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Magazine - Year 1974 - Version 2

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नवजीवन का सृजन फिर समुद्र से ही होगा

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अपनी इस शताब्दी में मनुष्य के हाथ अणु विस्फोट के माध्यम से उत्पन्न होने वाला एक ऐसा शक्ति स्त्रोत हाथ लगा है। जिसे मानवी इतिहास की ऊद्यावधि उपलब्धियों में अनुपम एवं अभूतपूर्व ही कहा जा सकता है। यदि इसे रचनात्मक प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सका तो बात अलग है अन्यथा आज की दुर्बुद्धि अणु आयुधों के माध्यम से महाविनाश ही उत्पन्न करेगी। अगला विश्वयुद्ध अणु शस्त्रों से लड़ा जायगा, उसमें कोई हारेगा जीतेगा नहीं, वरन् संसार भर का वातावरण विषाक्त हो जाने से सभी थलचरों को मृत्यु के मुख में जाना पड़ेगा।

यदि महामरण प्रस्तुत हुआ तो क्या मानव जाति एवं प्राणियों का अस्तित्व इस धरती पर से सदा के लिए समाप्त हो जायगी इस प्रश्न पर गम्भीर विचार करने के उपरान्त मनीषी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि तब फिर उसी प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होगी जिसके द्वारा कि पिछले दिनों सृष्टि का आरम्भ हुआ था। जीवन समुद्र से उत्पन्न हुआ था और मानव कृत महाप्रलय के पश्चात भी उसकी शुरुआत वहीं से फिर होगी।

जलचरों और थलचरों के मृत−शरीर अन्ततः समुद्र तल में ही चले जाते हैं और समुद्र डडडड पक बन जाते हैं। इससे पूर्व उनका कोमल भाग जीवित छोटे−छोटे जलचरों का आहार बन जाता है और कठोर भाग तली में जा जमता है। समुद्र में 600 से 1000 फुट नीचे की गहराई में सूर्य की किरणें नहीं पहुँचती। वहाँ केवल एक विशेष प्रकार के जल जीव ही रहते हैं।

अगले परमाणु युद्ध में सबसे पहले मनुष्य प्राणियों का सफाया होगा। वे बम गिराये ही आबादी केंद्रों पर जायेंगे। रहे बचे विषाक्त वातावरण की घुटन में अथवा वैसे ही अन्न−जल के उपयोग से मर खप जायेंगे। पशु− पक्षियों और कीट− पतंगों की भी यही दुर्दशा होगी। उनके कंकाल घुमा फिर कर समुद्र की शरण में जा पहुंचेंगे। उन्हें खाकर जीवों को भी मृत्यु के मुख में जाना पड़ेगा। समुद्र पर भी इस बम वर्षा का प्रभाव पड़ेगा और उसकी ऊपरी परत पर रहने वाली मछलियाँ और दूसरे प्राणी इस संसार से विदा हो जायेंगे।

इतने पर भी समुद्र की अति गहराई में कुछ छोटे किस्म के अविकसित प्राणी बच जायेंगे। समुद्र इतना गहरा और इतना विशाल है कि वह तीन−चार हजार अणु बमों को पचा सकता है और उसकी गहरी अँधेरी परत में रहने वाले प्राणी जीवित रह सकते हैं। अणु युद्ध की महाप्रलय के पश्चात धरती की सृष्टि के सूत्राधार यही मारकण्डेय साक्षी रूप से जीवित रहेंगे।

सम्भवतः बड़ी मछलियाँ अजगरों के रूप में धरती पर विचरण करने लगें और उन्हीं में बुद्धिमान स्तर के जो निकलें वे लेटने, सरकने वालों की दुनिया बसाये। कहा नहीं जा सकता कि अणुप्रलय के बाद के प्राणियों को, विकास क्रम अपनाकर बुद्धिमान और सभ्यताभिमानी बनने तक कितने उतार−चढ़ाव देखने पड़ेंगे और उनकी किस प्रकार की आकृति− प्रकृति होगी। किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आज हम जिस स्तर के बुद्धिमान हैं वहाँ तक पहुँचने में इस नई सृष्टि को कम से कम 30 करोड़ वर्ष अवश्य लग जायेंगे।

जीवन का उदय ईश्वर की कृपा से हुआ था, मूर्ख मनुष्य उसका अन्त कर सकता है; किन्तु यदि पुनर्जीवन आरम्भ करने की आवश्यकता हुई तो वह फिर ईश्वरीय अनुग्रह से ही सम्भव होगी। विनाश में प्रवीणता प्राप्त मनुष्य सृजन की सम्भावनाओं पर विचार ही नहीं कर पाया। सृजन के लिए जिस देवत्व की आवश्यकता है उसे उपलब्ध करने के लिए उसे दीर्घकालीनतम साधना करनी पड़ेगी।

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