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Magazine - Year 1970 - Version 2

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जीवन को उत्तमता की ओर बढ़ाइए

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संसार में जो कुछ श्रेष्ठ और उत्तम है, उसका सीधा संबंध परमात्म-तत्व से है। निकृष्टता और निम्नता से उस सच्चिदानन्द परमात्मा का कोई संबंध नहीं। उत्तमता से प्रेम करना, उत्तमता को ग्रहण करना और अपने समग्र जीवन में उत्तमता एवं श्रेष्ठता को समाविष्ट करना ईश्वर की सर्वोत्तम उपासना और शक्ति है।

उत्तमता की उपलब्धि ईश्वरीय उपलब्धि के समान है। सुख, संतोष, शाँति, सरलता, प्रेम और करुणा आदि की प्राप्ति ईश्वर-प्राप्ति के लक्षण हैं। उत्तम वस्तुएं, उत्तम विचार और उत्तम गुण पा जाने पर मनुष्य में भक्त लक्षण स्वयमेव उद्भूत हो उठते हैं। उत्तमता प्राप्त व्यक्ति अपने में एक त्रयकालिक पूर्णता का अनुभव करता है। पूर्णता का अनुभव ब्रह्मानन्द का प्रदाता होता है। इस प्रकार सारी पूर्णताओं, आनन्दों और संतोषों का आधार उत्तमता को ही मानना चाहिए।

मनुष्य संसार का सर्वोत्तम प्राणी है इसलिए कि उसका सर्वोत्तम तत्व परमात्मा से निकटतम संपर्क है। उसने परमात्मा को खोजा, पाया और उससे संपर्क स्थापित किया। बदले में परमात्मा ने उस पर अपना ज्ञान, अपनी शक्ति, अपनी गरिमा और अपना धर्म अवतरित किया, उसकी आत्मा में बोध रूप से स्वयं भी अवतरित हुआ। यही तो वह विशेषता है, जिसके आधार पर मनुष्य विद्वान के रूप में ज्ञान का, वैज्ञानिक के रूप में रहस्यों का और शूरवीरों के रूप में अमरता का सम्पादन कर सका है और कर रहा है। ऐसे सर्वोत्तम प्राणी मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार और कर्त्तव्य दोनों ही उत्तमता और श्रेष्ठता ही है। अपने इस दैवी अधिकार और कर्त्तव्य से च्युत होना उसके लिए अशोभनीय है, अयोग्य है।

मनुष्य संसार की प्रत्येक उत्तम वस्तु का अधिकारी है। इसलिए कि वह संसार में सर्वोत्तम जो है। ऐसा भी नहीं कि कोई उत्तम वस्तु उसके लिए दुर्लभ हो। हर उत्तम वस्तु उसके लिए सहज सुलभ है। इस सुलभता का कारण यह नहीं है कि वे सब वस्तुएं उत्तराधिकार में उसके नाम लिख दी गई हों। इस सुलभता का कारण यह है कि मनुष्य में सर्वशक्तिमान का अंश विद्यमान है। जिसके अनुग्रह से वह स्वयं भी सर्वशक्तिमान है। जो शक्तिमान, गुणवान और क्षमतावान है, उसके लिए ऐसी कौन-सी सम्पदा हो सकती है, जो सुलभ न हो। वह तो उनका नैसर्गिक अधिकारी होता है।

किन्तु इसके साथ यह न भूल जाना चाहिए कि अधिकार कर्त्तव्य का अनुगामी होता है। बिना कर्त्तव्य के अधिकार के नाम पर शून्य ही रहता है और कर्त्तव्य अधिकार से हीन हो ही नहीं सकता। यदि कोई मनुष्य उत्तम सम्पदाओं के अधिकार के लिए हाथ तो बढ़ाता है, लेकिन उसके लिए वाँछित कर्त्तव्यों के नाम पर पैर पीछे हटाता है तो वह अपने मनोरथ में सफल नहीं हो सकता। उत्तम सम्पदाओं को पाने के लिए उत्तम कर्त्तव्यों का पालन भी करना होगा।

जो सर्वशक्तिमान है, सर्वसामर्थ्यवान है, उसके लिए संसार का ऐसा कौन-सा कर्त्तव्य हो सकता है, जो दुष्कर हो। जिस प्रकार उसके अधिकारों में उसकी शक्तिमत्ता सहायक है, उसी प्रकार उसके कर्त्तव्यों में भी सहायिका ही होगी। अस्तु, उस सर्वशक्तिमान का सर्वोत्तम अंश मनुष्य सब कुछ कर सकने और सब कुछ पा सकने में समर्थ है। उसे अपनी इस विशालता का अनुभव और उनका उपयोग करना ही चाहिए। क्योंकि ईश्वर की ओर से उसका अनुदान व्यर्थता के लिए नहीं सार्थकता के लिए ही किया गया है।

किन्तु खेद है कि मनुष्य न तो सामान्यतः अपनी इस विशालता का अनुभव कर पाता है और न उसका उपयोग इसका कारण है। वह यह कि अज्ञान के कारण मनुष्य आत्म-विस्मरण की गहरी नींद में सोया हुआ, जीवन पथ पर चला जा रहा है। वह अपने को हाड़-माँस का एक चेतन पिण्ड समझे हुए है। उसे पता ही नहीं कि उसका वास्तविक स्वरूप क्या है? अपने को शरीर मात्र समझने पर उनकी नश्वरता में विश्वास रखने के कारण निर्बल, भीरु लोलुप बना हुआ है। यही सोचता और मानता रहता है कि जैसा जो कुछ जीवन है, वह सलामती से पूरा हो। बस यही बहुत है। अपनी इस भीरुता के कारण उसकी सारी शक्तियाँ और सारी श्रेष्ठतायें कुण्ठित बनी रहती हैं और वह आत्म-स्वरूप जानने के साहसिक कार्य में प्रवृत्त नहीं हो पाता।

यदि एक बार वह मोह निद्रा से जागकर यह सोचता कि - ‘मैं सर्वशक्ति सम्पन्न एक अक्षय ज्योति-पिण्ड हूँ’। मेरा सत्यस्वरूप यह नश्वर शरीर नहीं अक्षय आत्मा है। मैं सम्राटों का उत्तराधिकारी पुत्र हूँ। संसार का हर उत्तम पद और हर उत्तम सम्पदा मेरी है, मैं उसका अधिकारी हूँ। मुझमें उसे पाने की परिपूर्ण पात्रता विद्यमान है।’ तो निश्चय ही उसकी शक्तियाँ प्रबुद्ध ही नहीं परिलक्षित भी हो उठें।

अवश्य ही उन आदमियों पर अभाग्य की छाया मानी जाएगी, जो अपने को अकारण ही तुच्छ, नगण्य, निर्बल और हेय समझा करते हैं। यह आत्म-अवमानना नहीं। ऐसी भावनाओं से सृजनात्मक शक्तियों का विनाश होता है। अपना निरादर करने वाला व्यक्ति एक प्रकार से ईश्वर का निरादर ही करता है। मनुष्य संसार में ईश्वर की प्रतिमूर्ति है, उसका प्रतिनिधि है। ऐसे उन्नत पद पर होकर मनुष्य को कदापि अधिकार नहीं कि वह आत्म-तिरस्कार का पाप करे। उसके भीतर ईश्वर की सारी सम्पदायें और शक्तियाँ सुरक्षित हैं। वह अपने को संकीर्णता, हेयता और हीनता के हाथों रहन कर देने का कोई अधिकारी नहीं है। उसे वही करना और सोचना होगा, जो ईश्वर को वाँछित है और उससे निर्देशित है। ईश्वर का स्पष्ट आदेश है कि ‘पूर्ण बनो जैसा कि मैं हूँ।’ ‘महान बनो जैसा कि मैं हूँ।’ और ‘ विशाल बनो जैसा कि मैं हूँ।’ संकीर्णता, हीनता अथवा भीरुता को आश्रय देना मेरा विरोध करना है, जिसे मैं किसी पण पर भी स्वीकार नहीं कर सकता।

मानव-जीवन का ध्येय है-उत्तमोत्तम बनकर, उत्तम कर्तव्यों पर सर्वोत्तम अर्थात् परम पद पाना। जो इस सर्वश्रेष्ठ श्रेय के लिए प्रयत्न नहीं करता, उसके लिए पुरुषार्थ में प्रवृत्त नहीं होता, वह इस बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ में नष्ट कर रहा है, इसमें संशय नहीं। उत्तमता ईश्वरीय तत्व है। अस्तु उसको प्राप्त करने की आकाँक्षा करनी ही चाहिए। जो जितना उत्तमता के समीप पहुँचता जाएगा, वह उतना ही ईश्वर के सन्निकट होता जाएगा, जो उत्तमता से विमुख होकर जीवन को एक भार, एक बेगार समझकर उसे घसीट-घसीटकर निम्नताओं की ओर लिए जाते हैं, वे ईश्वरता का अपमान करते हैं। ऐसे पातकी व्यक्ति यहाँ-वहाँ कहीं भी क्षमा नहीं किए जाते।

अज्ञान के अंधकार से निकलकर मोह निद्रा का त्याग करिए और देखिए कि आप संसार में श्रेष्ठ कार्य करने के लिए सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में अवतरित किए गए हैं। जिन ब्राह्मीय शक्तियों से आपको सम्पन्न किया गया है, उन्हें पहचानिए और काम में लाइए। उत्तमता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है, उसे पाइए और अपने से की गई ईश्वरीय अपेक्षा को चरितार्थ कर दिखाइए। अपने को हाड़-माँस का शरीर मानकर हीनता के अभिशाप से छूटिए और स्वीकार कीजिए कि आप ईश्वर के पुत्र हैं। उस ज्योति पुँज की एक प्रकाशित उल्का हैं, जो संसार में प्रकाश प्रदान करने के लिए प्रेषित की गई है।

आपका कर्त्तव्य विषय वासनाओं के नरक की सेवा करना नहीं है और न ईर्ष्या-द्वेष, काम-क्रोध आदि के हाथों दंडित होना आपका अधिकार है। आपका कर्त्तव्य है, विषयों-विकारों और विकृतियों को विजय करना। और शुद्ध-बुद्ध तेज-पुँज परमात्मा में स्थित होना आपका अधिकार है। आप अपने उत्तम कर्तव्यों और अधिकारों को पहचानिए और उनमें प्रवृत्त होइए। यह विचार पास भी मत आने दीजिए कि आपमें इस उन्नत कर्तव्य और महान अधिकार के योग्य शक्ति, सामर्थ्य नहीं है। यद्यपि है, तथापि यदि किसी कारण से आप अपनी उस महत् शक्ति को इस समय अनुभव नहीं कर पा रहे हैं। तब भी कोई चिन्ता नहीं। आप अपने लिए उत्तमता से विभूषित छोटे-छोटे कर्त्तव्य चुनिए और अपनी ज्ञात एवं सकल हस्तगत शक्ति के साथ लग जाइए। धीरे-धीरे आपकी सारी गुप्त शक्तियाँ उद्बुद्ध हो उठेंगी और तब आप पुरुषार्थ के विशाल पंखों पर परमपद की ओर उठते चले जायेंगे।

अपनी इस प्रेरणा के लिए पवन-गामी गरुड़ की ओर नहीं मंथरगामी चींटी की ओर देखिए। चींटी कदाचित कर्तव्यनिष्ठ जीवों में सबसे छोटी होती है। किन्तु वह भी अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति और छोटे-छोटे पैरों की सीमित शक्ति का अविराम उपयोग कर एक दिन मूल से पर्वत शिखर पर चढ़ जाती है, एक देश से दूसरे देश और धरातल की सातवीं तह तक पार कर जाती है। अपनी सीमित शक्ति में असीम की भावना लाइए और अपने कर्त्तव्य पथ पर गतिमान हो जाइए। परमपिता परमात्मा का वरद्हस्त आपके पीछे रहेगा। वह दयालु देव गुप्त रूप से अपनी शक्ति शनैः - शनैः आपके पास भेजता जाएगा। इस प्रकार अनु-अनु के अनुसार सशक्त, समर्थ और शूरवीर बनते जायेंगे। ऐसी सुरक्षा और सहायता के साथ चलते रहने पर क्या कारण हो सकता है कि आप अपने लक्ष्य पर न पहुँच जाए।

संसार में कदाचित ही ऐसा कोई चेतन व्यक्ति हो, जिसके हृदय में महत्वाकाँक्षा, उच्च कल्पनायें और उत्तम कामनाएं जन्म न लेती हों। अन्यथा सर्वोत्तम का अंश होने के कारण से ऐसा होना स्वाभाविक है। आपके हृदय में भी महत्वाकाँक्षायें और उत्तम कामनायें जन्मती होंगी। किन्तु आप उनमें से पूरा एक को भी नहीं कर पाए। यदि ऐसा कर पाए होते तो निश्चय ही अपने परमार्थ लक्ष्य के बहुत समीप पहुँच गए होते। इस असफलता का कारण यही है कि आपने अपने अंदर जन्मी हर उच्च आकाँक्षा को इसलिए मार डाला है कि आपने अपने को उसकी अपेक्षा हीन और तुच्छ समझा है। बस आपकी इसी भूख ने आपको तुच्छ बनाकर छोड़ दिया।

संजीवनी विद्या का मुख्य मंत्र यही है कि अपनी सद्कामनाओं, ऊँची और उत्तम आकाँक्षाओं का पालन करिए, उन्हें जीवन-गति की प्रेरणा बनाइए और विश्वास रखिए कि आप उनको चरितार्थ करने के सर्वथा योग्य हैं। अपनी उत्तम आकाँक्षाओं के प्रति निषेध भाव लेकर चलने वाले उत्तम पद के अधिकारी नहीं बन पाते कभी मत सोचिए कि आपमें उत्तम कार्यों के योग्य शक्ति नहीं है। परिस्थितियाँ आपके अनुकूल नहीं है। प्रतिक्षण परमात्मा में विश्वास रखिए और अपनी सीमित शक्ति के साथ अभिमान का संकल्प गतिशील बनाइए। आप विजयी होंगे, उत्तमता पायेंगे और निश्चय ही उत्तम-पद पर प्रतिष्ठित होकर कृतकृत्य हो जायेंगे।

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