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Magazine - Year 1975 - Version 2

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एकाग्रता के लिए, ध्यान योग की साधना

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मनुष्य का मस्तिष्क अनन्त शक्तियों का भण्डार है, पर कठिनाई एक ही है कि वे बिखरी रहती हैं और एक स्थान पर केन्द्रित नहीं हो पाती; इसलिए उनका अभीष्ट लाभ नहीं मिलता। यदि उन्हें एकाग्र किया जा सके तो सामान्य स्तर का समझा जाने वाला मस्तिष्क भी तीक्ष्ण हो सकता है और आश्चर्यजनक कार्य कर सकता है।

सूर्य की बिखरी हुई किरणें यदि आतिशी काँच द्वारा एक छोटे केन्द्र पर एकत्रित की जा सकें तो दो इंच घेरे की धूप में ही अग्नि प्रकट हो सकती है और अवसर पाकर दावानल का रूप धारण कर सकती है। एकाग्रता की भी ऐसी ही शक्ति है, मस्तिष्क का बिखराव यदि एक बिन्दु पर इकट्ठा किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति अपने सामान्य मस्तिष्क से अद्भुत प्रतिभा का परिचय दे सकता है।

वैज्ञानिक, दार्शनिक, योगी, गणितज्ञ तथा अन्य महत्वपूर्ण कार्य करने वाले एकाग्रता के अभ्यस्त होते हैं। यह अभ्यास उन्होंने किन्हीं विशेष साधना व्यायामों के सहारे पूरे किये हैं या दैनिक सामान्य कार्यों को ही दत्त चित्त होकर करते रहने से इस विशेषता का विकास कर लिया है, यह अलग बात है;पर इतना निश्चित है कि एकाग्रता का अभ्यास किये बिना कोई प्रतिभाशाली मस्तिष्क भी महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ नहीं हो सकता। क्या आध्यात्मिक क्या भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा विकसित करने के लिए एकाग्रता का आश्रय लेना नितान्त आवश्यक है। अस्त−व्यस्त, चंचल और बिखरी हुई मनः स्थिति के व्यक्ति न किसी बात पर गहराई से विचार कर सकते हैं—न प्रयासों के बीच आने वाले उतार−चढ़ावों के पक्ष−विपक्ष को समझ सकते हैं। तन्मय होकर अभीष्ट प्रयोजन में जुट जाने की विशेषता भी उनमें नहीं होती अस्तु कोई कहने लायक सफलता भी किसी क्षेत्र में उनके पल्ले नहीं पड़ती।

भौतिक और आध्यात्मिक जगत में समान रूप से एकाग्रता को महत्व दिया जाता रहा है। योग की चित्त वृत्तियों के निरोध के रूप में महर्षि पातंजलि ने व्याख्या की है। योग साधना में प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह चार अंग विशुद्ध रूप से एकाग्रता की प्रगति के चार चरण हैं। भाव, चिन्तन और कर्तृत्व की तीन धाराएँ, जहाँ समन्वित होती हैं वहाँ मनुष्य तीर की तरह सनसनाता हुआ निकलता है और किसी भी लक्ष्य को बेध कर रख देता है। वैज्ञानिकों से लेकर तत्व दर्शियों तक की उपलब्धियों में मात्र एकाग्रता के अनुदान उपहार हैं।

हम अपने बिखराव को रोक कर नियत लक्ष्य की ओर द्रुतगति से बढ़ सकें, इसके लिए प्रत्येक कार्य को पूर्ण जागरुकता, अभिरुचि, तन्मयता और प्रसन्नता के साथ करने की आदत डालनी चाहिए। कर्म योग के व्याख्याकारों ने श्रेष्ठ कर्म को ईश्वर की पूजा कहा है। श्रेष्ठ का अर्थ है सदुद्देश्य पूर्ण और सुव्यवस्थित रीति से किया हुआ काम। यह एकाग्रता की अनवरत साधना ही होगी यदि हम जागने से लेकर सोने तक के प्रत्येक कार्य को ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिए अपना श्रद्धा−सिक्त उपहार मानें और उसे लाभ−हानि के तराजू पर न तोल कर अपनी मानसिक एवं शारीरिक स्तर की समीक्षा करते हुए परखें। यदि कोई कार्य पूरी जिम्मेदारी और सद्भावना के साथ करने पर भी असफल रहता है तो इसके कर्त्ता को तनिक भी खिन्न होने की आवश्यकता नहीं। उसने अपना कर्तव्य पूरी तरह निबाहा इतना भर होना किसी के लिए गर्व और गौरव की बात है, भले ही उसे सफलता न मिले।

विज्ञानी ऐडीसन अपने किसी प्रयोग में असफल होने पर इतना ही कहते थे−मैंने एक और ऐसा अनुभव बढ़ा लिया, जिसके आधार पर भविष्य में असफलता से बच जा सकेगा।

आशावादी यदि दुर्घटना ग्रसित होगा तो ईश्वर को धन्यवाद देगा कि उसका जीवन बच गया, मात्र थोड़ी सी चोट लगी। इसके विपरीत निराशावादी थोड़ी सी चोट के लिए भी अपने आप को, ईश्वर को और भाग्य को कोसता दिखाई पड़ेगा। इस प्रकार परिष्कृत दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति हानि और लाभ दोनों ही परिस्थितियों में प्रसन्न रह सकता है और अपने लक्ष्य में बिना विचलित हुए एकान्त निष्ठा बनाये रह सकता है।

एकाग्रता ईश्वरीय देन नहीं हैं और न वह वरदान की तरह किसी को प्राप्त होती है। उसे विशुद्ध रूप से एक ‘अच्छी आदत’ कहा जा सकता है जो अन्य आदतों की तरह चिरकाल तक नियमित रीति−नीति अपनाने के कारण स्वभाव का अंग बनती है और व्यक्तित्व के साथ घनिष्ठता पूर्वक जुड़ जाती हैं।

एकाग्रता के दो पक्ष हैं, अभीष्ट विचारों से भिन्न प्रकार के विचारों को मस्तिष्क से हटाना और इच्छित विचार धारा का मनः क्षेत्र में अनवरत रूप से प्रवाहित रहना। आरम्भ थोड़े समय से करना चाहिए। प्रयोग 15 मिनट से भी आरम्भ किया जा सकता है। लेखन, अध्ययन, ध्यान आदि जो भी प्रयोजन हो उसके आकर्षक पक्षों को सामने रखना चाहिए और पूर्ण उत्साह के साथ अभीष्ट विचारों में मन को गहराई तक डुबोना चाहिए। मन तब भागता है जब अभीष्ट प्रयोजन में गहरी दिलचस्पी नहीं होती और उसके लिए पूरे उत्साह के साथ तन्मय होने की आवश्यकता नहीं समझी जाती। बेगार भुगतने जैसी उदास मनः स्थिति में ही मन वे सिलसिले इधर−उधर भागता है यदि चिन्तन के विषय को उपयोगी, लाभदायक एवं आवश्यक मान लिया जाय तो मन उसमें जरूर लगेगा। इतने समय तक पूरी तन्मयता रखी ही जानी है यह संकल्प यदि पूरी दृढ़ता के साथ प्रयोग से पूर्व कई बार दुहरा लिया जाय और उसी उत्साह से चिन्तन में अपने आपको खो देने का प्रयत्न किया जाय तो जल्दी ही सफलता मिलने लगती हैं।

लगातार बहुत समय तक एक ही विचार में डूबे रहने की अपेक्षा यही अच्छा है कि बीच−बीच में विश्राम ले लें और चिन्तन की धारा में जो छोटे−मोटे मोड़ या विभाजन लाये जा सकते हों, उनमें तन्मयता को विभक्त कर लिया जाय। किसी विषय के कई पक्ष होते हैं। उनका पहले से ही वर्गीकरण कर लिया जाय और एकाग्र साधना के लिए जितना समय निर्धारित किया है उसे उन खण्डों के विभाजित क्रम के अनुसार काम में लाया जाय। स्वास्थ्य संवर्धन के प्रश्न पर विचार करना हो तो बिगड़ने के कारण, सुधार के लिए परिवर्तन—परिवर्तन के साधन आदि वर्गों में उसे बाँटा जा सकता है और निर्धारित क्रम से उन बातों पर विचार करते हुए, चिन्तन की शृंखला की जा सकती है।

मानसिक व्यायाम के रूप में एकाग्रता की साधना को ध्यान योग कहते हैं। इसके दो भाग हैं। एक वह जो आमतौर से पूजा प्रयोजनों में काम आता है। किसी देवी देवता के चित्र को आँखों से देखने और फिर नेत्र बन्द करके सुदूर आकाश में अथवा मस्तिष्क के मध्य में प्रतिष्ठित देखना। ऐसे देव चित्रों के साथ तेजोवलय जुड़ा हुआ होने की भावना की जाती है। निराकार उपासना वाले मात्र सूर्य का या दीपक की लौ जैसे प्रकाश बिन्दु का ध्यान करते हैं। इस आधार पर की गई साधना में चिन्तन के बिखराव को एकत्रित करने का अवसर मिलता है। इष्ट देव के वाहन, आयुध, अलंकार, उपकरण आदि की विविधता यह मन को एक सीमित क्षेत्र में चाहे जितनी दौड़ लगाते रहने का अवसर देती है। भाव निष्ठा जुड़ी होने से वह लाभ और भी अधिक बढ़ा−चढ़ा बन जाता है। उसके सत्परिणाम कई प्रकार की चमत्कारी अतीन्द्रिय सिद्धियों के रूप में दृष्टिगोचर होती है।

ध्यान योग का दूसरा पक्ष है किन्हीं विचारों में ऊहापोह में गहराई तक उतरते जाना। एकाग्रता में उभय पक्षीय पर्यवेक्षण की—समुद्र मंथन जैसे विचार मंथन की पूरी गुंजाइश है। वैज्ञानिक और तत्वदर्शी अपने लक्ष्य चिन्तन में निमग्न हो जाते हैं। इसका अर्थ मस्तिष्क को ठप्प करके किसी नियत बात को ही निरन्तर सोचते रहना नहीं वरन् यह है कि उस प्रसंग की सीमाओं में रह कर जितना अधिक विवेचन विश्लेषण किया जा सकता हो किया जाय। विषय की निर्धारित सीमा से बाहर न भागना ही ध्यान का प्रधान उद्देश्य है। यह सोचना मूर्खता पूर्ण है कि ध्यान में मस्तिष्क जड़ हो जाता है और किसी एक ही प्रतिमा अथवा विचार में डूबा रहता है। ऐसा मस्तिष्कीय संरचना को देखते हुए किसी सामान्य व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं हो सकता। अर्ध मूर्छित स्तर की तथा कथित सामान्य अवस्था में किसी के लिए ऐसा होना सम्भव होता होगा तो होता ही होगा; पर एकाग्रता को ध्यान साधना के साधकों को वैसा सम्भव नहीं होता।

प्रतिमा पर अथवा किसी विचार प्रक्रिया पर ध्यान एकाग्र करने के लिए नियत स्थान, नियत समय एवं नियत साधन प्रक्रिया अपनानी चाहिए। किसके लिए कौन समय, कैसा स्थान और क्या साधना विधान उपयुक्त रहेगा यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। यह व्यक्ति की मनः स्थिति और परिस्थिति पर निर्भर है उसमें भिन्नताएँ रह सकती हैं। अपने परिवार में गायत्री मंत्र के जप और प्रकाश ज्योति के ध्यान की परम्परा चल रही हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य कोई साधना सफल हो ही नहीं सकती। श्रद्धा और निष्ठा का समन्वय किसी भी प्रकार एवं विधान को सफलता के स्तर तक पहुँचा सकता है।

एकाग्रता में कई बार तो परिस्थितियाँ ही बाधक बन जाती हैं। बैठने का स्थान अथवा ढंग असुविधाजनक हो तो उस कठिनाई के कारण चित्त बार−बार उचटता रहेगा। मैले, कुचैले, दुर्गन्ध युक्त , सीलन, सड़न, अनुपयुक्त तापमान के स्थान प्रायः मन नहीं लगने देते। जहाँ बैठ कर एकाग्र चित्त से भजन अध्ययन आदि करना हो उसे अधिक से अधिक सुविधाजनक बनाया जाना चाहिए। कोलाहल, खटपट न हो, भगदड़ एवं हलचलों वाले दृश्य न दीखें, सर्दी−गर्मी, असह्य न हो, अस्वच्छता न छाई हो तो ऐसे शान्त और उपयुक्त स्थान में सहज ही मन को काम में लगाया जा सकेगा। शरीर को सहारे और आराम की बैठक मिलनी चाहिए। पैर, पीठ, गरदन आदि को तोड़ मरोड़ कर, उकडू−मुकडू बैठना शरीर पर दबाव डालता है और चित्त उचटता है। स्थान एवं बैठने के साधन एकाग्रता साधन के लिए नितान्त आवश्यक हैं।

स्थिति, समय, स्थान और प्रयोग काल का संतुलन एकाग्रता प्राप्त करने के महत्व पूर्ण साधन हैं। शरीर बैठने में असुविधा अनुभव न करे, स्थान, शान्त और स्वच्छ हो—प्रयोग का समय निर्धारित हो, जिस समय प्रयोग करना है वह घड़ी के अनुसार नियत−नियमित रहे तो मन जरूर लगेगा। जितने समय एकाग्र रहना और संकल्प भी निर्धारित हो तो उतने समय तक अभीष्ट प्रयोजन में संलग्न रहने की सूक्ष्म तैयारी अन्तःचेतना अपने आप कर लेगी और उतने समय बहुत ही कम विक्षेप होगा। पन्द्रह मिनट का प्रयोग धीरे−धीरे बढ़ाया जा सकता है। हर सप्ताह एक−दो मिनट भी बढ़ाते रहें तो साल भर में एक घण्टा तन्मय रहने की आदत पड़ सकती है। अभ्यास जितना पुराना होता जाता है, उतनी ही प्रखरता उसमें आती जाती है। कुछ समय उपरान्त वह एक स्वाभाविक आदत बन जाती है। वैज्ञानिक कलाकार, योगी तथा दूसरे बुद्धिजीवी प्रगाढ़ एकाग्रता में डूबे हुए अपने विषय का गहरा चिन्तन करते रहते हैं और बहुमूल्य मोती ढूँढ़ कर लाते हैं। चिन्तन के सत्परिणामों एवं सम्भावनाओं पर विचार करते रहने में दिलचस्पी बढ़ती है और उसके साथ सुदृढ़ संकल्प एवं नियमित प्रयत्न जुड़ जाने पर एकाग्रता सरल सम्भव होती है और क्रमशः अधिक लम्बी एवं गहरी बनती जाती है।

शारीरिक स्वस्थता के लिये किये जाने वाले व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि का जो महत्व है, वही मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए ध्यान साधना का है। यदि अपनी स्थिति के अनुसार कुछ समय इस प्रयोजन के लिए नियत रखें तो क्रमशः एकाग्रता की शक्ति बढ़ती जायगी और उसे प्रगति के किसी भी क्षेत्र में प्रयुक्त करके उत्साह वर्धक लाभ प्राप्त किया जा सकेगा।

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