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Magazine - Year 1969 - Version 2

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भिक्षा-वृति का व्यवसाय न रहने दें

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(प. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित)

(भिक्षा व्यवसाय देश, जाति का कलंक’ पुस्तिका का एक अंश)

मनुष्यता का यह सबसे बड़ा अपमान है कि समर्थ होते हुए भी व्यक्ति दूसरों के आये अपने व्यक्तिगत व्यय के लिए हाथ पसारे। स्वाभिमान, आत्म-सम्मान कष्ट और अभाव सहकर भी सुरक्षित रखा जाना चाहिए। कोई दुर्घटना अथवा आकस्मिक विपत्ति के समय आपत्ति धर्म की बात दूसरी है पर सामान्यतया यही नीति धर्म है कि मनुष्य अपने हाथ-पैर से कमा कर गुजारा करे। दूसरों के आगे हाथ न पसारे और अपने आत्म-सम्मान को न गिराये।

अपने देश में अब भिखमंगेपन ने एक सुव्यवस्थित व्यवसाय का रूप धारण कर लिया है। पिछली सरकारी जनगणना के अनुसार अपने यहाँ 56 लाख व्यक्ति भिक्षा व्यवसाय से अपनी आजीविका चलाते हैं। इसमें असमर्थ एवं अधर्मों की संख्या एक लाख से भी कम है, द्वेष सभी इस योग्य है कि अपनी आजीविका अपने श्रम द्वारा उपार्जित कर सकें। पर वे करते नहीं।

भिक्षा व्यवसाय पर निर्भर लोगों में 50 लाख व्यक्ति साधु ब्राह्मणों का भेष बनाकर विचरण करते हैं और 6 लाख अपने को दरिद्र असमर्थ बताते हैं। दोनों ही धर्मों में अधिकांश लोगों की स्थिति ऐसी नहीं है कि उन्हें भीख माँगने पर उतारू होने के अतिरिक्त कोई मार्ग न हो। भजन के लिए यह आवश्यक नहीं कि भिक्षा जीवी बनकर ही उसे किया जाय। अपनी आजीविका से निर्वाह करते हुए भजन से ही उसका उद्देश्य पूरा हो सकता है। अन्यथा ऋण भार में वह भजन भी चला जाएगा, वह बात मोटी वृद्धि से भी समझी जा सकती है। 56 लाख तो वे भिखारी हैं, जिनने अपनी एक मात्र आजीविका भिक्षा घोषित की है। ऐसे लोग जो व्यवसाय तो दूसरे करते हैं पर समय-समय पर भिक्षा का लाभ भी लेते रहते हैं, ऐसे ‘अर्थ’ भिक्षुक’ भी लगभग इतने ही होंगे। इन एक करोड़ लोगों का भार 30 करोड़ हिन्दू जनता को बहन करना पड़े। हर तीस व्यक्तियों में से एक भिक्षुक ही, यह बहुत ही बुरी बात है। इससे अपने समाज के गये-गुजरे आत्म-सम्मान का घृणित चित्र उपस्थित होता है।

प्राचीन काल में साधु ब्राह्मण भिक्षा माँगा करते थे। इसलिये कि वे अपना सारा समय लोक-मंगल के लिए समर्पित कर सकें। आत्म-शुद्धि और आत्म-समर्थता के लिए वे थोड़ा समय भजन, स्वाध्याय में लगाते थे और शेष सारा समय लोक-मंगल में लगाते थे। निज की न उनकी कोई सम्पत्ति होती थी, न आकांक्षा भजन और स्वाध्याय भी वे इसलिये करते थे कि इन माध्यमों से विनिर्मित उनका प्रखर व्यक्तित्व लोक-मंगल के लिए अधिक उपयोगी एवं समर्थ सिद्ध हो सके। भिक्षा इसलिये माँगते थे कि आजीविका उपार्जन में उनका बहुमूल्य समय नष्ट न होकर वह समाज के काम आये। ऐसे लोक -सेवी कम संख्या में होते थे, उनके पुनीत कर्तृत्व को देखकर लोग भिक्षा देते हुए भी अपने को धन्य मानते थे। उन दिनों उन हजारों-लाखों लोक-सेवी साधु ब्राह्मणों के सत्प्रयत्नों से अपना समाज हर दृष्टि से सुविकसित और समुन्नत बनता था। तब साधु ब्राह्मणों की संख्या वृद्धि राष्ट्रीय सौभाग्य की वृद्धि गिनी जाती थी।

आज परिस्थितियाँ बिलकुल उल्टी हो गई हैं। प्राचीनकाल जैसे साधु-ब्राह्मण अब इतने कम हैं कि उन्हें उँगलियों पर गिना जा सके। अधिकांश तो परिश्रम से बचने के लिए ही यह धन्धा अपनाये हुए हैं।

पचास लाख व्यक्ति रचनात्मक कार्यों में लग सके होते तो आज परिस्थितियाँ कुछ और ही रही होतीं। भारत में सात लाख गाँव है। पचास लाख साधु वेशधारी यदि उनका कायाकल्प करने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, सदाचार आदि समस्याओं को हल करने के लिए जुट पड़े तो हर गाँव के पीछे सात साधु आते हैं और वे अपने प्रयत्न से वहाँ स्वर्गीय वातावरण पैदा कर सकते हैं। साक्षरता की आवश्यकता एक-दो वर्षों में पूरी हो सकती है। गृह-उद्योग पनप सकते हैं, व्यायामशालायें, पाठशालाएँ, पुस्तकालय, सुरक्षा-दल सार्वजनिक स्वच्छता सामाजिक कुरीतियाँ, व्यसन, आलस्य आदि क्षेत्रों में आशाजनक संस्थापन और परिवर्तन देखा जा सकता है। इतने लोक-सेवियों के द्वारा देश की परिस्थितियाँ कुछ से कुछ बनाई जा सकती है। चीन की पचास लाख सेना संसार भर में आतंक पैदा करती हैं। अपने पचास लाख सन्त सारे संसार में भारतीय धर्म और संस्कृति की ध्वजा फहरा सकते हैं। पर दुर्भाग्य को क्या कहा जाय, जिसने साधु वेशधारी तो हमारे सामने खड़े कर दिये किन्तु प्राचीनकाल जैसा दृष्टिकोण और कर्तृत्व उनमें ढूँढ़े नहीं दीखता।

ऐसी दशा में क्या यह उचित है कि इतनी बड़ी जनसंख्या इस प्रकार जनता पर भार बनी बैठी रहे और अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए नाना प्रकार के प्रपंच रचती तथा मूढ़ विश्वास फैलाती हुई लोक-मानस को विकृत करती रहें। इसी प्रकार उन भिखारियों का प्रश्न है, जो काम करने में सर्वथा असमर्थ न होते हुए भी भिक्षा पर उतर आये हैं। यदि मनुष्य चाहे तो थोड़ी बहुत शारीरिक असमर्थता के बीच भी कुछ न कुछ श्रम और उपार्जन कर सकता है। इच्छा हो तो काम भी मिल सकता है और राह भी। अनिच्छा हो तो असमर्थता, अपंगता और दरिद्रता का ढोंग बनाने में अब वे भी बड़े प्रवीण हो गये हैं। ऐसे भी अनेक उदाहरण मिले हैं कि यह निष्ठुर लोग अपने बालकों के हाथ-पैर तोड़कर, आंखें फोड़कर उन्हें अपंग बना देते हैं ताकि उनके बहाने अधिक आजीविका उपार्जन हो सके।

जो सर्वथा अपंग, असहाय हैं, उनके निर्वाह का प्रबन्ध संस्थाओं अथवा सरकार को करना चाहिये। जो लोक-सेवा में संलग्न साधु-ब्राह्मण हैं, उनके निर्वाह का प्रबन्ध धर्म संस्थाओं को करना चाहिये। प्राचीनकाल में यातायात डाक, बैंक आदि का प्रबन्ध न होने से सर्वत्र मिल सकने वाली भिक्षा उपयोगी रही होगी। अब सुयोग्य लोक-सेवी साधुओं के निर्वाह का क्रम ईसाई मिशनों, पादरियों की तरह बड़ी आसानी से हो सकता है। उपरोक्त दोनों ही वर्गों के अधिकार व्यक्तित्वों को छोड़कर शेष उन सभी भिक्षुकों को निरुत्साहित किया जाना चाहिये, जो न तो लोक-सेवी है और न अपंग। प्राचीनकाल में साधु पुजते थे, इसलिये वे गुणी न होते हुए भी वेश धारण मात्र से उन्हें पूजा जाय, यह कोई तर्क नहीं। प्राचीनकाल के ब्राह्मण अपने महान् व्यक्तित्व और कर्तृत्व के कारण श्रद्धास्पद थे। वे गुण न रहने पर भी उनके वंशज वही सम्मान पायें, इसका कोई कारण नहीं। संज्ञा, कर्तृत्व है, भिक्षा अधिकार। यदि सेवा नहीं तो भिक्षा भी नहीं। यह तथ्य सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया जाय तो यह एक करोड़ लोगों की भिक्षुक एवं अर्थ-भिक्षुक जनसंख्या कुछ उपार्जन में लग सकती है। गरीब जनता पर पड़ने वाला एक भार बच सकता है। उपार्जन और श्रम से इन लोगों का आत्म-गौरव और कर्तृत्व निखर सकता है। वे अपने लिए और समाज के लिए उपयोगी व्यक्ति सिद्ध हो सकते हैं।

भिक्षा अनैतिक है। भिक्षा व्यवसायी की मनोभूमि दिन-दिन पतित होती जाती है। उसका शौर्य, साहस, पौरुष, गौरव सब कुछ नष्ट हो जाता है और दीनता मस्तिष्क पर बुरी तरह छाई रहती है। अपराधी की तरह उसका शिर नीचा रहता है। अपनी स्थिति का औचित्य सिद्ध करने के लिए उसे हजार ढोंग रचने पड़ते हैं और लाख तरह की मूढ़तायें फैलानी पड़ती हैं। यह भार जनमानस को विकृत बनाने की दृष्टि से और भी अधिक भयावह है।

हर विचारशील का कर्तव्य है कि भिक्षा व्यवसाय को निरुत्साहित करे। कुपात्रों को वाणी मात्र से भी उत्साह न दें। जिन पर प्रभाव पड़ सके, उन्हें भिक्षा छोड़ने और श्रम करने के लिए कहें। इतनी बड़ी जनसंख्या को इस अवांछनीय व्यवसाय से विरत करने के लिए हमें गम्भीरता सोचना चाहिये और उसके लिए कुछ ठोस प्रयत्न करना चाहिये।

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