी पड़ती है और उनके मन में भी ऐसा व्यक्ति हेय स्तर का ही जँचता है। ऐसे लोग किसी का सच्चा सम्मान नहीं पा सकते और उसके बिना सहयोग भी किसे मिलता है। एकाकी मनुष्य जिसे दूसरों का सहयोग न मिल सके, वह कभी कोई बड़ी प्रगति न कर सकेगा।

श्रेष्ठ, उदार और सज्जन प्रकृति के मनुष्य सदा दूसरों का आदर करते हैं और हर किसी से सम्मान और मिठास भरे शब्द बोलते हैं। इसमें उनका जाता कुछ नहीं-अपने बड़प्पन की छाप ही दूसरों पर पड़ती है। उद्धतता से नहीं, सज्जनता से हम दूसरों का आदर पा सकते हैं, उन्हें अपना बना सकते हैं और ऐसे ही शिष्ट व्यवहार की आशा उनसे भी कर सकते हैं। सज्जनता में ही मनुष्य का वास्तविक बड़प्पन छिपा है और उसका प्रमाण मीठे वचन और शिष्ट व्यवहार से ही पाया जा सकता है। यह संसार कुएँ की आवाज की तरह प्रतिध्वनि करता है। जैसा व्यवहार हम दूसरों के साथ करते हैं, लगभग उसी स्तर की प्रतिक्रिया उनसे हमें प्राप्त होती है। कटुवादी, अहमन्यता और तिरस्कार का व्यवहार करने वाले लगभग वैसा ही व्यवहार बदले में पायेंगे। हो सकता है तत्काल किसी कारणवश लोग वैसा ही बरताव न करें पर उनके मन में वही आवेश दूने-चौगुने वेग से अवश्य ही उठ रहे होंगे। अच्छा होता वे लड़ाई-झगड़े के भय से तत्काल निकल जाते पर यदि वे दवे पड़े रहे तो कालान्तर में ब्याज समेत छूटेंगे, तब और भी अधिक घात सिद्ध होंगे। कटु व्यवहार की बुरी प्रतिक्रिया जो दूसरों पर होती है, वह लौटकर अन्ततः अपने ही ऊपर जाती है। हम दूसरों को तिरस्कृत, अपमानित करके वस्तुतः अपने को ही तिरस्कृत, अपमानित करते हैं। अपने ही ओछेपन और निकृष्ट व्यक्तित्व को दुनियाँ के सामने प्रसिद्ध करते हैं।

सज्जनता मनुष्यता का ही दूसरा नाम है। जिसमें सज्जनता नहीं उसे नर-पशु हो कहना पड़ेगा। हम सच्चे अर्थों में मनुष्य है, उसको प्रमाणित करने के लिए हमें सज्जनता की रीति-नीति अपनानी चाहिये। इसका प्रारम्भ मधुर भाषण और विनम्र एवं शिष्ट व्यवहार से होता है। छोटे-बड़े या दुष्ट-दुराचारी किसी से भी बात करनी है, हमें यह नहीं भूल जाना चाहिये कि कटु या ओछे वचन बोलकर जहाँ उसे तिरस्कृत करते हैं, वहाँ अपने को भी ओछा सिद्ध करते हैं। हमें पहले अपनी चिंता करनी चाहिये। अपना स्वभाव स्तर और अभ्यास गिराकर यदि किसी भी भर्त्सना की गई तो वह अपने लिये ही महंगी पड़ेगी। दूसरे लोग गंदे हैं, इसलिये हम क्यों गंदे बनें। हमें अपना स्तर हर हालत में ऊँचा उठाये रहना चाहिये और जिससे भी-जो कुछ भी कहना हो-उसे कहें तो पर सज्जनता और शिष्टता की भाषा में ही बोलें। अच्छे शब्दों में भी हर बुरी-भली बात कही जा सकती है। इस कला को सीख लेना भलमनसाहत का पहला चिह्न है।

घर में छोटों से भी ‘आप’ या ‘तुम’ कहकर बोलना चाहिये। जहाँ आवश्यकता हो वहाँ नाम के आगे ‘जी’ भी लगाना चाहिये। ‘तू’ कहना अति निकटवर्ती स्त्री, पुत्र, पौत्र आदि के लिए चलता है। इसमें आत्मीयता का पुट माना जाता है। पर इसमें दोष अपनी आदत बिगड़ने का है। दूसरे वे लोग जिन्हें ‘तू’ से सम्बोधन किया जाता है, देखा-देशी दूसरों से भी वैसा ही कहने लगेंगे आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य मात्र एक दूसरे को आयु, शिक्षा, धन अथवा पद का विचार किये बिना एक दूसरे के प्रति नम्रता और आदर भरा व्यवहार एवं वार्तालाप करें।

जब हम किसी से मिलें या कोई हमसे मिले, प्रसन्नता व्यक्त की जानी चाहिये। मुसकराते हुए अभिवादन करना चाहिये और बिठाने-बैठने कुशल समाचार पूछने और साधारण शिष्टाचार बरतने के बाद आने का कारण पूछना बताना चाहिये। यदि सहयोग किया जा सकता हो तो वैसा करना चाहिये अन्यथा अपनी परिस्थितियाँ स्पष्ट करते हुए सहयोग न कर सकने का दुःख व्यक्त करना चाहिये। इसी प्रकार यदि दूसरा कोई सहयोग नहीं कर सका है तो भी उसका समय लेने और सहानुभूति रखने के लिये धन्यवाद देना चाहिये तथा नाराजी अथवा अविश्वास उस हालत में भी व्यक्त नहीं करना चाहिये, साधारण पूछताछ का उत्तर भी मीठे और सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में ही देना चाहिये। रूखा, कर्कश, उपेक्षापूर्वक, अथवा झल्लाहट, तिरस्कार भरा उत्तर देना ढीठ और गँवार को ही शोभा देता है। हमें अपने को इस पंक्ति में खड़ा नहीं करना चाहिये।

बड़े जो व्यवहार करेंगे बच्चे वैसा ही अनुकरण सीखेंगे। यदि हमें अपने बच्चों को अशिष्ट, उद्दण्ड बनाना हो तो हमें असभ्य व्यवहार की आदत बनाये रहनी चाहिये अन्यथा औचित्य इसी में है कि आवेश, उत्तेजना, उबल पड़ना, क्रोध में तमतमा जाना, अशिष्ट वचन बोलना और असत्य व्यवहार करने को दोष अपने अन्दर यदि स्वल्प मात्रा में हो तो भी उसे हटाने के लिये सख्ती के साथ अपने स्वभाव के साथ संघर्ष करें और तभी चैन लें, जब अपने में सज्जनता की प्रवृत्ति का समुचित समावेश हो जाय।

हम अपनी और दूसरों की दृष्टि में सज्जनता और शालीनता से परिपूर्ण एक श्रेष्ठ मनुष्य की तरह अपना आचरण और व्यक्तित्व बना सकें तो समझना चाहिये कि मनुष्यता की प्रथम परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये। उसके आगे के कदम नैतिकता, सेवा, उदारता, संयम, सदाचार, पुण्य, परमार्थ के हैं। इससे भी पहली एक अति आवश्यक शर्त यह है कि हम सज्जनता की सामान्य परिभाषा समझें और अपनाये जिसके अंतर्गत मधुर भाषण और विनम्र शिष्ट एवं मृदु व्यवहार अनिवार्य हो जाता है।

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