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Magazine - Year 1970 - Version 2

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अपनी मान्यताओं के प्रति आस्थावान रहें

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विचारों के आधार पर ही कोई व्यक्ति प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। संसार के अधिकांश लोग, यदि उनसे बात की जाए तो बड़े अच्छे विचारों वाले ही मिलेंगे। जहां तक विचार प्रकट करने का प्रश्न है, कदाचित ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो कलुषित विचारों का प्रकाशन करे। नहीं तो सभी लोग विचारों से बड़े भद्र और आदर्शवादी ही जान पड़ेंगे। यदि किसी पेशेवर चोर से भी बात करिए तो वह विचारों में ईमानदारी की प्रशंसा करेगा। बधिक से, जोकि नित्य ही अनेक जानवरों की हत्या करता है, पूछिए तो वह भी अपने विचार अहिंसा और दया के पक्ष में ही प्रकट करेगा। किन्तु वैचारिक अस्तेयता अथवा अहिंसा के आधार पर न तो चोर ईमानदार माना जा सकता है और न बधिक दयालु। किसी व्यक्ति की प्रमाणिकता का मान दण्ड उसके विचार मात्र को नहीं बनाया जा सकता।

ऐसे साधु-सन्तों, महात्माओं की कमी नहीं है, जो लोगों को परमार्थ और शरीर संयम कर उपदेश देते नहीं चलते, किन्तु अपने आचरण में ठीक उसके विपरीत कार्य करते हैं। अपने को धर्मात्मा कहने वाले और धर्म के महत्व का बखान करते रहने वाले ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो व्यक्तिगत जीवन में पूरी तरह अधार्मिक बने रहते हैं। सत्य की महिमा बखानने वाले आए दिन झूठी गवाही देते हैं। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु” का जप करने वाले दूसरों से घृणा और उनको कष्ट देने में जरा भी संकोच नहीं करते।

साहस, धैर्य, वीरता और शौर्य को पुरुष की शोभा मानने वाले कायरता और क्लीवता का ऐसा प्रमाण देते हैं कि देखने-सुनने वालों तक को शर्म आने लगती है। यह सब उदाहरण और अनुभव स्पष्ट बतलाते हैं कि केवल विचार जानकर ही किसी व्यक्ति को प्रामाणिक अथवा महान नहीं माना जा सकता।

‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ - यह कथन केवल सूक्ति मात्र नहीं है। इसमें एक महान सत्य और वास्तविकता छिपी हुई है। दूसरों को महानता और सदाचार का उपदेश देना, बड़ी-बड़ी बातें बनाना एक बात है और उसके अनुसार आचरण करना दूसरी बात। भगवा वस्त्र धारण किए न जाने कितने साधू-संत जहाँ-तहाँ लोगों को धर्म का उपदेश देते घूमते हैं। बहुत स्थानों पर तो उनका आदर-सम्मान तक होता है। उनके वेश और बातों के प्रभाव में आकर लोग उन्हें श्रेष्ठ पुरुष मान बैठते हैं। किन्तु भेद खुलने पर उनमें से बहुत से चोर, बदमाश, ठग, धूर्त, अपराधी, हत्यारे, भागे हुए कैदी तक निकलते हैं। किसी के विचार मात्र सुनकर उसको श्रेष्ठ अथवा प्रामाणिक व्यक्ति मान लेना बुद्धिमानी नहीं है।

जो लोग ऐसा सस्ता विश्वास रखते हैं, वे प्रायः अपने विश्वास का मूल्य चुकाकर पछताया करते हैं। व्यक्ति की प्रामाणिकता तभी स्वीकार की जा सकती है, जब उसके विचारों और आचरण में एकरूपता हो। अर्थात् जो व्यक्ति जिस प्रकार के विचार प्रकट करता है, उसी प्रकार के आचरण और चरित्र का भी प्रमाण देता है, वही विश्वस्त, श्रेष्ठ और प्रामाणिक व्यक्ति माना जा सकता है।

विचारों को कार्यों का प्रेरक कहा जाता है। किन्तु सभी विचार कार्यों के प्रेरक नहीं होते। कार्यों के प्रेरक केवल वही विचार होते हैं, जो आस्था अथवा निष्ठा के रूप में परिपक्व हो जाते हैं। अस्थिर विचारों का विचारों के रूप में कोई महत्व नहीं। बहुत से लोग जीवन भर विचार तो एक प्रकार के रखते हैं, लेकिन कार्य दूसरे प्रकार के करते रहते हैं। अपरिपक्व विचार तो मस्तिष्क की साधारण प्रक्रिया मात्र ही होते हैं। जिन विचारों में दृढ़ता नहीं होती, वे जरा-सा दबाव पड़ने पर ही बदल जाते हैं। विचार व्यसनी ऐसे बहुत से पाये जाते हैं, जो आए दिन अपने पिछले विचार को नए विचार से बदलते हैं। बहुत से लोग तो एक विचार का विरोधी विचार तक ग्रहण कर लेते हैं।

पूँजीवाद के अपरिपक्व विचार रखने वाले साम्यवाद के जोरदार तर्क सुनकर साम्यवादी विचार-धारा ग्रहण कर लेते हैं। फिर कुछ ही दिन बाद पूँजीवाद के पक्ष में उससे भी जोरदार समर्थन सुनकर पुनः पूँजीवादी विचारधारा अपना लेते हैं। अपेक्षाकृत अधिक विद्वान आए दिन लोगों की विचार-धारा बदलते रहते हैं। दलों और संस्थाओं के वक्ता लोग तो आमतौर से लोगों पर अपने-अपने विचार स्थापित करते ही रहते हैं। बहुत बार तो परस्पर विरोधी विचार-धारा के लोगों के बीच रहने वाले ऐसे लोगों को, जिनके विचार निष्ठापूर्ण नहीं होते, नित्य प्रति अपने विचार बदलने पर विवश होना पड़ता है। उनके अपने विचारों में न तो कोई बल होता है, न स्थायित्व अथवा परिपक्वता। निदान किसी की भी विचार-धारा से प्रभावित होकर अपने विचार बदलते रहते हैं। ऐसे ढुलमुल विचार वाले लोग विचारक अथवा विचारशील न होकर विचार व्यसनी ही होते हैं। विचार व्यसनियों के विचार उनके किसी काम नहीं आते। आए दिन विचार बदलते रहने वाले लोग विचारों के नाम पर सदा कोरे बने रहते हैं।

बहुत से लोग अपने को आस्तिक कहते या मानते हैं। ईश्वर पर विश्वास भी रखते हैं। सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही होता है-ऐसा विचार भी रखते हैं। किन्तु जब कभी आपत्ति या कष्ट आ पड़ता है तो तुरंत समाज को, भाग्य को अथवा किन्हीं दूसरे लोगों को दोष देने लगते हैं। जरा-सी देर में उनकी वह आस्तिक विचार-धारा उखड़ जाती है। कभी ईश्वर पर भरोसा करना, कभी प्रारब्ध को मानने लगना आदि विचार परिवर्तन विचार शून्यता को ही प्रकट करते हैं।

बहुत से लोग पूजा-पाठ में बड़ा विश्वास करते हैं। उससे मन भाए फलों की आशा भी करते हैं। किन्तु जब बहुत समय तक पूजा-पाठ करते रहने पर भी उनकी मनोकामना पूरी नहीं होती तो तुरंत ही उस विचार से हटकर विपरीत विचार पर आ जाते हैं। ऐसे लोगों को कदापि आस्तिक विचार-धारा वाला नहीं कहा जा सकता।

विचार वास्तव में वही सच्चा विचार है, जो किसी भी परिस्थिति में सुरक्षित बना रहे। लोभ, लालच, आकर्षण-विकर्षण, भय, दबाव अथवा किसी विवशता से न बदले। ऐसे ही दृढ़ विचार वालों की विचार धारा ही विश्वस्त होती है और ऐसे अटल विचारवान लोग ही विचारों के आधार पर संसार में कुछ उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं। यों तो विचारों के हवाई किले बनाने वाले लोगों की कमी नहीं है। नित्य ही न जाने कितने लोग योजनायें बनाते हैं। बड़ी-बड़ी बातें सोचते हैं, कल्पना की लंबी-चौड़ी उड़ाने भरते रहते हैं। किन्तु जब उनको यथार्थ की कठिन भूमि पर उतार दिया जाता है तो पता चलता है कि उनके विचार कितने पोले और मिथ्या हैं।

बड़ी-बड़ी बातें सोचना, लंबी-चौड़ी योजना बनाना और बात है और उनको कार्य रूप में परिणत करना दूसरी बात। अपरिपक्व तथा मिथ्या विचार क्रिया को प्रेरित नहीं कर सकते। विचार वही शक्तिशाली और सार्थक होते हैं, जो निष्ठा के रूप में पक चुके होते हैं। बहुत बार लोग अपने ही विचारों से स्वयं धोखा खा जाते हैं। कल्पना अथवा कामना की तीव्रता होने से वे अपने विचारों को बड़ा तेजस्वी और सार्थक समझ लेते हैं। इस वंचना के कारण उन्हें अपने विचारों से बड़ा लगाव हो जाता है और उसी में बहते रहने से उन्हें बड़ा आनन्द आता है। इस प्रकार के विचार व्यसनी लोग आए दिन ऊँचे-ऊँचे विचार करते और योजनाएं बनाते रहते हैं। किन्तु उन्हें मूर्तिमान करने का कोई प्रयास नहीं करते। इस प्रकार विचार व्यसनी अपनी निर्बलता के कारण सारी शक्ति और सारा समय निरर्थक कल्पनाओं और जल्पनाओं में खो देते हैं। न स्वयं अपने किसी काम आते हैं और न किसी दूसरे के।

निश्चय ही जीवन विकास में विचारों का बहुत महत्व है। विचार मनुष्य की एक बड़ी शक्ति मानी गई है, यह गलत नहीं है। किन्तु इस कोटि में मिथ्या और वंचक विचार नहीं आते। विचारों का लाभ वही व्यक्ति उठा पाते हैं, जिनके विचार, विश्वास, आस्था, निष्ठा आदि से होते हुए श्रद्धा तक जा पहुँचते हैं। विचार जब श्रद्धा के रूप में परिपक्व हो जाता है, तभी वह अटल और शक्तिशाली बनता है। ऐसा दृढ़ विचार किसी भी भय, परिस्थिति, आकर्षण अथवा प्रभाव से नहीं बदलता। मनुष्य का अपरिवर्तनशील विचार ही उसकी शक्ति बनता और क्रिया को प्रेरणा देता है। जिसका विचार सुदृढ़, विश्वास अडिग, निश्चय परिपक्व और सिद्धाँत अटूट होता है, वह देर-सबेर समाज में अपना एक नियत स्थान बना ही लेता है।

जिनके विचारों में उच्चतम, दृढ़ता और सक्रियता होती है, वे संसार में निश्चय ही ऐसे कार्य कर दिखाते हैं, जिनके उपलक्ष में समाज उन्हें महापुरुषों के रूप में याद करता है। अन्य विशेषताओं के साथ महापुरुषों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे अपने विचारों के प्रति अखण्ड निष्ठावान होते हैं। एक बार वे जिन विचारों को स्थिर कर लेते हैं, उन पर आजीवन डटे रहते हैं। कोई भी कष्ट, कोई भी आपत्ति, कोई भी प्रलोभन अथवा कोई भी परिस्थिति उनके विचारों को डावाँडोल नहीं कर पाती। उनके विचार उनके जीवन के साथ ओत-प्रोत होकर एक रस हो जाते हैं।

निश्चित एवं दृढ़ विचारों में सक्रियता आ जाना स्वाभाविक होता है। अपने विचारों के अनुसार कार्य करना महापुरुषों का एक और गुण होता है। वे कोरे विचार व्यसनी नहीं होते। वे एक बार जिस विचार का निश्चय कर लेते हैं, उसे तुरन्त क्रियात्मक रूप दे दिया करते हैं। विचारों को मूर्तिमान करने में उन्हें जो भी श्रम, शक्ति, समय अथवा मूल्य देना होता है, वे प्रसन्नता से देते हैं। विचारों को प्रवृत्त करने में यदि एक बार उनके प्राणों पर भी बन आती है तो भी वे उससे पीछे नहीं हटते। उनकी निष्ठा, उनका विश्वास और उनकी दृढ़ता उन्हें हर बलिदान दे सकने की शक्ति प्रदान करती रहती है।

यह अपने विचारों के प्रति विश्वास, निष्ठा और श्रद्धा का ही चमत्कार था जो राणाप्रताप वन-वन घूमे और घास की रोटियाँ खा सके। ईसा क्रूस और मंसूर सूली पर चढ़ सके। सुकरात, मीरा और दयानन्द को विषपान करने की शक्ति उनकी विचार निष्ठा ने ही दी थी। यह अपने विचारों के प्रति आस्था का ही बल था जिसके आधार पर हकीकतराय अपना सिर कटा सके और गुरु गोविंदसिंह के दो नौनिहाल दीवार में हंसते-हंसते समाधि ले सके। विचारों की अमोघता मनुष्य को तन, मन, वचन और कर्म से अमोघ बना देती है।

निश्चय ही विचार मनुष्य की बहुत बड़ी शक्ति है। किन्तु यह शक्ति सार्थक तभी होती है, जब विचारों में दृढ़ता उच्चता और आस्था हो। जो विचार एक बार निश्चित कर लिया जाए, वह जीवन का एक अभिन्न अंग बना लिया जाए। बहुत से ढुलमुल विचारों की अपेक्षा एक दृढ़ और निश्चित विचार बहुत महत्वपूर्ण है। यदि हम विचार शक्ति का लाभ उठाना चाहते हैं तो हमें बेकार के बहुत से विचार त्याग कर किसी एक उद्देश्यपूर्ण विचार को निश्चित करना होगा। और फिर उस विनिश्चित विचार को मूर्तिमान करने के लिए तन, मन, धन सब लगा देना होगा। विचारों के लिए इतना त्याग तभी संभव है, जब विचारों के प्रति आस्था तथा निष्ठा हो। निष्ठाहीन विचार मस्तिष्क के विकार के सिवाय कुछ नहीं होते। हमें चाहिए कि विचारों का व्यसन त्याग कर किसी एक महान विचार को ग्रहण कर लें और फिर उसी की पूर्ति में अपना सारा जीवन लगा दें। ऐसा करने से निश्चय ही हम ऐसे काम कर दिखायेंगे जो आपके तथा समाज के लिए हितकर होंगे।

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