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Magazine - Year 1975 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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दोषारोपण से घृणा−घृणा से युयुत्सा

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मनोविकार बहुधा अपने को ही गलाते घुलाते रहते हैं; पर उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो आक्रामक स्तर के होते हैं और दूसरों को क्षति पहुँचाये बिना सन्तुष्ट नहीं होते हैं और दूसरों को क्षति पहुँचाये बिना सन्तुष्ट नहीं होते। चिंता, भय, निराशा जैसी प्रवृत्तियों में मनुष्य स्वयं ही घुटता रहता है और उस घुटन से अपनी आन्तरिक क्षमताओं को नष्ट भ्रष्ट करके दीन−दयनीय बनता चला जाता है। इसके विपरीत क्रोध, द्वेष, क्रूरता जैसे दोष आक्रामक होते हैं, उनका समाधान दूसरों को तिरस्कृत, पीड़ित, दंडित किये बिना होता ही नहीं। उद्धत अहंकार भी दूसरों को गिराकर तुलनात्मक दृष्टि से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के ताने−बाने बुनता रहता है। ईर्ष्या, कुढ़न, जलन अक्सर उद्धत अहंकार की प्रतिक्रिया ही होती है, वे दूसरों को अपने आक्रोश का निशाना बनाती है। छुटपुट, लड़ाई झगड़ों से लेकर महायुद्ध तक इसी पृष्ठभूमि पर विकसित होते हैं।

अपने पक्ष के किसी भी प्रतिपादन को सही सिद्ध करना और दूसरे पक्ष पर अनेकानेक दोषारोपण करना दूषित यह एक प्रचार तन्त्र है। इसी से प्रेरित होकर युद्धोन्माद भड़कता है और घृणा, द्वेष के बीज फलते फूलते हैं।

लड़ाई की अवाँछनीयता और सहयोग की उपयोगिता सिद्धान्त रूप से हर किसी को समझाई जा सकती, पर विकृत ‘अह’ उसे कथन श्रवण तक ही सीमित रखता है और मान्यता, भावना एवं क्रिया की गहराई तक उसे उतरने नहीं देता। जो हम सोचते हैं वही उचित है—जो हम चाहते हैं वही आवश्यक है। जब ऐसी मान्यता जम गई हो तो फिर अपनी बात का अन्ध समर्थन और दूसरे पक्ष पर अनेकानेक दोषारोपण करने में तर्क बुद्धि जुट जाती है और तिल को ताड़ बनाकर ऐसी विभीषिकाएँ रच देती है जिनसे निपटने के लिए युद्ध के अतिरिक्त और कोई चारा ही दिखाई न पड़े। “हमारा नहीं दोष दूसरों का है” सिद्ध करने की जब पहले से ठान ठन गई हो तो सन्तुलित विचार विनिमय के लिए कोई गुंजाइश नहीं रहती—मात्र निर्णित विवाद हो सकता है। प्रतिष्ठा का प्रश्न बन कर सुदृढ़ पूर्वाग्रह किसी भी सफाई या तर्क से झुक नहीं सकता। यदि दलीलें अपने पक्ष में कम पड़ती होंगी तो भी वह हारने वाला नहीं है—सामने वालों को दुर्बुद्धि एवं दुर्भावनाग्रस्त बताकर डटा अपनी ही बात पर रहा जायगा। विवेक का उदय पक्षपात रहित स्थिति में ही हो सकता है। उद्धत अहंमन्यता के तूफान में न्यायोचित तथ्य का पता लगाने वाले विवेक के पैर टिक ही नहीं पाते।

सभी जानते हैं कि द्वितीय महायुद्ध में आस्ट्रिया ने सर्विया को और जर्मनी ने पोलैंड को नीचा दिखाने के लिए जो आक्रमण किये थे वे सत्ता−मद में चूर पक्ष की उद्धत कार्यवाहियाँ थीं। समस्या उतनी जटिल नहीं थी कि सद्भावनापूर्ण आपसी विचार विनिमय से सुलझाई न जा सकी होती। यही बात व्यक्ति गत और वर्गगत विद्वेष विग्रहों में होती है। मनुष्य का ‘अहं’ सीमा लाँघकर जब उद्धत हो जाता है तो उसमें दूसरे पक्ष की कठिनाइयाँ और दलीलों को समझने की इच्छा ही नहीं रहती। युद्ध ही उसे सरल उपाय सूझता है। यदि इसके विपरीत न्याय और समन्वय की—दूसरे पक्ष की दलील और कठिनाई समझकर समन्वयात्मक मार्ग निकालने की इच्छा रही होती तो वह हल निकल सकता था जो दोनों को अपेक्षाकृत कहीं अधिक सस्ता पड़ता।

लड़ाइयाँ छोटी हों या बड़ी उनके मूल में मनुष्य की यह मान्यता काम करती है कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए दूसरों के साथ बलप्रयोग करना उचित और आवश्यक है। एक ग्रीक कहावत है—’शान्ति चाहते हो तो युद्ध की तैयारी करो” सशक्त पक्ष अपने अहं को प्रतिष्ठित करने के लिए छोटों के साथ दमन की नीति अपनाता है। इसमें उसे तिहरा लाभ प्रतीत होता है अपने अहं की तुष्टि − आतंक से दूसरे लोगों का डरकर आत्म−समर्पण करना और दूसरे भौतिक लाभों का कमा लेना । अस्तु युद्ध के पक्ष में शक्तिशाली पक्ष बहुत से कारण बताकर अपने लोगों को उत्तेजित करके दूसरे पक्ष पर चढ़ दौड़ने की भूमिका विनिर्मित करता है।

एक विद्वान का कथन है −भूखे लोग भोजन माँगते है − थके लोग विश्राम चाहते है और जब पागलपन सवार होता है तो लोग लड़ने पर उतारू हो जाते हैं।

युद्ध कितने महँगे, कष्टकर, विनाशकारी एवं अगणित समस्याएं उत्पन्न करने वाले होते हैं यह अब अधिक अच्छी तरह समझा जाने लगा है। किसी जमाने में यह समझा जाता था कि शान्ति रक्षा एवं आत्म रक्षा के लिए युद्ध की तैयारी करना आवश्यक है, पर पदार्थ विज्ञान और मनोविज्ञान के गहन निष्कर्षों ने हमें इस नतीजे पर पहुँचाया है कि लड़ाई से कोई समस्या का हल नहीं होता। द्वेष प्रतिशोध का कुचक्र परस्पर आक्रमण के दावघातों का ताना बाना बुनता है, समयानुसार दोनोँ पक्ष एक दूसरे को अपनी−अपनी दुरभिसंधियों का निशाना बनाते हैं और उस शृंखला का अन्त तब होता है जब दोनों पक्ष लगभग अपनी क्षमता नष्ट कर चुके होते है विजेता और पराजित दोनों ही लगभग समान रूप से क्षतिग्रस्त होते हैं । इसलिए उनकी निरर्थकता है । अब विचार विनिमय, न्याय, तर्क, औचित्य आदि के आधार पर ऐसे निष्पक्ष व्यक्तियों द्वारा निर्णय कराने और उसे दोनों पक्षों द्वारा स्वीकार किये जाने को मान्यता देकर मतभेदों को दूर करने की बात ही उचित मानी जानी चाहिए ।

लड़ाई अब दिन ब दिन इतनी महंगी होती जा रही है कि उनका भार उठाना सामान्य स्तर के देशों या लोगों के लिए सम्भव नहीं रह गया है ।

जूलियर सीजर के समय लड़ाई में एक सैनिक मारने के लिए 75 सेन्ट खर्च पड़ता था । पीछे नेपोलियन के जमाने में वह बढ़कर में वह बढ़कर 21 डालर हो गया । दूसरे विश्व युद्ध में उसकी दर और बढ़ी और एक सैनिक मारने के लिए 50 हजार डालर खर्च करने पड़े। वियतनाम की लड़ाई में वह सात गुना बढ़ गया है। एक सैनिक मारने पर अमेरिका को 3,44,827 डालर खर्च करना पड़ा । दूसरे युद्ध में विश्व की अपार सम्पत्ति युद्ध में ही इतना धन लग गया जिससे उस छोटे से देश को जापान की बराबर समृद्ध और समुन्नत बनाया जा सकता था ।

इतना सब होते हुए भी राष्ट्रीय स्तर पर बड़े युद्ध होते है और व्यक्ति स्तर पर अथवा दलबन्दी के आधार पर छोटे लड़ाई−झगड़े। इनके पीछे कुछ व्यक्तियों की ‘युयुत्सा’ही काम कर रही होती है । वे तनिक से कारणों को लेकर युद्धोन्माद पैदा करते हैं और धन −जन की अपार हानि खड़ी कर देते हैं।

घरों में जरा जरा सी बात पर विग्रह खड़े होते हैं । पुरुषों द्वारा स्त्रियों पीटा जाना − स्त्रियों द्वारा बच्चों की पिटाई−पालतू पशुओं को धुन डालना, कीड़े−मकोड़ों को कुचल डालना,पक्षियों का अन्धाधुन्ध शिकार जैसे क्रूर कृत्य किसी को कोई बड़ा लाभ नहीं देते तो भी लोग उन्हें करते है और प्रसन्न होते हैं। यह क्रूरता एक मानसिक आवेश है जो धन लोभ के साथ मिलकर सामान्य लोगों को दुर्दान्त दस्यु बना देता है ।

हत्याओं और आत्म−हत्याओं को दौर अब क्रमशः बढ़ता ही जाता है। मृत्युदंडों, दुर्घटनाओं और युद्ध में जितने आदमी मरते हैं, उससे कहीं अधिक आत्महत्याओं और हत्याओं से मरते है। इनके कारण ढूंढ़ने पर आश्चर्य होता है कि इतनी छोटी बात के लिए इतना बड़ा कुकृत्य कैसे बन पड़ा । ऐसे कारण तो अक्सर आते रहते हैं −सम्भवतः उस हत्या करने वाले के जीवन में भी न्यूनाधिक मात्रा में आते रहे होंगे । पहले जब अवसर चुका दिये गये तो इसी बार क्या आफत आ गई उतना कुकृत्य बन पड़ा, जिसके लिए अनंत पश्चाताप ही हाथ रह गया?

यह आवेश ही है जो मनुष्य के सिर पर कभी कभी उन्माद की तरह हावी हो जाता है। उस समय उसे जो कुछ भी सूझ पड़े वह कर गुजरता है । आवेश का दबाव इतना असह्य हो जाता है कि यह उससे पीछा छुड़ाने के लिये हत्या−आत्म हत्या या और भी जो कुछ उसे सूझ पड़े वह कर गुजर सकता है वस्तुतः वह प्रयास अपने ऊपर तनाव से पीछा छुड़ाने के लिए किया गया भोंड़ा उपचार मात्र होता है जिसे न्याय संहिता एवं समाज व्यवस्था के अनुसार जघन्य अपराध ही गिना जायगा ।

अपराधों के मूल में इतने ठोस कारण नहीं होते जितने कि मानसिक आवेशों के, चारी, उठाईगीरी करने वाले निर्धन नहीं होते−मजबूरी में वैसा नहीं करते। वाले निर्धन नहीं होते −मजबूरी में वैसा नहीं करते। उनकी सामान्य स्थिति अन्य लोगों की तरह ही काम चलाऊ होती है चाहें तो वे प्रयत्न या पुरुषार्थ से सामान्य लोगों की तरह कुछ अधिक भी कमा या पा सकते है जिससे कोई तात्कालिक काम अड़ गया हो तो उसे पूरा किया जा सके । पर बात ऐसी कुछ भी नहीं होती। चोरी एक आदत है जिसका आरम्भ छोटे−छोटे कदमों से होता है और पीछे वह पक्की नशेबाजी की स्थिति में पहुँचकर मनुष्य चैन ही नहीं पड़ता। व्यभिचार का कारण भी उस तरह की सुविधा न होना नहीं वरन् एक विशेष कौतुक−कौतूहल का रसास्वादन होता है व्यभिचारियों में से सभी के दाम्पत्य जीवन असंतुष्ट नहीं होते। उनकी ललक ही वैसी कुछ उथल पुथल का ताना बाना बुनती रहती है और जब अवसर मिल जाता है तो उस तरह की घटना भी बना लेती है । पीछे भले ही उसके लिए पश्चात्ताप किया जाता रहे ।

मानसिक उद्विग्नता है तो मनोरोग ही, पर वह नशेबाजी की तरह अपने प्रकटीकरण का अवसर मिलने पर ही बढ़ती है अन्यथा खाद, पानी न मिलने पर जिस तरह पौधे सूख जाते है, उसी तरह वह भी घट या मिट जाती है ।

अपराधियों को दुष्ट, पापी समझा जाता है यह आरोप एक हदतक ही सही है अपराध करने की क्रमबद्ध योजना बनाना और उसके लिए बुद्धिमत्तापूर्ण ताना−बाना बुनना भी कम नहीं होता। इसमें आवेश नहीं−मनुष्य का भ्रष्ट जीवन दर्शन ही काम कर रहा होता है उसे नीति, निष्ठा, आदर्शवादिता एवं मानवी शालीनता पर विश्वास नहीं होता। अपने आपको हेय नीच, निकृष्ट, पतित स्थिति में रख लेने पर फिर संसार का कोई काम घृणित नहीं रह जाता । जिस प्रकार भी स्वार्थ सिद्ध हो वह सब कुछ उचित लगता है । बुद्धि को उचित अनुचित का ज्ञान न होता हो ऐसी बात नहीं है पर बुद्धि सदा से आस्थाओं की अनुगामिनी रही है विश्वासों के आधार पर जीवन की दिशा बनती है मूल में इच्छा शक्ति ही होती है जिस श्रद्धा,भगवान आस्थाएँ यदि निष्कृष्ट हैं तो मनुष्य की मानसिक और शारीरिक गतिविधियाँ उसी स्तर के प्रयत्नों में संलग्न रहेंगी। अपराधी की हरकतें हरकतें करते रहने वालों में से कितने ही अपना अन्तःकरण निकृष्ट रहने वालों के से कितने ही अपना अन्तःकरण निकृष्ट स्तर बना चुके है और वे उसी प्रकार का ताना बाना बुनते रहते है। उनकी अपराध शृंखला में नई नई कड़ियां जुड़ती जाती है।

किन्तु अधिकाँश अपराधी ऐसे नहीं होते वे मानसिक सन्तुलन की क्षमता गवा बैठते है विवेक और मनोबल की दुर्बलता बढ़ जाने के कारण आवेशों पर अंकुश रख सकना उनके हाथ में नहीं रहता और आवेश उन्माद में वे ऐसे कृत्य कर बैठते है जैसे दूसरों को करते देखकर वे स्वयं भी घोर घृणा कर सकते हैं ।

चोर वस्तुतः बहुत डरपोक होता है पकड़ने जाने की आशंका जब सामने होती है तो सामने पड़ने वाले के प्राणहरण करने में उसे आपत्ति नहीं होती । पकड़े जाने पर उत्पन्न होने वाले संकट का नय उसके ऊपर बुरी तरह हावी होता है इस स्थिति में वह प्रति रोधी की हत्या से लेकर बचने के प्रयास में छत से कूदकर अपनी हड्डी−पसली तोड़ लेने तक के जोखिम उठा सकता है । सामान्य बुद्धि से चोरी के प्रयास में पकड़े जाना कोई मारी विपत्ति नहीं है उसमें कुछ महीने की कैद मर हो सकता है । कानूनी दाव पेंचों से वह छूट भी सकता है । यह पकड़े जाने का संकट इतना छोटा ही उसके सामने रहा होता तो आक्रमण करके पकड़े जाने पर मृत्युदण्ड का जोखिम क्यों उठाता? भय भी क्रोध की तरह ही एक भयावह है, आवेश जिससे ग्रसित व्यक्ति किंकर्तव्य विमूढ़ बनकर समय पर जो कुछ भी सूझ पड़े वही कर गुजरता है। पीछे भले ही उसे अपनी मूर्खता पर पश्चाताप करना पड़े।

देवी−देवताओं पर बलि चढ़ाने वालों की मनोदशा भी बड़ी विचित्र होती है। वे पशु−पक्षियों को ही नहीं अपने बालकों तक की निर्मम बलि चढ़ा देते हैं। इसमें उन्हें न तो घृणित नृशंसता की अनुभूति होती है न अपने कुकृत्य पर पश्चाताप। उलटे उन्हें अपने को धर्मात्मा, पवित्रात्मा होने का अनुभव होता है। यह धर्मोन्माद का आवेश है जिसमें सामान्य मानवी सहृदयता की भी बलि चढ़ जाती है।

साधारणतया अपराधों पर चिन्ता प्रकट की जाती है और उनकी रोकथाम का प्रयत्न किया जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि उस अनौचित्य की जड़ें काफी गहरी हैं। मानसिक रोगों की स्थिति यह बढ़ती ही गई तो फिर रोकथाम के राजकीय प्रयत्नों से कोई बड़ा प्रयोजन सिद्ध न हो सकेगा।

न्यूरेस्थेनिया के मरीज सदा अपराधों की भाषा में सोचते हैं। वैसा ही कुछ कर गुजरने का उनका मन होता है जिससे किसी न किसी पर विपत्ति आये—कोई न कोई कष्ट उठाये—किसी न किसी का नुकसान हो। इससे उन्हें अपने बड़प्पन का—शक्तिमत्ता का गौरव पा सकने का आभास होता है।

दूसरों के प्रति दुर्भावना रखने की आदत आरम्भ में बहुत छोटी होती है। छिद्रान्वेषण, दोषारोपण, निन्दा में रस लेना, कल्पना को लोगों की बुराइयाँ ढूँढ़ने में लगाना, अनुमान के आधार पर जिस−तिस को दुष्ट−दुराचारी मान लेना और सामने न सही पीठ पीछे निन्दा करते रहना, विकृत मन के लोगों को बहुत आवश्यक प्रमाण ढूँढ़ने का भी प्रयत्न नहीं करते। अपनी विकृत कल्पना को ही अमुक व्यक्ति को दुष्ट मान लेने के लिए पर्याप्त मान लेते हैं। दुष्टता के प्रति रोष होना स्वाभाविक है। रोष से घृणा पैदा होती है और घृणास्पद को हानि पहुँचाने के लिए मन में ताना−बाना बुना जाने लगता है। यही आदत बढ़ते−बढ़ते इस स्तर तक जा पहुँचती है कि मानसिक हिंसा प्रत्यक्ष आक्रमण के रूप में परिणत हो जाय और क्रूर कर्मों में रस लेने की आदत बनकर मनुष्य के जीवन को निकृष्ट स्तर तक पहुँचा दे।

अनावश्यक दुर्भावनाओं को मन में स्थान देना, दूसरों के लिए अशुभ सोचते रहना, औरों के लिए उतना हानिकारक नहीं होता, जितना अपने लिए। उचित यही है कि हम सद्भाव सम्पन्न रहें। जिनमें वस्तुतः दोष, दुर्गुण हों उन्हें चारित्रिक रुग्णता से ग्रसित समझकर सुधार का भरसक प्रयत्न करें, पर उस द्वेष दुर्बुद्धि से बचे रहें जो अन्ततः अपने ही व्यक्ति त्व को आक्रमण असुरता से भर देती है और दूसरों का ही नहीं अपना भी सर्वनाश प्रस्तुत करती है।

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