
प्रगति और सफलता के लिए समर्थ सहयोग की आवश्यकता
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गुरुदेव की साधन सफलता के उनने दो कारण बताये एक अन्तः भूमिका का ऐसा परिमार्जन जिसमें दिव्य विभूतियों का अवतरण सम्भव हो सके तथा जहाँ वह स्थिर रूप से निवास कर सकें। दूसरा समर्थ मार्गदर्शक की उपलब्धि। इन दोनों उपलब्धियों को जो कोई भी प्राप्त कर लेगा वह उन्हीं की तरह आत्मिक प्रगति के पथ पर सुनिश्चित गति से सरलता और सफलता पूर्वक पहुँच सकेगा।
गुरु शिष्य की भूमिका को उन्होंने अध्यात्म मार्ग का सघन सहयोग बताया और अन्ध पंगु के समन्वय से नदी पार करने जैसी स्थिति बताया। जहाँ शिष्य समर्थ गुरु की सहायता से आगे बढ़ता है वहाँ गुरु भी अपने ऋण से उऋण होता है।
पारस्परिक सहयोग की अविच्छित प्रक्रिया ही विकास का ही नहीं आनन्द का भी आधार है। भौतिक जगत में पग पग पर इस तथ्य को अनुभव किया जा सकता है। परमाणु जिसे सबसे छोटी इकाई माना जाता है एकाकी नहीं वरन् न्यूट्रोन प्रोटोन आदि अपने सहयोगियों के आधार पर ही सृष्टि का क्रिया कलाप संचालित किये रह सकने में समर्थ होता है। आकाश में ग्रह नक्षत्र पारस्परिक आकर्षण में जकड़े रहने के कारण ही आकाश में अधर लटके हुए है। पंच तत्वों का सम्मिश्रण यदि न हो तो इस विश्व का अस्तित्व ही प्रकाश में न आये। हर कोई जानता है कि विवाह बन्धन के साथ कितने उत्तरदायित्व, बन्धन और कर्त्तव्य जुड़े हुए हैं। उन्हें निवाहते निवाहते आदमी का कचूमर निकल जाता है। नारी को प्रसव की विकट पीड़ा, शिशु पालन का कठिन-तम कार्य और पति तथा ससुराल वालों को प्रसन्न रखने में लगभग आत्म समर्पण जैसी तपस्या करनी पड़ती है। नर को भी कम भार वहन नहीं करना पड़ता। इन कठिनाइयों से परिचित होते हुए भी हर कोई विवाह की आशा लगाये बैठा रहता है और वैसा अवसर आते ही हर्षोल्लास अनुभव करता है। जिन दाम्पत्य जीवन में सघन आत्मीयता विकसित होती है उन्हें वह पारस्परिक सान्निध्य स्वर्गोपम प्रतीत होता है। अगणित कठिनाईयों को वहन करते हुए भी हर घड़ी आनन्द उमड़ता रहता है यह सब देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि व्यक्तियों की आत्मिक घनिष्ठता कितनी तृप्ति और कितनी शाँति प्रदान करती है।
पति पत्नी का तो ऊपर उदाहरण मात्र दिया गया है। रिश्ते कुछ भी क्यों न हों- पुरुष पुरुष-और नारी नारी के बीच भी ऐसी आन्तरिक सघनता हो सकती है। उस मित्रता को किसी भी रिश्ते का नाम दिया जा सकता है और बिना रिश्ते के केवल आत्मीय माना जा सकता है। यही ‘प्रेम’ है। प्रकृति के अनुरूप व्यक्तियों से आरम्भ होकर यह मनुष्य समाज- प्राणि मात्र और तदनन्तर विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त जड़ चेतन में प्रेम फैलता विकसित होता चला जाता है। आनन्द का उद्भव और विस्तार यहीं से होता है। अन्तःकरण की कोमलता, मृदुलता, सरलता और सरसता ही वस्तुतः मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है, जो स्नेह सिक्त है, जो प्रेमी है, जो सहृदय और उदार है उसे ही आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न सिद्ध पुरुष कहना चाहिए। ऐसा व्यक्ति ही महा मानव, देवदूत और दिव्य सत्ता सम्पन्न कहलाता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जिसे प्राप्त हो गया, समझना चाहिए कि उसने पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर लिया। अभाव तो एकाकीपन में ही है।
अध्यात्म साधना के क्षेत्र में प्रगति करने के लिये भी यह सहयोग नितान्त आवश्यक है। राम और लक्ष्मण का युग्म ही लंका विजय में समर्थ हुआ है। महाभारत की सफलता कृष्ण और अर्जुन के मिलन ने सम्भव की थी। छात्र कितना ही परिश्रम करे बिना शिक्षक के मौखिक या लिखित ज्ञान दान के बिना उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकने में समर्थ नहीं होता। कला, शिल्प, विज्ञान, चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण विषयों के विद्यार्थी मात्र मौखिक ही नहीं क्रियात्मक व्यावहारिक शिक्षा भी प्राप्त करते हैं। इसके बिना वे अपने विषय में निष्णात पारंगत नहीं हो सकते।
गुरु और शिष्य मिलकर यही प्रयोजन करते हैं। कान में मन्त्र फूँक देना या कर्मकाण्ड विधि विधान बता देने से काम नहीं चल सकता। उन्हें अपनी शक्ति का एक अंश भी देना पड़ता है। इस अनुदान के बिना आत्मिक प्रगति के पथ पर बहुत दूर तक नहीं चला जा सकता। पहाड़ों की ऊंची चढ़ाई चढ़ने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है। छत पर चढ़ने के लिए सीढ़ी का अवलम्बन चाहिए। यही प्रयोजन आत्मिक प्रगति के पथ पर चलने वाले पथिक के लिए उसका मार्ग दर्शक-एवं साथी सहयोगी पूरी करता है। गुरु की आवश्यकता इसी प्रयोजन को पूर्ण करने के लिये पड़ती है।
माता के उदर में रखे बिना, अपना रक्त, माँस दिये बिना, दूध पिलाये और पालन किये बिना भ्रूण की जीवन प्रक्रिया गतिशील नहीं हो सकती। बालक भोजन, वस्त्र, आदि की सुविधायें स्वयं उपार्जित नहीं कर सकता उसे इसके लिये अभिभावकों की सहायता अभीष्ट होती है। छात्र अपने आप पढ़ सकता है पर उसे पुस्तक, फीस आदि का खर्च पिता से और शिक्षण सहयोग अध्यापक से प्राप्त करना पड़ता है इसके बिना उसका शिक्षा क्रम मात्र एकाकी पुरुषार्थ से नहीं चल सकता। माता-पिता अपनी सन्तान का पालन-पोषण करते हैं वे बच्चे बड़े हो जाने पर अपने बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी उठाते हैं। यही क्रमानुगत परम्परा चलती रहती है। अध्यात्म मार्ग की प्रगति प्रक्रिया भी इसी प्रकार चलती है। गुरु अपने शिष्य को अपनी तप पूँजी प्रदान करता है। तदुपराँत शिष्य भी उसे अपने लिये दाब कर नहीं बैठ जाता वरन् उस परम्परा को अग्रगामी रखते हुए अपने छात्रों की सहायता करता है।
यों धर्म के दस लक्षणों और यम नियम के दस योग आधारों का पालन करते हुए कोई भी व्यक्ति सहज सरल रीति-नीति से जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। न इसमें किसी गुरु की आवश्यकता है न शिष्य की। राजमार्ग पर सही पैरों से चल पड़ने वाला व्यक्ति-मील के पत्थरों को देखते गिनते यथा स्थान पहुँच सकता है पर जिसे उस यात्रा के समीपवर्ती अद्भुत स्थलों को देखना जानना और वहाँ मिलने वाली उपलब्धियों से लाभाँवित होना हो उसे उस क्षेत्र से परिचित और उपलब्ध हो सकने वाली वस्तुओं को देने दिलाने में कुशल किसी अनुभवी सहयोगी की आवश्यकता पड़ती है। यदि यह सुयोग न मिल सके तो फिर यात्रा चलती रहती है पर वह नीरस एवं अतिरिक्त उपलब्धियों से रहित एक गति शीलता मात्र ही रह जाती है। अध्यात्म पक्ष में प्रगति करते हुए- उस यात्रा से सम्बन्धित विभूतियों को प्राप्त करते हुए हर्षोल्लास का आनन्द लेते चलना हो तो फिर कुशल सहयोगी की सहायता अनिवार्य ही हो जायेगी। गुरु शिष्य का सम्मिलन सम्मिश्रण उसी आवश्यकता की पूर्ति करता है।
मेडीकल कालेज में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में वह सब कुछ लिखा है जो वहाँ पढ़ाया जाता है अथवा