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Magazine - Year 1972 - Version 2

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नवयुग का अवतरण सुनिश्चित है और सन्निकट

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First 16 18 Last
युग परिवर्तन की निकटतम सम्भावना के सम्बन्ध में गुरुदेव ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये-

निकट भविष्य में ही युग परिवर्तन प्रस्तुत होने वाला है इसमें किसी को सन्देह नहीं करना चाहिए। जिन्हें दूरदर्शी आँखें प्राप्त हों वे इसके लिये द्रुत गति से जुटते चले जा रहे साधनों को बारीकी से देखें और समझें कि यह एक सुनिश्चित भवितव्यता है जो किसी प्रकार टल नहीं सकेगी।

इन आधारों में एक प्रबल कारण है कि ईश्वरेच्छा- सूक्ष्म जगत की परिस्थितियाँ। खगोल विद्या के अनुसार विशाल ब्रह्माण्ड में कॉस्मिक किरणों- रेडियो किरणों जैसी अदृश्य किन्तु अति सबल शक्तियों में प्रवाह बहते हैं इनका प्रवाह उस क्षेत्र से गुजरने वाले ग्रह नक्षत्रों पर असाधारण रूप से पड़ता है। हमें यह जानना चाहिए कि पृथ्वी समेत समस्त सौर मण्डल ध्रुव तारे की परिक्रमा करने के लिए दौड़ा चला जा रहा है और वह ध्रुव तारा भी ऐसे ऐसे असंख्य सौर मण्डलों को अपनी रस्सी में बाँधे महाध्रुव की परिक्रमा में निरत है। इस प्रक्रिया के अनुसार पृथ्वी अन्तरिक्ष के जिस स्थान पर है वहाँ लौट कर अरबों खरबों वर्ष में ही आ सकती है। आगे तो उसे विशाल आकाश में आगे आगे ही दौड़ना पड़ेगा और पीछे का स्थल छूटता चला जायेगा।

इस घुड़ दौड़ में पृथ्वी पर अन्तर्ग्रहीय किरणों की वर्षा में न्यूनाधिकता आती चली जाती है। और उसका प्रभाव न केवल पृथ्वी की भौतिक परिस्थितियों पर पड़ता है वरन् प्राणियों की अन्तःचेतना भी उससे प्रभावित होती है। सूर्य की किरणों का जो अन्तर पृथ्वी पर आता है उसका प्रभाव भौतिक और मानसिक स्थिति पर पड़ते हुए हम निरन्तर देखते हैं। सर्दी, गर्मी, वर्षा के परिवर्तन पृथ्वी की परिस्थितियों में कितना अन्तर उपस्थित करते हैं, इतना ही नहीं बसंत ऋतु का उल्लास और ग्रीष्म में थकान की उदासी का बाहुल्य प्राणियों की चेतना में अनायास ही परिलक्षित होता है। यह सूर्य किरणों की बात हुई। ऐसी असंख्य किरणें असंख्य ग्रह नक्षत्रों से बरसती हैं और उनकी समीपता तथा मात्रा के घटते बढ़ते रहने से पृथ्वी की भौतिक व चेतन स्थिति में भारी अन्तर आता है। मनुष्य भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। सतयुग की श्रेष्ठता और कलियुग की निकृष्टता का उल्लेख इन अन्तर्ग्रही सूक्ष्म किरणों के प्रभाव में परिवर्तन आते रहने के आधार पर ही सूक्ष्मदर्शी तत्वज्ञानी करते रहे हैं। स्थूल ज्योतिष केवल सौर मण्डल के अंतर्गत घटित होने वाले क्रम का ही विवेचन करती है सूक्ष्म ज्योतिष इससे कहीं ऊपर है वह ध्रुव, महाध्रुव के भ्रमण पथ में आने वाली परिस्थितियों में प्रभाव को देखती है। ऐसे ही तत्व दर्शियों का कथन है कि पृथ्वी अगले दिनों उस स्थान पर होगी जहाँ की अन्तर्ग्रही भौतिक एवं चेतन सूक्ष्म किरणें पृथ्वी निवासियों को अनोखे ढंग से प्रभावित करेंगी और अपनी इस धरती की परिस्थितियों में भारी हेर-फेर प्रस्तुत करेंगी। इस हेर-फेर से मनुष्यों के भावना स्तर में-चिन्तन और क्रिया कलाप में भी असाधारण अन्तर प्रस्तुत होगा। यह अन्तर विनाशात्मक नहीं सृजनात्मक आने वाला है। उससे निकृष्टता घटने और उत्कृष्टता बढ़ने की पूरी-पूरी संभावना है। सूक्ष्मदर्शी-तत्वज्ञानी-इन दिनों परा प्रकृति और अपरा प्रकृति में हो रहे सूक्ष्म परिवर्तनों को बारीकी से देख रहे हैं और सुनिश्चित पूर्व सूचना दे रहे हैं कि युग परिवर्तन का समय अब अति निकट आ गया।

दूसरा कारण है ईश्वरेच्छा। माता बच्चों को स्वतन्त्र रूप से खेलने तो देती है पर साथ ही यह ध्यान भी रखती है कि वे कहीं इस खेल खेल के बीच विपत्ति में तो फँसने नहीं जा रहे हैं। जब कुछ गड़बड़ देखती है तो वह दौड़कर उन्हें सँभालती है। ईश्वर ने मनुष्य को काफी स्वतंत्रता दी है। भले-बुरे कर्म करते हुए सुख-दुख पाते रहने की स्वसंचालित प्रक्रिया में प्राणी भ्रमण करते रहते हैं। दृष्टा उसे साक्षी रूप में देखता रहता है, इसमें हस्तक्षेप नहीं करता। पर जब जन समूह की दिशा ही बदल जाय और विनाश की ओर बहु संख्यक समुदाय चल पड़े, उच्छृंखलता असीम और अनियन्त्रित हो चले तो उसे बदलने सुधारने के लिए अवतरित होना पड़ता है। समय-समय पर ऐसा होता भी रहा है। सुधारकों देवदूतों और अवतारों को समय-समय पर इसी प्रयोजन के लिए भेजा जाता रहा है। जो रोग मामूली दवादारु की परिधि से आगे बढ़ जाता है उसके लिए कुशल सर्जन स्वयं चीर-फाड़ करते हैं। मामूली चोरी, उठाईगीरी की पुलिस सिपाही पकड़-धकड़ करते रहते हैं पर जब विप्लव खड़ा हो जाय तो रिजर्व फोर्स सरकार को भेजनी पड़ती है। असुरता की, अधर्म की अतिशय वृद्धि होने पर- अधर्म को निरस्त करने एवं धर्म को प्रतिष्ठित करने के लिए अवतार लेने का ईश्वरीय आश्वासन निरर्थक नहीं सार्थक है। इतिहास इसका साक्षी है। जब जब ऐसा लगा है कि सन्तुलन लड़खड़ाने लगा। अनीति की शक्तियाँ अनियन्त्रित हो उठीं, मानवी प्रयत्न उसे संभालने में सफल नहीं हो पा रहे तो दैवी प्रवाह की आँधी आती है और कूड़े करकट को उड़ा कर कहीं से कहीं पहुँचा देती है। इसका नाम अवतार प्रक्रिया है। इसे दूसरे शब्दों में युग का परिवर्तन या प्रत्यावर्तन कह सकते हैं। समयानुसार महाकाल इसकी व्यवस्था करता रहा है आज उसका इसी प्रकार का प्रयास प्रबल हो चला है।

कारण स्पष्ट है मनुष्य जाति का भावना प्रवाह पिछले दिनों अवाँछनीयता की ओर ही बहा है और उसमें दिन-दिन तेजी आई है साधारण समय में आसुरी अनैतिकता कोई-कोई उद्दण्ड ही अपनाते थे, समाज उन अपराधियों को दण्ड देकर रास्ते पर लाता था। अब तो विचित्र स्थिति है। कुएँ में भाँग पड़ने पर उस पानी को पीने वाले सभी उन्मत्त हो उठते हैं, आज भी कुछ ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो गई है। ओछे और निकृष्ट स्तर के लोग अनाचार बरतें तो बात समझ में आती पर जब सुरक्षा दल ही उस स्तर पर उतर आये। मेंड़ खेत को खाने लगे तब फिर रखवाली कैसे सम्भव हो। समाज को नीति नियन्त्रण में रखने के लिए आदर्श गति विधियाँ अपनाने की जिम्मेदारी प्रबुद्ध वर्ग की है पर जब ग्वाला ही भेड़ें मारने लगे-रक्षक ही भक्षक बन जाय तब समझना चाहिए-खैर नहीं।

आज बारीकी से देखा जाय तो राजतन्त्र, धर्मतन्त्र समाज तन्त्र, अर्थ तन्त्र, बुद्धि तन्त्र, कला तन्त्र के क्षेत्रों में नेतृत्व करने वाली प्रतिभाएं बुरी तरह अपने कर्त्तव्य से च्युत हो रही हैं। मुख से बकवास करते रहने का कोई मूल्य नहीं, प्रभाव पड़ता है आस्थाओं का और कृतियों का। वे छिपाये छिपती भी नहीं। यदि उनका स्तर अवाँछनीय है तो मोटे तौर से कोई जाने या न जाने पर सूक्ष्मजगत में उसका भारी प्रभाव पड़ेगा। समर्थ प्रतिभाएं जहाँ अपने वर्चस्व से लोक मानस को अपने समान उत्कृष्ट बना सकती है वहाँ उनकी निकृष्टता व्यापक रूप से अवाँछनीयता का भी विस्तार कर सकती है। सर्वसाधारण की गतिविधियों में गिरावट आ जाना उतना चिन्ताजनक नहीं जितना प्रतिभाओं का नैतिक अधःपतन। आज यही विश्व संकट का प्रधान केन्द्र बिन्दु है। यही क्रम चलता रहा तो समस्त संसार के लिए आत्मघाती संकट कुछ ही दिनों में प्रस्तुत हो सकता है।

किसी का नाम लेने की जरूरत नहीं है और न किसी पर कीचड़ उछालने की आवश्यकता है। हम अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देखें और ढूँढ़ें कि कृषि कार्य से पेट भर के निस्वार्थ शासन करते राजा जनक, अर्ध वस्त्र पहन कर पैदल चलने और कुटिया में रहने वाले चाणक्य जैसे मंत्री, व्यास और बाल्मीकि जैसे साहित्यकार, नारद जैसे गायक, शंकराचार्य जैसे साधु, वशिष्ठ जैसे धर्म नेता, बुद्ध जैसे तपस्वी, भामाशाह जैसे धनी, शुकदेव जैसी ज्ञानी, आज किस क्षेत्र में कितने हैं। मस्तिष्क विकृत होगा तो समस्त शरीर की गतिविधियाँ बेतुकी दीखेंगी। प्रबुद्धता का उत्तरदायित्व यह है कि उपलब्ध प्रतिभा एवं सम्पदा को अधिक साहस के लिए लोक मंगल में नियोजित करे अपेक्षाकृत अधिक आदर्श और अनुकरणीय बने ताकि जन साधारण को उनके पद चिह्नों पर चलने का अवसर मिले और लोक व्यवस्था सही बनी रहे। उच्च वर्ग भ्रष्ट होगा तो जन साधारण को भी भ्रष्टता ही सरल स्वाभाविक और उचित उपयुक्त लगेंगी फलस्वरूप सर्वत्र पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियाँ भड़केंगी और उसका प्रतिफल अगणित आपत्तियों के रूप में भुगतान पड़ेगा।

आज धन, शिक्षा, और साधनों की प्रचुर मात्रा में अभिवृद्धि हुई है। यदि उसका सदुपयोग सम्भव हुआ होता तो इतनी साधन सम्पन्न जनता स्वर्गीय सुख का आनन्द ले रही होती, पर ठीक उलटा हो रहा है। बढ़ती हुई सम्पदा-विपत्ति का कारण ही बनती चली जा रही है और मानव जीवन का हर पक्ष समाज का हर क्षेत्र इतना कलुषित हो रहा है कि घुटन में प्राण ही निकल रहे हैं। बाहर जितना वैभव भीतर उतना ही दारिद्र्य। बाहर जितना ज्ञान भीतर उतना ही अन्धकार। इतना छद्म और इतना पाखण्ड शायद ही इतिहास में कभी आया हो। मानवी महानता तो एक प्रकार से पलायन ही करती चली जा रही है उसके स्थान पर जाल में फँसाने का अहेरी धन्धा पनप रहा है। अब नैतिकता की-मानवता की कसौटी पर खरे सिद्ध होने वाले लोग दीपक लेकर ही तलाश किये जा सकते हैं। लगता है नैतिक मूल्यों की समाप्ति का दिन आ पहुँचा। इन परिस्थितियों में यह सर्वत्र रोष, आक्रोश, असन्तोष, विक्षोभ, दुख, दारिद्र्य, रोग, शोक, क्लेश, कलह का दुर्भाग्य पूर्ण वातावरण छाया दीखे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।

विज्ञान की प्रगति इस युग की अभूतपूर्व उपलब्धि है। प्रकृति की शक्तियों को हाथ में लेने की क्षमता शायद ही कभी इतनी बड़ी मात्रा में मनुष्य के हाथ आई हो। यह दुधारी तलवार है। इससे जहाँ स्वर्गोपम सुख-शान्ति की प्राप्ति की जा सकती है वहाँ ब्रह्माण्ड के इस अप्रतिम सुन्दर-ग्रह को-पृथ्वी को-चूर्ण विचूर्ण करके भी रखा जा सकता है। दुष्ट मानव उसी दिशा में बढ़ रहा है। हाइड्रोजन और एटम अस्त्रों की इतनी बड़ी मात्रा उसने सर्वनाश के लिए सँजोई है। प्रस्तुत दुर्बुद्धि के बाहुल्य को देखते हुए यह असम्भव नहीं कि इस बारूद में कोई उन्मादी किसी भी क्षण आग लगा दे और यह ईश्वरीय अरमानों से सँजोई सींची हुई दुनिया क्षण भर में धूलि कण बनकर किसी निहारिका के इर्द−गिर्द चक्कर लगाने लगे। विश्व का ऐसा दुखद अन्त काल्पनिक नहीं, वर्तमान परिस्थितियों में उस स्तर का खतरा पूरी तरह मौजूद है। यदि सर्वनाश न भी हो तो जिस दर्शन को अपनाकर मूर्धन्य, प्रबुद्ध एवं नेतृत्व कर सकने योग्य व्यक्ति चल रहे हैं उससे दिन-दिन अधिक दारुण दुख ही उत्पन्न होंगे। तब जीवित रहते हुए भी इस धरती के निवासी दिन-दिन अधिक दयनीय दुर्दशा से- नारकीय जलन में रुदन क्रन्दन करने भर के लिये शेष रहेंगे।

ईश्वर को यह किसी प्रकार मंजूर नहीं। बच्चों को बारूद से खेलने की छूट नहीं दी जा सकती। महाकाल ने इस अवस्था को व्यवस्था में पलटने के लिए अपना शस्त्र उठा लिया है। उसकी प्रत्यावर्तन प्रक्रिया चल पड़ी है। हम साँस रोक कर देखें कि अगले दिनों क्या होता है। प्रबल कैसे बदलता है। दुनिया कैसे उलटती है। असम्भव लगने वाला प्रसंग कैसे सम्भव बनता है। मनुष्य को बदलना ही पड़ेगा। इच्छा से भी और अनिच्छा से भी। यह रीति-नीति देर तक नहीं चल सकती। युग परिवर्तन एक निश्चित तथ्य है। उसके बिना और कोई गति नहीं। इस हेर-फेर के लिए अब अधिक समय प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। इन दिनों अन्तरिक्ष में चल रही हलचलें अगले ही दिनों साकार रूप धारण करेंगी और हम एक ऐसी महाक्रान्ति का इन्हीं आँखों से दर्शन करेंगे जिसमें सब कुछ उलट-पुलट करने की सामर्थ्य भरी होगी।

व्यष्टि-व्यक्ति-मनुष्य की तरह समष्टि आत्मा- विश्वात्मा भी एक जीवंत तथ्य है। उसमें अपना भला-बुरा सोचने की सामर्थ्य है। इन दिनों विश्व मानव को गम्भीरता पूर्वक सोचना पड़ रहा है कि ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में बढ़ते हुए उसके चरण किस दिशा में अग्रसर किये जायें? निस्सन्देह इसका उत्तर विनाश नहीं विकास ही हो सकता है। भौतिक विकास से लाभान्वित होना तभी सम्भव है जब आत्मिक विकास की आवश्यकता पूर्ण की जाय। आज उत्कृष्ट वर्ग का चिन्तन इसी दिशा में चल रहा है। जिनकी चेतना में दिव्यता का तनिक भी प्रकाश उगा है उन सब महामानवों के भीतर एक ही स्तर की विचार तरंगें उमड़ रही हैं। घटायें घुमड़ रही हैं, बिजली चमक रही है अब घनघोर वर्षा में अधिक विलम्ब नहीं है। विश्व मानव का उत्कृष्ट चिंतन जब सक्रिय रूप धारण करेगा- सृजन मेघ बनकर बरसेगा तो आज की तपन कल जल थल को एक करने वाले सुषमा-शीतलता और हरीतिमा का दृश्य ही चारों को बिखरा दिखाई देगा। इस परिवर्तन के लिए अब अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी।

भावनात्मक स्तर पर बदला हुआ मनुष्य-प्रस्तुत परिस्थितियों में समग्र परिवर्तन उपस्थित करेगा। देखने में शरीर, मकान, नदी, पर्वत, यही सब रहेंगे पर इन कलेवरों के अंतर्गत प्राण दूसरा ही होगा। तब लोग अपने दुख से पड़ौसी के दुख को और अपने सुख से दूसरों के सुख को कम नहीं अधिक ही मानेंगे। तब संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए चिन्तन में कोई स्थान न होगा, हर व्यक्ति यही सोचेगा कि जिस समाज के अनुदान से उसका व्यक्तित्व विनिर्मित और विकसित हुआ है उसे सुविकसित समुन्नत बनाने के लिए अधिक से अधिक योगदान करना चाहिए। ऐसी मनःस्थिति में हर मनुष्य स्नेह और सौजन्य का प्रतीक होकर रहेगा। शालीनता और सज्जनता उसकी नीति होगी। अपने लिए कम दूसरों के लिए अधिक की प्रतिस्पर्द्धा में लोग अधिकार के लिए नहीं लड़ेंगे वरन् कर्त्तव्य पालन में कौन अग्रणी रहा इसकी प्रतिस्पर्द्धा करेंगे। तब मनुष्य मनुष्य का शत्रु नहीं मित्र बनकर रहेगा। एक दूसरे को सन्देह, अविश्वास और आशंका की दृष्टि से नहीं देखेंगे। एक दूसरे पर विश्वास करके चलेंगे भी और उस मान्यता की यथार्थता भी सिद्ध करेंगे। न कटुता की आवश्यकता पड़ेगी न कर्कशता की। न्याय और विवेक की प्रधानता के कारण न कहीं अनैतिकता दिखाई देगी और न कहीं भ्रम छद्म के लिए स्थान रहेगा। लोग सीधा-सादा सरल और हर्षोल्लास भरा जीवन जियेंगे।

आज मनुष्य की तीन चौथाई शक्तियाँ ध्वंस के साधन एकत्रित करने में लगी हैं। असन्तोष और अविश्वास के कारण जन सहयोग जुट नहीं पा रहा, आशंका और आत्म-रक्षा की चिन्ता फूँक-फूँक कर कदम धरने को कहती है। इन जाल जञ्जालों में जकड़ा हुआ मनुष्य कुछ कर नहीं पाता। साधनों को सृजन में लगाया जा सकना सम्भव ही नहीं होता जब वैसी कठिनाईयाँ न रहेंगी तो आज का ज्ञान विज्ञान सृजन में लगेगा। सुख-सुविधाओं के साधन बढ़ायेगा। प्रकृति के गर्भ में विपुल सम्पदा भरी पड़ी है यदि मानवी पुरुषार्थ उसका सदुपयोग सीख ले तो कोई कारण नहीं कि हर मनुष्य को-हर प्राणी को-सुख-शान्ति के साथ रह सकने योग्य विपुल साधन उपलब्ध न हो जायें।

जब युद्ध उपकरणों में लगे हुए विपुल साधन सामग्री प्रचुर सम्पदा, प्रखर बुद्धि और कोटि-कोटि मानवों की प्रचण्ड शक्ति उस निरर्थक झंझट का परित्याग कर सुख संवर्धन की दिशा में प्रयुक्त होगी तो न अभावों का अस्तित्व ही रहेगा न दारिद्र्य के दर्शन होंगे। चिन्ता और विक्षोभों की जलन से जब बुद्धि को छुटकारा मिलेगा तो वह उस स्तर पर सोचेगी जिससे मनुष्य की गरिमा में चार चाँद लगें। जब 350 करोड़ इस धरती के निवासी परस्पर स्नेह सहयोग के साथ रहेंगे और उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व में संलग्न रहेंगे तो कोई कारण नहीं कि कल्पित स्वर्ग से बढ़कर सुख-शान्ति भरी परिस्थितियाँ इस धरती पर दृष्टिगोचर न होने लगें।

इन परिस्थितियों को समीप लाने के लिए मानवी और अति मानवी शक्तियाँ इन दिनों जिस तत्परता के साथ सक्रिय हो रही हैं, उन्हें देखते हुए यह विश्वास किया ही जाना चाहिए कि नवयुग के अवतरण में न तो अविश्वास का कोई कारण है और न देर तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता।

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