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Magazine - Year 1969 - Version 2

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परमात्म-सत्ता की इच्छा-शक्ति-आकाश-तत्त्व

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आकाश शून्य है पर फैला नहीं। भारतीय तत्त्वदर्शन (फिलॉसफी) वैदिक काल से ही मानता और जानता रहा कि आकाश एक महत्त्वपूर्ण शक्तिशाली तत्त्व है। शेष 4 तत्त्व वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी क्रमशः आकाश के ही स्थूल रूप हैं। आकाश-तत्त्व ईश्वर या आत्मा की निकटता की दृष्टि से सर्वप्रथम है इसलिये उसकी शक्ति, ध्यान, फल भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। योग चूड़ामण्युपनिषद में कहा गया है-

तस्माज्जता परा शक्तिः स्वयं ज्योति रात्मिका

आतमन् आकाशः संभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भयः पृथिवी। तेषाँ मनुष्यादीनाँ पंचभूत समवायः शरीरम्।

ब्रह्म से स्वयं प्रकाश रूप आत्मा की उत्पत्ति हुई। आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन पाँचों तत्त्वों से मिलकर ही मनुष्य-शरीर की रचना हुई है।” यह पाँच तत्त्व ही मिलकर शरीर के स्थूल और सूक्ष्म अवयवों का निर्माण करते हैं। इन तत्त्वों की स्थिति ही क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म होती गई है। पृथ्वी से शरीर का विकास होता है। अग्नि से दृश्य की अनुभूति होती है। वायु से शरीर में प्राणों का संचार होता है गति एवं चेतनता आती है। आकाश-तत्त्व इन सब से सूक्ष्म अदृश्य एवं नियन्त्रक है। विचार, भावनायें और विज्ञान उसी से प्रादुर्भूत होता है। शरीर के पोले भाग में भी यह आकाश-तत्त्व ही भरा हुआ है। उसकी शुद्धि से विचार और भावनाएँ ऊर्ध्वगामी होती हैं। यह पाँच कोश हैं, पाँच महातत्व हैं इनसे ही शरीर का निर्माण हुआ है और बाहर जो कुछ दिखाई देता है उस संसार का विस्तार भी इनसे ही हुआ है। इन पाँच आवरणों के बीच में ब्रह्म छुपा बैठा है ऐसी भारतीय तत्त्वदर्शन की मीमांसा है।

एक समय आया जब पाश्चात्य सभ्यतावादी और प्रारम्भिक स्तर के वैज्ञानिकों ने इस तत्त्व-दर्शन को अस्वीकार ही नहीं कर दिया वरन् उसका उपहास भी उड़ाया। लोगों ने कहा कि ग्रह-उपग्रहों के बीच में ब्रह्माण्ड का करोड़ों-करोड़ मील क्षेत्र पोला नहीं तो और क्या है। वह तो स्पष्ट ही दिखाई दे रहा है। जो वस्तु है ही नहीं वह शरीर रचना में भाग भी कैसे ले सकती है। इस तरह की बातों से भारतीय तत्त्वदर्शन को वाक्जाल कहकर उसे सब तरफ से अपदस्थ करने का प्रयत्न किया गया।

इस भ्रान्त धारण पर प्रहार सर्व प्रथम 12 दिसम्बर 1901 में रेडियो संसार के अन्वेषणकर्ता मारकोनी ने किया। उन्होंने इंग्लैण्ड के पोल्डू नामक स्थान में एक अल्प विकसित संप्रेषण यन्त्र (ट्रान्समीटर) लगाया और एक संग्राह्य यन्त्र (रिसेप्शन) लेकर अमेरिका के न्यूफाउण्डलैण्ड पहुँचे। उनका कहना था कि वायु-मण्डल से भी ऊँचाई पर भी कोई ऐसी व्यवस्था है जो रेडियो तरंगों को परावर्तित कर सकती है। इस कल्पना का अन्य वैज्ञानिकों ने ठीक उसी तरह उपहास किया जिस तरह भारतीय तत्त्वदर्शन को ठुकराने का प्रयत्न किया गया था, तब रेडियो संचार व्यवस्था का स्थापना काल था। मारकोनी के पास कोई विकसित यन्त्र न थे। एरियल का तब विकास नहीं हुआ था, इसलिये इंग्लैण्ड से प्रेरित होने वाले संकेतों को पकड़ने के लिये धातु के तार से उड़ने वाली पतंग को एरियल बनाया गया। उस पतंग को 400 फीट ऊँचे उड़ाकर संग्रह यन्त्र (रिसीवर) से उसका सम्बन्ध जोड़ दिया गया। ठीक 12॥ बजे मारकोनी ने ही नहीं अनेकों वैज्ञानिकों ने भी इंग्लैण्ड से प्रसारित होने वाले तीन बिन्दुओं के संकेत सुने तो लोगों को मारकोनी के प्रमाणों के सम्मुख सिर झुकाना पड़ा और इस तरह पहली बार विश्व के बुद्धिमान् लोगों ने यह माना कि वायुमण्डल के अतिरिक्त भी कोई शक्ति तरंगें विद्यमान् हैं। आकाश-तत्त्व की जानकारी का यह श्रीगणेश मात्र था।

सूर्य के 11 वर्षीय चक्र के अनुसार सन् 1872 और 1889 में पृथ्वी पर दो भयंकर चुम्बकीय तूफान (मैगनेटिक स्टामर्सस) आये थे तब भी डा. स्टुअर्ट और डा.शूस्टर ने इस तरह का प्रतिपादन किया था पर वह प्रामाणिकता के अभाव में सिद्ध न किया जा सका, पर मारकोनी के प्रयोग ने वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिये एक नई दिशा दी। इसके बाद इंग्लैण्ड के हैवी साइड और अमरीका के वैज्ञानिक डा.कैनेली ने इस विज्ञान को आगे बढ़ाया और अनेक प्रयोगों से यह सिद्ध किया कि आकाश में विद्युत कणों की परतें हैं इन्हें उन्होंने अपने नाम पर “कैनेली हैवी साइड परत” का नाम दिया। इसके बाद डा.ब्रीट, ट्यूब और डा.एडवर्ड एपल्टन आदि ने इस खोज को जारी रख कर यह सिद्ध किया कि आकाश में विद्युत कणों की ऐसी अनेक परतें हैं। इन अनेक परतों को “अयन मण्डल” (आइनोस्फियर) के नाम से पुकारा गया और तब से आइनोस्फियर सम्बन्धी एक स्वतन्त्र साइन्स बन गई है।

आकाश-तत्त्व की व्याख्या करते हुये महर्षि वशिष्ठ लिखते हैं-

चिंताकाशं चिदाकाशं माकाशं च तृतीयकम्। दाभ्याँ शून्यतरं विद्धि चिदाकाशं वरानने॥

देश देशान्तर प्राप्तौ सविदो मध्यमेव यत्। निमेषेण चिदाकाश तद्विद्धि वस्वर्णिनि॥

तस्मिन्निरस्तनिः शेषसंकल्पस्थिति मेषि चेत्। सर्वात्मकं पदं तत्वं तदाप्नाष्यसशयम्॥

चित्ताकाश चिदाकाश याकाश च तृतीयकम्। विद्दयेतत्मयमेकं त्वमविनाभावनावशात्॥

-योगवाशिष्ठ 3/17/10,12,13,19

अर्थात्-आकाश नाम का व्यापक तत्त्व आकाश, चित्ताकाश और चिदाकाश तीन रूपों में सर्वत्र व्याप्त है। चिदाकाश जो ज्ञान का आश्रय है सबसे सूक्ष्म है। एक विषय से दूसरे विषय की प्राप्ति के मध्य में क्षण भर का जो अवकाश अनुभव में आता है वह चिदाकाश ही है। केवल वही संकल्प रहित है उसमें स्थिर हो जाने से आत्मा परम तत्त्व या परमपद की प्राप्ति होती है। यह तीनों आकाश एक ही तत्त्व के त्रिगुणात्मक रूप हैं।

आकाशतत्त्व के उपरोक्त विश्लेषण से यह पता चलता है कि ईश्वरीय सत्ता के सबसे समीप तत्त्व आकाश ही है उसमें विराट् जगत् की सर्व व्यापकता समाहित है। अयन मण्डल की खोजों के परिणाम स्वरूप जो निष्कर्ष सामने आये हैं उनमें से भी ऐसे ही अनेक रहस्यों का उद्घाटन होता चला आ रहा है। अयन मण्डल बृहस्पति पर वलय की भाँति पृथ्वी को सभी ओर से घेरे हुये हैं या यों कहें हम हमारी पृथ्वी आकाश में स्थिति है। इस आयन मण्डल (आयनोस्फियर) में विद्युत कणों की अनेक नियमित-अनियमित परतें हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार भी उनमें से तीन प्रमुख हैं। इन परतों को एयल्टन ने “ई”, “एफ” और “डी” परतों का नाम दिया। धरती की ऊँचाई पर जहाँ वायुमण्डल का दबाव कम है वहाँ विचरण करने वाले अणु और परमाणु अपने अणु (इलेक्ट्रान) खो देते हैं। इलेक्ट्रानों के तोड़ने की यह क्रिया सूर्य सम्पन्न करता है-यह क्रियाशीलता जिस सीमा तक तीव्र होती है, अयन मण्डल उतनी ही तीव्रता से पृथ्वी में जलवायु आदि का नियन्त्रण करता है। यही नहीं वह लोगों के मन, हृदय और गुणों को भी प्रभावित करता है। यह कार्य वह केन्द्रक शक्ति करती है जो इलेक्ट्रान के खो जाने के पश्चात् शेष रहती है। इसी से पता चलता है कि केन्द्रक- कोई मनोमय शक्ति है।

एक निश्चित सीमा के बाद इन कणों की तीव्रता घटने लगती है। वायु-मण्डल का जितना दबाव बढ़ता जाता है अयन मण्डल का सूक्ष्म प्रभाव घटता जाता है और पृथ्वी पर पहुँचते-पहुँचते उनकी सक्रियता में पृथ्वी के धूल और गैसें आदि के कण भी मिल जाते हैं जिससे उनका प्रभाव कम होने लगता है। अधिक ऊँचाई पर अधिक स्वच्छ वायु से स्वास्थ्य पर जो प्रभाव पड़ता है उससे भी अधिक महत्व इन सूक्ष्म कणों द्वारा चित्त को प्रसन्नता देने का है। हम जितना ऊपर उठते हैं उतना ही हमारी प्रसन्नता और अन्य गुण विकसित होते हैं। यह आकाश तत्त्व की ही सूक्ष्म सक्रियता है।

विज्ञान की यह खोज प्रारम्भिक स्तर की है। अब यह निरन्तर गहराई की ओर बढ़ रही है। कुछ समय पूर्व तक अयन मण्डल को सूर्य से आभासित होने वाले कणों का ही आश्रय मानते थे किन्तु हाल ही में गैलेक्सी के केन्द्रीय क्षेत्र (विशाल नारा) विश्व जिसमें सूर्य जैसे कोई 10 खरब और अब तक सिद्धांतत ज्ञात कुल तारों की संख्या 10&24 (दस घात चौबीस) है। इस विस्तार को गैलेक्सी कहते हैं। इसका अध्ययन करने वाले कुछ प्रमुख ज्योतिषी भौतिकशास्त्रियों (एस्ट्राफिजिसिस्ट्स) ने यह बताया कि इस केन्द्रीय क्षेत्र में कणों का विघटन तेजी से होता है। यह कण जो दिखाई नहीं देते वह अनेक तारों से निकल कर आते हैं और प्लाज्मा के रूप में उनसे अलग होकर पोला दीखने वाले क्षेत्र में अनेक प्रकार के क्षेत्र बनाते हुये फैल जाते हैं। विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र और गुरुत्वाकर्षण जैसी महत्त्वपूर्ण क्रियायें उसी से सम्पन्न होती हैं। यह आयनी करण कृत (आइनोस्फेरिक प्लाज्मा) ही सारे सौर जगत में विचरण करता रहता है। लाखों वर्षों से विचरण करते-करते यह कण भूल गये हैं कि वे कहाँ से आये हैं और इस तरह विभिन्न विचारों प्रक्रियाओं घटनाओं, दृश्यों वाला हलचल पूर्ण जगत आ गया है। यह पदार्थ निरन्तर हलचल में रहता है। ये भूले हुये कण ही कास्मिक किरणों के रूप में पृथ्वी की ओर भी आते रहते हैं। इन कणों में उच्च गति वाले प्रोटान, उन तत्त्वों के परमाणु आदि होते हैं, उनमें बहुत अधिक ऊर्जा होती है। इसलिये वह जैसे ही वायु मण्डल में प्रवेश करते हैं यहाँ की वायु में हलचल पैदा कर देते। उससे फैले हुये वायु शाबरों (एक्सेन्डेट एअर साबर्स) का निर्माण होता है। इस तरह हम देखते हैं कि आकाश जो अनेक गुण, प्रकृति वाले कणों का समुद्र-सा है वही पृथ्वी की स्थूल हलचल का कारण है।

योग ग्रन्थों में जो वर्णन मिलते हैं उनसे पता चलता है कि उन्होंने आकाश तत्त्व का ज्ञान उसी प्रकार प्राप्त किया था जिस तरह आज के वैज्ञानिकों ने परमाणु का। आकाश परमाणु से भी सूक्ष्म है इसलिये उस शक्ति का कोई पारावार नहीं। योग कुंडल्युपनिषद् में षट्चक्रों का वर्णन करते हुये बताया है कि शरीर में आकाश तत्त्व का प्रतिनिधि चक्र विशुद्धास्थ कण्ठ में स्थित है। धूम्रवर्णा का एक तत्त्व उसमें भरा है उसका ध्यान करने से चित-शान्ति त्रिकाल दर्शन, दीर्घ जीवन, तेजस्विता एवं सर्वहित-परायणता का आत्मा में विकास होना है। योग-सूत्र (3-17) में उससे “भूतरुत ज्ञानम्” अर्थात् आकाश की तन्मात्रा पर अधिकार हो जाने पर प्राणिमात्र की भाषा समझ लेने की शक्ति आने का उल्लेख है। यह भाषा चाहे कोई जर्मनी बोले अँगरेजी, उड़िया या तमिल। शब्द का मूल भाव और भावनाओं के स्पन्दन अपनी-अपनी तरह के होते हैं शब्द तो उन्हें केवल व्यक्त करते हैं। आकाश तत्त्व की संसिद्धिं से स्थूल शब्दों को न जानने पर भी उनका अर्थ ज्यों का त्यों समझ लिया जाता है। श्रोत्राकाशयोः संयभाद् दिव्यं श्रोतम् (भवति) योगसूत्र (3-41) में इसी तत्त्व दर्शन का संकेत किया गया है। जिन दिव्य-ध्वनियों को आज तक विज्ञान नहीं पकड़ सका आकाश तत्त्व के वशित्व द्वारा उन्हें भारतीय योगियों ने करोड़ों वर्ष पूर्व ही जान लिया था। दूर से दूर की आवाज को भी वे परस्पर वार्तालाप की तरह सुन सकते थे। यह सब आकाश स्थित ज्ञानवाहक सूत्रों का मनुष्य-शरीर स्थित ज्ञानवाहक सूत्रों में परस्पर सम्बन्ध के द्वारा हो सम्भव होता था। ऐसे अनेक तन्मात्रा वाले परमाणु आकाश में भरे पड़े हैं उनका ज्ञान अब वैज्ञानिकों को भी हो चला है।

कोई 32 वर्ष पूर्व दो वैज्ञानिकों कोक्राफ्ट और वाल्टन ने एक एक्सीलेटर का निर्माण कर यह बताया कि उससे दस लाख इलेक्ट्रान बोल्ट की ऊर्जा (विद्युत + प्रकाश और ताप) के कण उत्पन्न किये जा सकते हैं। इसी क्रम में सायग्लोट्रान और बीटाट्रान का निर्माण हुआ उनसे डेढ़ करोड़ इलेक्ट्रान बोल्ट की ऊर्जा वाले कण उत्पन्न किये जा सकते हैं। इतनी शक्ति वाले एक्सीलेटर ही पृथ्वी की मोटरों से लेकर विशाल अन्तरिक्ष यानों को ढोकर कहीं का कहीं पहुँचा देते हैं। बाद में रूस और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने अनेक अनुसन्धानों के आधार पर बताया कि प्रकृति में अपने आप बहुत ऊर्जा वाले कण विद्यमान् है। उन्होंने ‘कास्मिक’ किरणों में पाये जाने वाले ‘मेसान हायपरान’ आदि अस्थिर कणों को पकड़ कर उनकी प्रकृति और गुणों का प्रयोगशाला में अध्ययन कर बताया कि उनमें इतनी अधिक ऊर्जा है जितनी एक्सीलेटरों के द्वारा कभी पैदा भी नहीं की जा सकती। वायु शावरों (एयर शावर्स) के विस्तृत अध्ययन के बाद यह पाया कि उनमें लाखों-करोड़ों ऐसे उच्च ऊर्जा वाले कण विद्यमान् हैं जिनकी हजारवें हिस्से की ही शक्ति से अन्तरिक्ष यान जैसे विशाल भार को चन्द क्षणों में ही किसी भी ग्रह-नक्षत्रों तक पहुँचाया जा सकता है। ऐसे कणों में इलेक्ट्रान और प्रोट्रान कण भी सम्मिलित हैं। जब ब्रह्माण्ड किरणों (कास्मिक रेंज) वायुमण्डल पर पहुँचती है तो उन्हीं के द्वारा अनेक प्रकार के भौतिक पदार्थों की रचना सम्भव होती है। उन भौतिक पदार्थों की मानसिक प्रक्रिया का भी अध्ययन अब सम्भव हो पाया है और वैज्ञानिक यह विश्वास करने लगे हैं कि स्थूल पदार्थों और शरीर के कणों में भी वह तत्त्व बीज रूप से विद्यमान् है जो सृष्टि के आविर्भाव काल से ब्रह्माण्ड अस्तित्व में है। विचारों की तरंगें वहीं पैदा करते हैं। अभी तो नहीं पर एक दिन निश्चित रूप से वैज्ञानिक यह मानने के लिये विवश होंगे कि यह विचार-तरंगें निरर्थक नहीं वरन् किसी संकल्प और गणितीय नियमों में सधे हुये होते हैं। तात्पर्य यह है कि ब्रह्माण्ड में देवताओं या ईश्वर जैसी चेतन शक्तियाँ विद्यमान् है और उनसे मानसिक संपर्क स्थापित कर अनेक तरह की सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं।

आकाश में ऐसी तरंगें उत्पन्न करने वाले कण इतने सूक्ष्म होते हैं कि उनका जीवन काल 2.2&10-6 सेकेण्ड का होता है अर्थात् अस्तित्व में कब आते हैं और कब नष्ट हो जाते हैं इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। यह कण धन और ऋण दोनों आवेशों वाले होते हैं, उनकी संगति, विचार और भावनाओं के त्वरित निर्माण से स्पष्ट मेल खा जाती है। हम जिस देवता की ध्यान धारणा करते हैं उसी तरह की क्षमताओं से सम्पन्न होने का रहस्य अपने अन्दर इस तरह के अत्यन्त सूक्ष्म करोड़ों टन वाली ऊर्जा के कणों का संचय ही है। जो शक्तियाँ जितनी बलवती होती हैं वह उतनी ही अधिक सिद्ध और सामर्थ्य अपने उपासक को दे जाती है। आत्मा और परमात्मा की शक्तियाँ इस तरह की मानी गई हैं। यह वस्तुतः नाभिकीय चेतनाएँ (न्यूक्लियर एक्टिविटीज) हैं इनका कारण क्यू-मेसान न्यूट्रिनो और पाई मेसान जैसे अत्यन्त सूक्ष्म कणों में से कोई हो सकते हैं। गैलेक्सी के चुम्बकीय क्षेत्र भी इन पर प्रभाव नहीं डाल सकते। इनकी क्रियायें बड़ी स्वतन्त्र हैं। आज-कल आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक इन आकाश-कणों की बड़ी तत्परतापूर्वक खोज करने में संलग्न है।

बम्बई के टाटा इंस्टीट्यूट के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा०. प्राइस ने अपनी हाल की खोजों में यह पता लगाया कि ब्रह्माण्ड-किरणों और अन्य ऊज्वैसित कण जब ठोस पदार्थों से गुजरते हैं तो वे उसमें अपना स्थायी प्रभाव छोड़ जाते हैं। इस छोड़े हुये प्रभाव को अब सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से देखा जाना सम्भव हो गया। डा०. प्राइस का कहना है कि जड़ पदार्थों में करोड़ों वर्ष पूर्व से विद्यमान् इन चेतन किरणों का प्रभाव अभी भी विद्यमान् हैं। उसके आधार पर कहीं भी बैठकर ब्रह्माण्ड में हो चुकी या अब जो हो रही है और सम्भव हुआ तो आगे करोड़ों वर्ष तक घटित होने वाली घटनाओं का दृश्य देखा जा सकेगा। यह स्थिति त्रिकाल दर्शन की नहीं तो और क्या होगी? उसी बात को आकाश तत्त्व से प्राप्त करने की बात भारतीय तत्त्ववेत्ता कहते हैं तो उससे इनकार क्यों किया जाता है? यह ब्रह्माण्ड किरणें भी कोई अधिक नहीं हैं। जिस तरह आकाश में तीन ही प्रकार के सूक्ष्म कण (ऊपर बताये गये) पाये जाते हैं उसी प्रकार इस तरह चिर प्रभाव वाली ब्रह्माण्ड किरणों की संख्या बहुत थोड़ी है, यह बात डा०. प्राइस भी मानते हैं।

विज्ञान की गहराई की तरह आकाश की गहराई भी अनन्त है, उसकी शक्तियाँ अनन्त हैं, सिद्धियाँ अनन्त हैं, अभी तक उनका कोई वैज्ञानिक उपयोग सम्भव नहीं हुआ किन्तु “इनके अध्ययन से मानव प्रकृति के आन्तरिक गूढ़तम रहस्यों में प्रवेश कर सकेगा। इनके अध्ययन से एक ओर तो माइक्रोकोरम के महत्त्वपूर्ण गुणों पर प्रकाश पड़ेगा तथा वायु शावरों का अध्ययन हमारी गैलेक्सी में तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में होने वाली अद्भुत मेक्रोकोस्म घटनाओं को समझने में सहायक होगा।” विज्ञान-लोक अप्रैल 1965 का अन्तिम पैराग्राफ)

आकाश इन उच्च ऊर्जा और अदृश्य गुणों वाले सूक्ष्म कणों का पुँज है। उस तत्त्व से मानसिक सम्बन्ध जोड़कर ही भारतीय तत्त्वदर्शियों ने वह

शक्तियाँ, सिद्धियाँ और सामर्थ्य विकसित की है जो आज के वैज्ञानिकों के लिये संभावनाएँ मात्र हैं। हिन्दू तत्त्वदर्शन के इन अनुभवों का आधार लिया जा सके तो संसार क सभी मनुष्य उन लाभों को सुगमता से प्राप्त कर सकेंगे जो विज्ञान के द्वारा बहुत लंबे समय के बाद कुछ साधन-संपन्न लोगों को ही मिल सकेंगे।

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