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Magazine - Year 1970 - Version 2

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विज्ञान की अपूर्णतायें और उनका विकल्प

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विज्ञान की अधिकाँश उपलब्धियाँ जड़ प्रकृति के क्षेत्र में हैं। पृथ्वी में पाये जाने वाले सभी कार्बनिक (आर्गेनिक) और अकार्बनिक (इन आर्गेनिक) धातुओं, खनिजों, गैसों और इन सबके द्वारा बनने वाले यंत्रों, प्रकाश, विद्युत, ताप, चुँबक आदि से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ विज्ञान देता है, उसमें कामवासना की तरह का क्षणिक आकर्षण भी है, क्योंकि हम उससे कुछ शक्ति सुविधा पाते और प्रसन्नता अनुभव करते हैं किन्तु जब हम जीव विज्ञान की ओर चलते हैं तो पता चलता है कि यह जानकारियाँ नितान्त एकाँगी और भ्रमपूर्ण हैं। वह जीव चेतना के मूल उद्देश्य के बारे में कुछ नहीं बता पातीं।

उदाहरण के लिए जीवाणु (लिविंग आर्गनिज्म) को विज्ञान पूर्ण मानता है, चेतना सूक्ष्म कण में भी विद्यमान है, यह एक महत्वपूर्ण जानकारी हुई, किन्तु विज्ञान उसे शाश्वत नहीं मानता। जीवाणु के प्राकृतिक अंश के बारे में जीव विज्ञान (बायोलॉजी) की जानकारियाँ बहुत कुछ सत्य और उपयोगी होती हैं, किन्तु जब यह पूछा जाता है कि इसमें रह रही चेतना का मूलभूत स्वरूप क्या है? तो विज्ञान चुप हो जाता है, जबकि उसके अस्तित्व और मूल महत्व का वह स्वीकार भी करता है। जीव-विज्ञान अधिक से अधिक यह कल्पना कर सका है कि चेतना प्राकृतिक पदार्थों की रासायनिक चेतना मात्र है। प्रो. व्हाइट हेड स्वयं एक महान वैज्ञानिक थे, उन्होंने विज्ञान के इस तर्क का खंडन करते हुए पूछा - ‘एक अमीबा (प्रकृति का सबसे छोटा जीव) जिसमें साइटोप्लाज्मा ही उसका शरीर और एक नाभिक (न्यूक्लियस) ही उसकी चेतना होती है, क्योंकि ऐसा होता है कि नाभिक के निकल जाते ही शेष भाग मृत हो जाता है, जबकि नाभिक पुनः एक स्वतंत्र अमीबा का रूप ले लेता है। इससे मालूम पड़ता है कि चेतना प्राकृतिक संरचना से स्वतंत्र है, वह स्वयं प्रकृति को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखता है। विज्ञान इस संबंध में पूर्णतया डाँवा-डोल है।

यदि चेतना का स्वरूप रासायनिक होता तो प्रयोगशालाओं में अनेक प्रयोग करके कई तरह की रासायनिक शक्तियाँ पैदा करते हैं पर उनमें उपयोगितावाद (सरवावल ऑफ फिटेस्ट) देखने में नहीं आता। उपयोगितावाद के अनुसार बड़ी रासायनिक शक्ति को चाहिए था कि वह छोटी रासायनिक शक्ति को दबोचती पर वैसा आज तक कहीं नहीं हुआ, रासायनिक शक्तियाँ और मूल चेतन सत्ता में कोई सामंजस्य नहीं है।

विज्ञान की सीमितता (लिमिटेशन आफ साइंस) नामक पुस्तक के लेखक डॉ. जे डब्ल्यू. एन. सुलीबाग ने एक स्थान पर लिखा है-मानव-जीवन की उत्पत्ति के बारे में प्रचलित डार्विन का विकासवाद (इस मत के अनुसार मनुष्य अमीबा, अमीबा से दूसरे सर्पणशील जीवों से विकसित होता हुआ बंदर बना, बंदर से मनुष्य बन गया) और रैन्डम के सिद्धाँत (इस मत के अनुसार मनुष्य उसी प्रकार परिपूर्ण जन्मा, जिस प्रकार अन्य जीव) में से कौन सत्य है, कौन असत्य है। इस संबंध में विज्ञान कुछ भी स्पष्ट कर सकने में असमर्थ है। यहाँ बड़े से बड़े वैज्ञानिक को भी भ्रम हो जाता है कि वस्तुतः कोई ऐसी महान सत्ता संसार में काम कर रही हो सकती है, जिसकी इच्छा से बलवान और कोई शक्ति संसार में न हो।

यदि हम जानवरों के अंगों की कार्यप्रणाली का ही भौतिक और रासायनिक अध्ययन करें, तब भी निष्कर्ष वहीं के वहीं रह जाते हैं। शरीर में इच्छाओं का रासायनिक क्रम विज्ञान बता सकता है, किन्तु विज्ञान यह नहीं बता पाता कि इच्छायें क्यों उत्पन्न होती हैं। पशु भी अपनी इच्छायें रोक नहीं पाते। मार खाते हैं तो भी खेतों में चोरी से घुसकर फसल खाने की अपनी इच्छा को रोक सकना उनके लिए भी असंभव ही होता है। रासायनिक परिवर्तनों के कारण इच्छाओं के स्वरूप-परिवर्तन के बारे में विज्ञान बता सकता है पर परिवर्तनों के उद्देश्य के बारे में वह कुछ भी व्यक्त करने में असमर्थ ही रहा है।

भौतिक विज्ञान (फिजिक्स) और मनोविज्ञान (साइकोलॉजी) दोनों में पृथ्वी और आकाश का अंतर है। मनोविज्ञान के विश्लेषण से मिला व्यवहारवाद और भौतिक विज्ञान से मिले यन्त्रों की कार्यप्रणाली में बड़ा फर्क है, भौतिक विज्ञान की धारणायें स्पष्ट होती हैं, हमें पता रहता है कि अमुक यन्त्र काम न करेगा तो मशीन बंद हो जायेगी मशीन में फिर वह शक्ति नहीं होगी कि वह अपनी इच्छा से थोड़ी देर आराम करने के बाद फिर चलने लगे। जीवन के बारे में वह धारणायें बहुत अस्पष्ट होती हैं, हम अपने ही संबंध में नहीं कह सकते कि आधे घंटे पीछे हमारी मनःस्थिति क्या होगी, हम कहाँ और क्या होंगे। विज्ञान द्वारा मानवीय व्यवहार को स्पष्ट किया जाना बिल्कुल असंभव है। इसलिए यह मानना स्वाभाविक है कि आत्म-चेतना विज्ञान की सीमा से पृथक वस्तु है।

डॉक्टर भी एक वैज्ञानिक ही है उसे शरीर रचना और उसके रासायनिक परिवर्तनों की जानकारी होती है, इसलिए उसे पूरी बीमारी का पता बिना रोगी से पूछे लगा लेना चाहिए था। उसे यह भी बता देना चाहिए था कि शरीर के अमुक भाग में इस तरह की पीड़ा होती है पर वह ऐसा करने में असमर्थ होता है। वहम (मीनिया) और बिना किसी भौतिक संपर्क के किरकिराना या सिहरन (एलर्जी) का आभास क्यों होता है। डॉक्टर इसका पता लगाने में असमर्थ है।

भूगर्भ विद्या (जियोलॉजी) वृक्ष-वनस्पति विज्ञान (प्लैन्टोलॉजी) और जीव-विज्ञान (बायोलॉजी) के अध्ययन से पता चलता है कि जीवित वस्तुओं का क्रमिक विकास हुआ है। रसायन-शास्त्र (केमिस्ट्री) बताती है कि जितने भी अब तक खोजे गये 108 तत्व हैं, वह भी क्रमिक नंबर (पीरियाडिक टेबल) में है, इलेक्ट्रानों की संख्या बढ़ते-बढ़ते एक से दो हो जाती है तो दूसरा तत्व बन जाता है, तीन हो जाती है तो तीसरा और चार हो जाने पर चौथा। शेष सभी पदार्थ इनके सम्मिश्रण से बनते हैं, सृष्टि में जो कुछ भी जड़ प्रकृति है, मूलतः 108 तत्वों (अब तक की जानकारी के अनुसार) से बनी है। यह 108 तत्व किसी एक ही तत्व का विकास या अपदस्थ क्रम हैं, मूल कोई एक ही सत्ता या प्राण है, जिससे सारा संसार प्रकट होकर आ रहा है। वह सब क्या है, विज्ञान यह समझाने में असमर्थ है।

ऊँची स्थिति से नीची स्थिति में पहुँचने का यह क्रमिक विकास हजारों-लाखों वर्षों की प्रक्रिया का परिणाम है। अभी आगे यह क्रम कब तक चलेगा हमें नहीं मालूम पर पदार्थों में क्रियाशीलता क्यों है, यह भी वैज्ञानिक नहीं बता पाते किन्तु इन स्पष्टीकरणों से यह पता अवश्य चलता है कि समय, पदार्थ, चेतनता और सृष्टि के आविर्भाव का कारण (टाइम, स्पेस, मोशन एंड काजेशन) यह सब किसी एक परम बिन्दु (एब्सोल्यूट प्वाइंट) से चले हैं। विज्ञान से पूछा जाता है कि वह परमसत्ता, बिन्दु समय, तत्व क्या है, जिससे सृष्टि का आविर्भाव, घटनाक्रम, गति स्पन्दन चल रहा है तो वह भी नहीं बता पाता। इससे सिद्ध हो जाता है कि विज्ञान मानव-जीवन के सर्वांगपूर्ण पहलू का अध्ययन और विश्लेषण कर नहीं सकता।

मनुष्य के मर जाने का चिन्ह भी विज्ञान नहीं समझा सका। कभी वह हृदय की धड़कन (पल्पिटेशन) रुक जाने को मृत्यु कहता है, कभी श्वास क्रिया रुक जाने को, कभी वह मस्तिष्क की मृत्यु से जीवन की मृत्यु घोषित करता है पर अन्तिम रूप से मृत्यु और जीवन के अंतर को विज्ञान समझा नहीं सका।

अब हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विज्ञान के द्वारा निर्जीव पदार्थों की बहुत सी जानकारियाँ देने के बाद भी अनेक जानकारियों का पता लगाना शेष रह जाता है। सापेक्षवाद के सिद्धाँत (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) और क्वांटम सिद्धाँत की बहुत-सी बातें लोगों को समझ में इसलिए नहीं आतीं, क्योंकि उनका संबंध आत्म-चेतनता से है। धर्म और अध्यात्म से है, जो विज्ञान से परे की सत्ता है, इसलिए यदि धर्म को विज्ञान का विकल्प कहा जाये अथवा यह माना जाये कि जहाँ विज्ञान रुक जाता है, वहाँ से आगे का लक्ष्य ‘धर्म’ पूरा कर सकता है तो किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं मानना चाहिए।

प्रयोग और अध्ययन के प्रारंभिक दिनों में गैलीलियो का कहना था कि दिखाई देने वाले प्राकृतिक परिणामों (नेचुरल फेनामेना) को गणितीय सिद्धान्तों से (मैथेमेटिकली) जाना जा सकता है। प्रकृति के बारे में यह कहना बिलकुल ठीक है। एक वर्ष बाद ठीक आज के दिन सूर्य किस राशि पर होगा, गुणा भाग के द्वारा इसे माना जा सकता है। चन्द्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति हर्शल सेंटर्न प्लूटो उस दिन कहाँ किस दिशा में होंगे, यह रेखागणित से हल किया जा सकता है, किन्तु कुछ दिन बाद जब कैपलर ने कहा कि वस्तुओं में अगणितीय गुण भी विद्यमान हैं, उदाहरण के लिए इलेक्ट्रान का पतन होने पर पदार्थ का पतन हो जाता है। इलेक्ट्रान अपनी कक्षा में घूमते हुए आगे वाली या पीछे वाली कक्षा में टूट गिरेगा, इस संबंध में कोई गणितीय नियम काम नहीं करता। मानव व्यवहार भी किसी गणितीय नियम पर आधारित नहीं है।

कुछ दिन बाद गैलीलियो ने भी स्वीकार किया कि अगणितीय गुण अन्तर्वर्ती (सब्जेक्टिव) होते हैं, उनका हमारे ज्ञान (सेन्ऐशन) के अतिरिक्त कहीं भी अस्तित्व नहीं है। मस्तिष्क न हो, ज्ञान न हो तो ब्रह्मांड का कोई आकार प्रकार होगा, न भार समझ में आयेगा, रंग, ध्वनि, गंध, स्थान और समय भी हमारे लिए कुछ भी न रह जायेगा, क्योंकि यह सारी बातें मस्तिष्क की उपज हैं, मस्तिष्क न हो तो इन विविधताओं का कोई रूप ही न हो।

मस्तिष्क ही चेतना है, चेतना का इतिहास और उसका भविष्य ही धर्म है, इसलिए जब तक चेतना का अस्तित्व है, तब तक धर्म की अनिवार्यता भी बनी रहेगी। गैलीलियो ने इन अगणितीय नियमों के आधार पर ही यह माना था कि संसार में व्यवस्था और गणित है, वह किसी महाशक्ति के हाथों का विधान है, उसे समझ पाना मनुष्य के लिए तब तक कठिन है, जब तक वह धर्म और दर्शन (रिलीजन एण्ड फिलॉसफी ) को अपने जीवन में स्थान नहीं देता।

न्यूटन का यह मत था कि विज्ञान वास्तविकता का आँशिक ज्ञान देता है, पूर्णता का विकल्प तो धर्म ही है। एडिंगटन और प्रसिद्ध वैज्ञानिक जेम्स जीन्स भी एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्रह्मांड का अन्तिम स्वभाव (अल्टीमेट नेचर) गणितीय नहीं, मानसिक (मेन्टल) है, अर्थात् मस्तिष्क की तरह की किसी सूक्ष्म चेतना में ही यह संसार चल रहा है, यदि मानसिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर हम कुछ सत्य बात जानने की इच्छा करें तो हमें धर्म को मानने के अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं रह जाता।

हम यह मानने के लिए विवश हैं कि आधुनिक विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हमारे जीवन के आधारभूत तथ्यों की जानकारी देने में असमर्थ रही हैं, जब तक हम उसे आध्यात्मिक धरातल पर परिणत नहीं करते, तब तक इन जिज्ञासाओं का शाँत होना संभव नहीं, उससे तो और मानसिक अशाँति ही बढ़ेगी। मानवीय सुख-शाँति, सुव्यवस्था और इस शरीर में आने के लक्ष्य की पूर्ति धर्म से हो सकती है। धर्म को इसलिए मनुष्य जीवन से पृथक नहीं किया जा सकता।

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