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Magazine - Year 1974 - Version 2

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दुराग्रह छोड़ने से ही सत्य के निकट पहुंचेंगे

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हम जो सोचते है वह सही है—हम जो चाहते है वह उचित है। इस दुराग्रही मान्यता ने मानवी प्रगति में अत्यधिक बाधा उत्पन्न किया है और संसार की शांति में भारी व्यवधान उत्पन्न किया है। अधिकाधिक उपभोग का अधिकार हमें है—दूसरों को अभावग्रस्त रहना पड़े तो वक रहें हमें इसकी क्या चिन्ता है यह विचार जितना संकीर्ण स्वार्थवाद से भरा हम जो सोचते हैं वही सही है—हम जो जानते या मानते हैं उससे बाहर सत्य का अस्तित्व नहीं है। हमारी चाहना ही न्यायोचित है। उस चाहना की पूर्ति में दूसरों के स्वार्थ यदि टकराते हों तो भी उनकी उपेक्षा करके अपनी ही इच्छा पूर्ण होनी चाहिए। इस तरह सोचना, चिन्तन की निष्कृष्ट संकीर्णता है उससे अन्याय का ही पोषण हो सकता है और संघर्ष विद्वेष ही बढ़ सकता है।

सूरज इतना छोटा नहीं है कि उसे एक छोटे कमरे में बन्द किया जा सके समग्र सत्य इतना तुच्छ नहीं है कि किन्हीं मनुष्यों का नगण्य सा मस्तिष्क उसे पूरी तरह अपने में समाविष्ट कर सके। समुद्र बहुत बड़ा है उसे चुल्लू में लेकर हममें से कोई भी उदरस्थ नहीं कर सकता। सत्य को जितना हमने जाना है हमारी समझ और दृष्टि के अनुसार वह सत्य हो सकता है—एस पर श्रद्धा रखने का हर एक को अधिकार है। किन्तु इससे आगे बढ़कर यदि ऐसा सोचा जाने लगा कि अन्य लोग सोचते हैं वह सब कुछ केवल असत्य ही है तो यह मान्यता महान् सत्य की अवमानना ही होगी।

एक ही उद्देश्य के लिए कई तरह सोचा जा सकता है। एक ही लक्ष्य तक पहुंचने के कई रास्ते हो सकते हैं। एक ही कार्य को कई ढंग से किया जा सकता है एक ही भाव को कई भाषाओं में कई तरह व्यक्त किया जा सकता है। दन भिन्नताओं के रहने पर भी तात्विक एकता बनी ही रहेगी। समुद्र में असंख्यों लहरें उठती रहती हैं, इससे उस अथाह जलराशि की एकता खण्डित नहीं होती। सत्य सूर्य की तरह विशाल है जिसमें सात रंग की प्रमुख और हजारों रंगों की गौण किरणें निरन्तर प्रवाहमान रहती है सूर्य विभिन्न स्थानों पर वहाँ की परिस्थितियों के कारण कई रंगों का और कई आकारों का दीखता है। सवेरे का सूर्य बड़ा होता है और लाल रंग का। मध्याह्न को वह छोटा हो जाता है और उजले रंग का। इसी प्रकार कुहरे में, हिमप्रदेश में—रेगिस्तान में, ग्रहण काल में उसकी आभा भिन्न−भिन्न प्रकार की दृष्टिगोचर होती हैं। यह भिन्नताएं सूर्य की नहीं स्थानीय परिस्थितियों के कारण उसके परिलक्षित होने की है। सूर्य एक है—एक सा और एक रस है तो भी उसकी जो भिन्नता दीख पड़ती है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। सत्य के सम्बन्ध में भी यही बात है। कौन-सी मान्यता कौन सी क्रिया सत्य है इसका निर्णय कर सकना इतना सरल नहीं है जितना कि समझ लिया गया है। यदि दृश्यमान भिन्नताओं के कारण अनेकों परस्पर विरोधी सूर्यों की कल्पना की गई तो वह अवास्तविक ही होगी। वह हठवादिता सत्य की शोध अथवा उपलब्धि से और भी अधिक पीछे पड़ जायेगी।

हो सकता है कि दूसरे भी हमारी ही तरह सद्भाव सम्पन्न हो और अपनी समझ के अनुसार सदुद्देश्य के लिए वह क्रिया−कलाप अपना रहें हो जो हमें अनुपयुक्त लगता है रोष, द्वेष और विग्रह ऐसी ही पक्षपात भरी दुराग्रही मनःस्थिति के कारण होता है। यदि हम बाह्य क्रिया−कलाप की अपेक्षा कर्त्ता के उद्देश्य को समझने का प्रयत्न करें तो यथार्थता के निकट पहुंच सकते है। तब प्रतीत होगा कि उस भिन्नता में भी एकता का बड़ा आधार मौजूद है धर्म मान्यताओं की भिन्नताओं के सम्बन्ध में यही तथ्य सोलहों आना लागू होता हैं। संसार में अनेकों धर्म प्रचलित हैं। उनके रीति−रिवाजों एवं दिशा निर्देशों में काफी अन्तर पाया जाता है, फिर भी उनका मूल उद्देश्य एक है—अनुयायियों को संयमी, सदाचारी, उदार, सज्जन और दूरदर्शी बनाना। विभिन्न स्थानों के —विभिन्न स्तर के व्यक्तियों से मनीषियों ने भूतकालीन मान्यताओं के साथ ताल−मेल मिलाते हुए अपेक्षाकृत अधिक सुधरे हुए निर्देश देने के लिए धर्म संप्रदायों की रचना की है। इन सभी धर्म संस्थापकों का उद्देश्य एक था—सत्य के निकटतम स्थान तक पहुँचना और पहुँचाना।

सूर्य स्थिर नहीं—पवन अचल नहीं इसी प्रकार सत्य सदा सर्वदा के लिए एक जैसा नहीं रह सकता। व्यक्तियों और परिस्थितियों के अनुरूप उसका स्वरूप बदलता रहता है। जो मान्यताएँ और प्रथाएँ आज से दो हजार वर्ष पूर्व उपयोगी थीं वे आज भी वैसी ही हों यह आवश्यक नहीं। अति प्राचीन काल में घी के और पीछे तेल के दिये जला करते थे; अब बिजली की सस्ती और सरल रोशनी का प्रबन्ध हो जाने पर दीपक जलाने की उपयोगिता सिद्ध करने और उसी पर जोर देने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक समय की उपयोगिता अब अनुपयोगिता में बदल गई। दीपक का आविष्कार करने वाला किसी समय अति सम्मानित वैज्ञानिक घोषित किया गया होगा, पर अब उसकी गरिमा प्रतिपादित करने में—गुण गान करने में उतना उत्साह नहीं जगाया जा सकता। समय बदल जाने से परिस्थितियाँ बदल गई साथ ही मूल्याँकन भी बदला, इस तथ्य को ध्यान में रखने वाले कभी इस बात पर नहीं लड़ेंगे कि दीपक की उपयोगिता और उसके आविष्कारक भी हैं या नहीं। परिस्थितियाँ बदलने से प्रतिपादन भी बदलेंगे ही। इसमें सत्य की वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। सर्दी में गरम कपड़े और गर्मी में ठंडे कपड़े पहनना सत्य की अवज्ञा नहीं है। बाहर से परस्पर विरोधी दीखने वाली इन भिन्नताओं के मूल में एक ही तथ्य है—’ऋतु प्रभाव से शरीर की रक्षा।’ अस्तु दोनों ही पद्धतियाँ अपने−अपने स्थान पर उपयोगी हैं और गाह्य भी। धर्म मान्यताओं से लेकर सामाजिक रीति−रिवाजों तक के सम्बन्ध से यही बात लागू होती है। संसार के अनेक देशों और अनेक जातियों में परिस्थितियों और परम्पराओं के कारण चित्र−विचित्र मान्यताएँ प्रचलित हैं। इनमें से अपनी की सत्य और दूसरे सबों की असत्य मानने की संकीर्णता प्रायः सर्वत्र देखी जाती है। घृणा और द्वेष इस संकीर्ण बुद्धि के कारण पनपते हैं और दूसरों को बदलने के लिए बल प्रयोग से लेकर ऐसे उपायों का अवलम्बन किया जाता है जो अधर्म से भी बुरे हैं। धर्म की सेवा के लिए अधर्म का उपयोग—यह एक विचित्र कार्य है। पर यह विचित्रता प्राचीन काल में भी थी और अब भी पाई जाती है। धर्मा के बीच विद्वेष और आक्रमण का दौर अभी भी कम नहीं हुआ है। आये दिन दंगे होते है और खून खराबी की घटनाएँ घटित होती हैं; यह धर्मान्धता कई बार तो इतनी बढ़ जाती है कि भिन्न सम्प्रदाय के अनुयायी होने के अपराध में अगणित निरीह, निर्दोषों को गाजर, मूली की तरह काटकर रख दिया जाता है। इस विडम्बना को देखकर कई बार तो धर्म की उपयोगिता स्वीकार करने में भी कठिनाई होती है।

दर्शन, राजनीति, आहार−बिहार, आचार−विचार रहन−सहन, खान−पान, धर्म, संस्कृति में यदि विश्व−व्यापी एकता लाई जा सके तो सबसे उत्तम हैं, इससे मानव परिवार की एकता और व्यवस्था में निश्चय ही सहायता मिलेगी। पर जब तक यह दुराग्रह वातावरण उसके लिए तैयार नहीं तब तक इतना तो हो ही सकता है कि भिन्न विचारधारा वालों की मान्यताओं और गतिविधियों में जितना अंश सर्वोपयोगी है उतने को सहज सम्मान प्रदान करें और उतनी एकता को अधिक घनिष्ट एवं परिष्कृत बनाते चलें। इससे जहाँ सत्य की उपलब्धि में आँशिक सहायता मिलेगी वहाँ एक लाभ और भी होगा—वह है कट्टर दुराग्रह से आगे बढ़ कर यथार्थता का पता लगा सकने वाली उदार विवेक बुद्धि का विकास। इसी के आधार पर तो कूड़े के ढेर में बिखरे पड़े मोतियों को बीनना और उनकी एक सुसज्जित माला बना सकना सम्भव होगा।

भिन्नता के बीच एकता के सूत्रों को तलाश करने की प्रवृत्ति को जगाया जा सके तो ही दुराग्रह के बन्धन शिथिल हो सकेंगे और संकीर्णता की उस परिधि से आगे कदम बढ़ सकेंगे यह समग्र सत्य की उपलब्धि में सबसे बड़ी बाधा है। हम सब सत्य को प्यार करते हैं और उसे पाना चाहते हैं—इतना उच्च उद्देश्य रहने पर भी न जाने क्यों यह समझने का कष्ट नहीं किया जा सकता कि सत्य असीम है−उसे सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता और न यही कहा जा सकता है कि अमुक वर्ग के लोगों ने सत्य को जिस प्रकार समझा है वही ठीक है। उसके अतिरिक्त अन्य सभी मान्यताएँ गलत हैं। ऐसा मानना सत्य की गरिमा महिमा और विशालता को एक अत्यन्त छोटे दायरे में अवरुद्ध करने की तरह अवाँछनीय ही होगा और उपहासास्पद भी।

हम पक्षपात रहित सत्य शोधक दृष्टिकोण को अपना सकें और तर्क तथा तथ्य का अवलम्बन लेकर यथार्थता का पता लगाने चल पड़े तो मस्तिष्क में जमी हठवादिता से भिन्न प्रकार के आधार सामने उभरते दिखाई पड़ेंगे। तब अपनी मान्यताओं में भी कितनी ही खामियाँ दिखाई पड़ेगी और प्रतीत होगा कि हमारी अपेक्षा अमुक मान्यता अधिक सार गर्भित है। इसी प्रकार अन्यान्य लोगों के समस्त विचार अधर्म मूलक लगते थे—सत्य शोधक दृष्टिकोण से निरीक्षण करने पर प्रतीत होगा कि उस पक्ष के पास भी ऐसे कितने ही आधार मौजूद हैं जिनकी सराहना की जा सके और ग्राह्य स्वीकार किया जा सके। सत्य की शोध एवं उपलब्धि के लिए इस परिष्कृत चिन्तन पद्धति को अपनाया जाना आवश्यक है अन्यथा हम यथार्थता का आग्रह करते हुए वस्तुतः दुराग्रही हठवादिता के ही चंगुल में जकड़े रहेंगे। सत्य शोधक को जो लाभ मिलने चाहिए वे हमें कभी भी प्राप्त न हो सकेंगे।

कर सकने योग्य तीक्ष्णता से सम्पन्न करना होगा। विवेक युक्त विवेचन कर सकने और गहराई तक प्रवेश कर सकने योग्य चिन्तन को उभारना होगा। अगले दिनों मानव समाज को एक बनकर रहना होगा। एकता की उपासना करनी होगी साथ ही चिन्तन और कर्त्तव्य को प्रेरणा देने वाली सार्वभौम यथार्थता के निकट पहुँचना होगा। भटकाव और विलगाव पर विजय प्राप्त करके स्नेह, सौहार्द्र बढ़ाने के लिए यदि आगे बढ़ना हो तो उसका एक ही तरीका है—सत्य शोधक—पक्षपात रहित दृष्टिकोण का विकास और उसके आधार पर उपयुक्त सिद्ध होने वाले तथ्यों को अपना सकने योग्य साहस का संचय सम्पादन और अभिवर्धन।

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