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Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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परकाया प्रवेश एक विद्या-एक ज्ञान

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First 18 20 Last
आद्य शंकराचार्य ने एक शास्त्रार्थ प्रयोजन के काम-शास्त्र का अनुभव प्राप्त करने के लिए अपने शरीर में से आत्मा को निकाल कर मृत सुधन्वा के शरीर में प्रवेश किया था। परकाया प्रवेश की इस प्रक्रिया का उद्देश्य पूरा होने पर वे पुनः अपने शरीर में वापिस लौट आये थे।

रामकृष्ण परमहंस ने अपनी आत्मा को विवेकानन्द में प्रवेश कर दिया था। परमहंस जी के स्वर्गवास के अवसर पर विवेकानन्द को भान हुआ कि कोई दिव्य-प्रकाश उनके शरीर में घुस पड़ा ओर उनकी नस-नस में नहीं शक्ति भर गई।

शंकराचार्य के उदाहरण से मृत शरीर पर किसी अन्य जीवात्मा का आधिपत्य हो सकने की बात प्रकाश में आती है और परमहंस जी के परकाया प्रवेश से जीवित मनुष्य में किसी समर्थ व्यक्तित्व के प्रवेश कर जाने का लक्ष्य सामने आता है। परकाया प्रवेश की अध्यात्म सिद्धियों के संदर्भ में चर्चा होती रही है यह आँशिक समान रूप से पारम्परिक विनियोग की तरह सम्भव है। शक्ति-पात दीक्षा में गुरु अपना एक अंश शिष्य के व्यक्तित्व में हस्तान्तरित करता है।

आत्मा स्वामी है और शरीर सेवक। आत्मा यात्री है और शरीर वाहन। स्वामी की अपनी दुर्बलताएँ ही सेवक के श्रम सहयोग से वंचित रह सकती हैं। स्वेच्छा चार बरतने वाले सेवकों को देखकर यही अनुमान लगाया जा सकता है। कि स्वामी को अपने पद का ध्यान नहीं रहा। वाहन रहते हुए भी यदि सवार को पैदल चलना पड़े तो समझना चाहिए कि उसे अपने साधन के उपभोग की समुचित जानकारी नहीं है।

अपने शरीर पर तो आत्मा का आधिपत्य होता ही है, यदि उसकी सामर्थ्य सबल है तो वह दूसरों के शरीर का भा अपने लिए उपयोग कर सकता है। ऐसा जीवित अवस्था में भी हो सकता है और प्रेतात्माएँ भी वैसा कर सकती है।

दो अमरीकी प्रोफेसरों ने मिलकर एक किताब लिखी है “बीसवीं सदी में, अचेतन मनोविज्ञान की खोज।” इसमें आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता तथा पुनर्जन्म को सिद्ध करने वाले अनेकों प्रमाण दिये गये है। इसी पुस्तक में परकाया प्रवेश सम्बन्धी कई घटनाओं-तथ्यों का संकलन किया गया है। उनमें से कुछ से है-

एक बर्तन विक्रेता घर से टहलने निकला ओर गायब हो गया। जाकर मशीनों की मरम्मत का काम करने लगा दो वर्ष बाद सहसा घर की सुधि आई जैसे गहरी नींद टूटी हो। घर वापस पहुँचा। पता चला, मशीनों की मरम्मत का वही काम एक अन्य व्यक्ति करता था जो कुछ ही समय पहले भरा था। बर्तन विक्रेता दो वर्ष तक उसी व्यक्ति की तरह काम करता रहा। वहाँ सभी कर्मचारियों के नाम-व्यवहार सराय, होटल सब उसे याद थे। घर लौटकर धीरे-धीरे आते वह सब भूल गया और पूर्ववत् अपना पुराना कसेरे का धन्धा करने लगा। डॉ॰ आसबन ने इस घटना को विस्तार से प्रकाशित किया। अनुमान यह किया गया कि मशीनों की मरम्मत करने वाले व्यक्ति की आत्मा ने कसेरे की आत्मा को दो वर्ष तक अपने कब्जे में रखा। जब वह आत्मा कब्जा छोड़कर चली गई, तो पुरानी आत्मा अपनी स्वतन्त्र सत्ता का परिचय पुनः दे सकी। इस बीच वह दबी रही।

कभी-कभी ऐसे घटनाक्रम भी प्रकाश में आते हैं कि किसी मृतात्मा ने किसी दूसरे जीवित मनुष्य के शरीर पर आधिपत्य जमा लिया और उसका उपयोग मन मर्जी से करती रही। भूत प्रेतों के आवेश की चर्चा झाड़-फूँक के क्षेत्र में आये दिन होते रहती है। उनमें अधिकतर तो मानसिक दुर्बलता, मूढ़, मान्यता, अर्ध व्यक्तियों द्वारा छोड़ी गई छाप ही प्रमुख कारण होती हैं, फिर भी ऐसे तत्त्वों की कभी नहीं जिनमें मृतात्माओं के अन्य शरीर पर अधिकार जमा लेने की बात सिद्ध होती हैं इस प्रकार के अधिकार प्रायः अस्थायी होते हैं। आत्माएँ अपना उद्देश्य पूरा करके उस आधिपत्य को अनायास ही छोड़कर चली जाती हैं अथवा उदासीन हो जाती हैं।

किन्हीं विशिष्ट आत्माओं ने दूसरों के शरीर में प्रवेश करके उनसे कुछ विशिष्ट काम कराये ऐसी घटनाएँ संसार के अनेक भागों में घटित होती रही है।

विश्व विख्यात कलाकार गोया की आत्मा ने अमेरिका की एक विधवा हैनरोट के शरीर में प्रवेश करके उनके द्वारा गवालन नामक एक अद्भुत कलाकृति का सृजन कराया था। यह समाचार उन दिनों अमेरिका में अनेक पत्रों में प्रकाशित हुआ था।

रोडस नगर के एक नागरिक ऐसेलवर्न बैक से दस हजार का चैक भुनाकर निकले और सहसा गायब हो गये। घर वाले ढूंढ़- ढूंढ़कर थक गये। ऐसेलबर्न सैकड़ों मील दूर एक नगर में जाकर वहाँ चीनी का व्यापार करने लगा। नाम बताया अपना ए0से0बाउन। उसने पहले यह व्यापार कभी भी नहीं किया था। दो माह बाद जैसे स्वप्न टूटा। वह चौका। यह चीनी का व्यापार मैंने तो कभी नहीं किया और मेरा घर भी यहाँ नहीं। वह भागा और पुराने घर जा पहुँचा। इस घटना का भी निष्कर्ष यही निकाला कि किसी मृत व्यापारी की आत्मा ने उसे वंशीवर्ती कर लिया था।

1864 में डॉक्टर डामा के पास एक सुशिक्षित बेहोश रोगी आया। वह चंगा हो गया। पर शिशुवत् आचरण व चिंतन करने लगा। पढ़ना-लिखना भूल चुका था। कई महीनों तक यही दशा रही। फिर उसे जैसे कुछ याद आया और वह पुनः प्रौढ़ व्यक्तित्व का स्वामी बन गया।

बोस्टन के डॉ॰ नार्टन प्रिंस के पास आई एक महिला की भी कुछ यही स्थिति थी। वह प्रतिदिन कुछ घण्टे तक एक अन्य ही व्यक्तित्व बन जाती। व्यवहार क्रिया-कलाप उच्चारण, सब भिन्न। वह एक स्वस्थ पुरुष जैसा आचरण करती। अपना नाम भी किसी पुरुष का नाम बताती। फिर अपने महिला व्यक्तित्व में लौट आती।

15 अप्रैल 1867 को एक पादरी मोटर दुर्घटना ग्रस्त हो गये। बेहोशी में अस्पताल ले जाये गये। होश आया तो एक छोटे बालक का ही आचरण करने लगे। पिछला नाम, पता, व्यवसाय सब भूल गये। शिक्षा भी भूल गये पहले ये यहूदी भाषा नहीं जानते थे। शिशु रूप में अब यहूदी बोलते। परेशान होकर डाक्टरों ने उन्हें लन्दन से न्यूयार्क भेजा। वहाँ चिकित्सा चली। धीरे-धीरे सुधार हुआ लम्बे समय तक कभी बालक व्यक्तित्व मुखर रहता, कभी पादी-व्यक्तित्व अरसे बाद अन्ततः वे असली व्यक्तित्व में लौट सके।

मृतात्माएँ दूसरों के शरीर पर किस स्थिति में? किस पर? और किस लिये आधिपत्य स्थापित करती है। इसका सही उत्तर दे सकना तो आज की स्थिति में कठिन है,? पर अनुमान यह लगाया जा सकता है कि कोई मनस्वी आत्मा अपने से दुर्बल पड़ने वाले व्यक्तित्वों पर छा जाने में अधिक सफल होता है। पूर्व परिचय एवं स्नेह-सौहार्द्र भी एक कारण हो सकता है। अतृप्त आत्माएँ साँसारिक जीवन का आनन्द लेना चाहती है, अथवा ऊपरी अभिलाषाएँ पूरी करने के लिए आतुर होती है। यह इन्द्रिय क्षमता से युक्त स्थूल शरीर से ही सम्भव है। सूक्ष्म शरीर मानसिक अनुभूतियाँ तो ले सकता है, पर स्थूल इन्द्रियों के अभाव से भौतिक वस्तुओं का उपभोग उसके लिए शक्य नहीं होता। अस्तु इस प्रयोजन के लिए वे दूसरों के शरीरों पर आधिपत्य जमाते हैं और अपना मनोरथ पूरा करते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य कारण भी हो सकते हैं।

यह आधिपत्य थोड़े समय के लिए आवेश, उन्माद स्तर का भी हो सकता है और उसका एक रूप यह भी सम्भव है कि शरीर का असली स्वामी जीवात्मा मूर्छित अवस्था में जा पड़े और उस शरीर का उपयोग कोई अधिकार जमाने वाली सत्ता मन चाहे ढंग से करती रहे।

हारवर्ड विश्व विद्यालय अमेरिका के डाक्टर आसवन ने अपनी मनोवैज्ञानिक खोजों में नई सच्ची घटनाओं का उल्लेख दिया है, जो किसी व्यक्ति में किसी अन्य आत्मा का प्रवेश हो जाना सम्भव बताती है। उन्होंने एक कारीगर का उदाहरण प्रस्तुत किया है। एक दिन अनायास ही वह अपने औजार फेंक कर चिल्लाया कि मैं यहाँ कैसे आ गया और यह बेकार काम कैसे करने लगा? सही यह है कि दो वर्षों से उसने अपना असली धर छोड़ दिया था। किसी आत्मा के प्रभाव में आकर ही उसने घर छोड़ा और वह काम करने लगा जिसका उसे अभ्यास नहीं था। जब तक वह उस आत्मा के प्रभाव में रहा तब तक वह अपना नाम व असली घर भूला हुआ था।

सम्मोहन विद्या एक प्रकार से परकाया प्रवेश का ही दूसरा रूप है। प्रयोक्ता अपने प्रचण्ड मनोबल का प्रहार करता है। और जिस पर प्रयोग किया गया है। उसके बाह्य मस्तिष्क की चेतना को पीछे अंतर्मन के धकेल देता है। यह अर्ध मूर्छित स्थित हुई। सोचने समझने वाला मस्तिष्क निद्राग्रस्त हो गया और उसकी जगह प्रयोक्ता का मनोबल काम करने लगा। सारे मस्तिष्क तंत्रों का उपयोग तब तक वही करता है जब तक कि उस बलात् निद्रा से मुक्ति नहीं मिल जाती। प्रयोक्ता को प्रहार और उपभोक्ता की सहज स्वीकृति का समन्वय ही सम्मोहन की स्थिति उत्पन्न करता है। दोनों में से एक पक्ष भी दुर्बल न हो तो प्रयोग सफल न हो सकेगा।

स्व सम्मोहन का स्तर अधिक ऊँचा है उसमें प्रबल आत्म शक्ति के द्वारा ही अपने चेतन मस्तिष्क को अर्ध तन्द्रा में धकेल दिया जाता है और अचेतन को सामान्य जीवन संसार क व्यवस्था जुटाते रहने के लिए सीमित कर दिया जाता है। इसे योग-निद्रा या समाधि कहते हैं। इसमें अहिर्निशि श्रम संलग्न रहने वाले बाह्य मस्तिष्क की कृत्रिम शक्ति साथ ही दिव्य निद्रा का आनन्द मिलता है। इस विश्रान्ति के उपरान्त एक नई स्फूर्ति का लाभ मिलता है। साथ ही चेतना को अनावश्यक परतों को- दुर्बल एवं आवश्यक परतों को सबल बनाने का अवसर मिलता है। योगी लोग आत्मोत्कर्ष के अन्यान्य उच्चस्तरीय लाभ भी इस योग-निद्रा द्वारा प्राप्त करते हैं। सामान्यतया प्रचलित स्व सम्मोहन भी अपना मनोबल बढ़ाने आदतें छुड़ाने एवं उपयोगी निष्ठाएँ जमाने के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहा है।

स्व सम्मोहन कठिन है। आत्मबल को प्रखर बनाने के उपरान्त ही उसमें इतनी क्षमता उत्पन्न होती है कि जागृत मस्तिष्क को शिथिल बना सके और उस स्थिति का लाभ लेकर अनावश्यक को हटाने एवं आवश्यक को जमाने का कार्य पूरा कर सके। आमतौर से जागृत मस्तिष्क ही सबल होता है, और वह अपनी सर्वोपरि सत्ता को चुनौती दी जाना स्वीकार नहीं करता। तर्क और सन्देह के आधार पर वह अपने ऊपर होने वाले आक्रमण को पूरी शक्ति के साथ रोकता है। फलतः स्व सम्मोहन की अभीष्ट गहराई उत्पन्न होने से भारी कठिनाई उत्पन्न होती है। इतने पर भी शान्त चित्त से, श्रद्धापूर्वक किन्हीं विचारों को बार बार दुहराने से भी कुछ तो प्रभाव पड़ता ही है और उपयोगी मानसिक परिवर्तन के लिए प्रयासों से कुछ तो सफलताएँ मिलती ही है। यह कुछ-कुछ भी बूँद-बूँद करके घड़ा भरने की उक्ति के अनुरूप लाभदायक ही सिद्ध होता है।

“कान्शस ऑटोसजैशन” ग्रन्थ में फ्राँस के मनोविज्ञान विशारद प्रो0 इमाइल कू ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया है कि किस प्रकार इच्छा शक्ति का प्रयोग करके अपने आप में तथा दूसरों में असाधारण परिवर्तन किया जा सकता है। ये प्रयोग शारीरिक और मानसिक रुग्णता को दूर करने में भी बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुए है।

स्व सम्मोहन आत्म साधना है, सम्मोहन वैज्ञानिक प्रयोग। मानसिक चिकित्सा जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को अर्ध-मूर्च्छित करने की प्रक्रिया द्वारा ही सम्पन्न होता है। इस प्रकार उत्पन्न हुई योगनिद्रा इतनी गहरी होती है कि उसमें छोटे बड़े आपरेशन भी आसानी से हो सकते हैं। पाश्चात्य देशों में यह विज्ञान अब बहुत आगे तक बढ़ गया है और दन्त चिकित्सक तो आमतौर से इस प्रक्रिया का उपयोग करके बिना सुन्न किये ही दाँत उखड़ते रहते हैं, और रोगी को किसी प्रकार ही दाँत उखड़ते रहते हैं, और रोगी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता।

हिप्नोटिज्म का हिन्दी अनुवाद ‘सम्मोहन’ है। उसे सामान्यतः एक विशेष प्रकार की सुझाई हुई नींद ‘नर्वस निद्रा’ कहा जा सकता है। साधारण नींद में मनुष्य सुधि-बुधि खोकर अचेत हो जाता है। पर सम्मोहन निद्रा में मनुष्य का आधा सचेतन मस्तिष्क भर सोता है। उसके स्थान पर अचेतन अधिक सक्षम हो जाता है और आदेश कर्ता के निर्देशों के प्रति पूर्ण सजगता का परिचय देता है इसे चेतना की सामान्य स्थिति का असामान्य प्रत्यावर्तन कहा जा सकता है। सक्रिय मस्तिष्क की सुषुप्ति और निष्क्रिय की जागृति इस कहा जाय तो भी बात बनती नहीं है। क्योंकि सक्रिय की निद्रा वाली बात तो सही है, पर जिसे निष्क्रिय कहा जा रहा है वह अपने क्षेत्र में सक्रिय से भी अधिक सक्रिय रहता है और व्यक्तित्व के निर्माण में ज्ञानवान चेतना से भी कही अधिक बढ़ी-चढ़ी भूमिका का निर्वाह करता है।

शरीर को सुन्न करने में सम्मोहन प्रयोग बहुत सफल हुए है। प्रथम महायुद्ध के दिनों रूसी डाक्टर पोडियापोलेस्की ने 30 घायलों के शरीर बिना क्लोरोफार्म के ही सुन्न करके दिखाये थे और उनके पीड़ा रहित आपरेशन सम्पन्न किये थे। ब्रिटिश डाक्टर एस्टल ने इस प्रयोग के आधार पर लगभग 200 आपरेशन सम्पन्न किये थे। योरोप के अनेक देशों में दन्त चिकित्सक बिना कष्ट दाँत उखाड़ने में इस पद्धति का प्रयोग करते हैं। दन्त ही में न प्रसव के लिए भी प्रसूति ग्रहों में यह प्रक्रिया बहुत उपयोगी सिद्ध हो रही है। अमेरिका की मेडिकल ऐसोसिएशन ने चिकित्सा विज्ञान के एक प्रामाणिक पद्धति के रूप में सम्मोहन को सन् 1958 से ही मान्यता दे रखी है। इसी प्रकार ‘ब्रिटिश एण्ड अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन ने भी उसे उपयोगी चिकित्सा विधि के रूप में प्रामाणिकता प्रदान की है।

‘सम्मोहन किसी समय जादुई करिश्मा समझा जाता था और उसके समर्थकों और विरोधियों के पक्ष में अपनी अपनी बातें इतने जोर-शोर से कहते थे कि जन-साधारण के लिए उस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट अभिमत बना सकना सम्भव न हो पाता था, पर ऐसी बात नहीं है। उसे विज्ञान की एक तथ्यपूर्ण धारा के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। अब सम्मोहन को कला नहीं विज्ञान के रूप में प्रतिपादित किया जाता है। इसे आश्चर्यजनक प्रदर्शनों के रूप में नहीं मनुष्य के लिए उपयोगी सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकने वाली ‘विद्या’ के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

डाक्टर बार्बर की तरह अन्य लोगों को भी यह सन्देह था कि सम्मोहन प्रदर्शनों में कोई पद्य-शिष्य बाजीगर को सफल सिद्ध करने के लिए जान-बूझ कर ढोंग बनाता है। किन्तु आशंका क्रमशः निर्मूल होती चली गई है। जब तक बाजीगरी के कौतुक प्रदर्शनों का सम्मोहन विद्या का प्रयोग होता था, तब तक उस पर अंगुली उठने की काफी गुँजाइश थी पर अब वैसा कदाचित ही होता है। अब यह विद्या मानसोपचार के क्षेत्र में सम्मिलित हो गई है और प्रायः इसी के लिए इसका उपयोग होता है। मस्तिष्क में तर्क शक्ति, इच्छा शक्ति एवं निष्कर्ष क्षमता के कुछ अपने क्षेत्र है। सम्मोहन निद्रा में उसी को निष्क्रिय बना दिया जाता है और सम्मोहित व्यक्ति इस स्थिति में पहुँच जाता है मानो उसकी अपनी निजी विचार बुद्धि का अन्त हो गया।

विज्ञानी एस्क्शिन ने सम्मोहित व्यक्ति की रंग पहचानने की क्षमता बदल देने-पानी को ही शराब बताकर उसमें नशे के लक्षण उत्पन्न कर देने में सफलता पाई है। इसी प्रकार जनरल आफ साइकेटरी में मनः शास्त्री के उलमैन के प्रयोग विवरण लेख में उन सफलताओं का वर्णन है, जिनमें शरीर के विभिन्न अवयवों पर विभिन्न परिवर्तन सम्भव कर दिखाये थे। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति का हाथ ठंडे पानी में उलवाया गया और उसे अत्यधिक उष्ण मनवा लेने पर हाथ में छाले उठ आना सम्भव हो गया था। ऐसे ही अनेक विवरण रूसी मानसोपचारक प्लेटोनोव ने अपनी पुस्तक दि वर्ल्ड एज ए फिजियोलॉजिकल एण्ड थैराट्यूटिक फैक्टर में प्रकाशित कराये है।

रूसी मनःशास्त्री पावलोव के अनुसार सम्मोहन में जादू जैसी कोई बात नहीं वह मनोविज्ञान सम्मत सहज प्रक्रिया है जिसमें कुछ मस्तिष्कीय कणों की अन्तःक्षमता को कृत्रिम रूप सुला देने और जगा देने की प्रक्रिया को संकल्पशक्ति के आधार पर सम्पन्न कर दिया जाता है।

सम्मोहन से शरीर की सामान्य स्थिति में भी अन्तर आ जाता है। यह अन्तर शरीर परीक्षा में सहज ही देखा जा सकता है। जैसे हृदय की गति 82 बढ़कर 143 तक हो जाना-रक्त का बढ़ाव 105 से उठकर 136 तक जा पहुँचना-ताप मान 99 सेन्टीग्रेड से 101 तक देखा जाना। इतना होने पर भी रक्त में जिन तत्वों का समावेश है उनके अनुपात में अन्तर नहीं आता। लवण, शंकर आदि की जो मात्रा रक्त में विद्यमान थी उसका परिणाम नहीं बदला जा सका। इसी प्रकार बीमारियों के कारण होने वाले कष्ट की अनुभूति तो उतने समय के लिए रुक सकती है, और रोगी अपने को अच्छा अनुभव कर सकता है। इतने पर भी उस बीमारी की जड़ कट जाना सम्भव नहीं होता। हाँ सुधार का धीमा सिलसिला चल पड़ सकता है।

पूर्व निर्धारित नैतिक मान्यताओं को बदलने के प्रयोग यदि करने ही हों तो उनमें बहुत समय लगेगा और सफलता बहुत धीरे-धीरे मिलेगी। लड़ाइयों में पकड़े गये शत्रु पक्ष के सैनिकों को पहले की अपेक्षा भिन्न मत का बनाने के लिए सम्मोहन विज्ञान के आधार पर प्रयोग होते रहे हैं। उन्हें ‘ब्रेन वाशिंग’ कहा जाता रहा है। इनमें आँशिक सफलता ही मिली है, क्योंकि यह उनकी परिपक्व देशभक्ति की मूल धारा को बदल देने के लिए किये गये अति कठिन कार्य थे। इनकी तुलना में किसी अनाचारी व्यक्ति का अनाचार छुड़ा देना सरल पड़ता है। क्योंकि उस अनाचार की आदत होते हुए भी अन्तःकरण में उसके लिए विरोधी भावना पहले से ही बनी हुई थी।

सम्मोहित व्यक्ति में उसके विनिर्मित व्यक्तित्व की सीमा के अंतर्गत ही कार्य कराये जा सकते हैं। अचेतन की गहरी परतें अपने भीतर कुछ नैतिक और आत्मिक मान्यताएँ अत्यन्त सघन होकर जमाये रहती है। उन्हें सम्मोहित प्रयोगों में नहीं छुआ जाता। सामान्य कामकाजी बातों को ही शरीर और मस्तिष्क द्वारा पूरा कराया जा सकता है। किसी व्यक्ति की आन्तरिक आस्था जीव दया पर आधारित है। उसे सम्मोहित स्थिति में माँस खाने के लिए कहा जाय तो मन की गहरी परतें उसका विरोध करेंगी और वह व्यक्ति उस आदेश को पालन करने से इनकार कर देगा। इसी प्रकार किसी का धन या शील हरण करने, किसी की हत्या कराने, जैसे कुकृत्यों के लिए सम्मोहन कर्ता कोई प्रयोग करे तो अन्त करण की अस्वीकृति होने पर वे प्रयोग सफल न हो सकेंगे। इसी प्रकार यह भी सम्भव नहीं कि किसी व्यक्ति की मूल भूत क्षमता से बाहर के काम कराये जा सकें। हिन्दी पढ़े व्यक्ति से अंग्रेजी बोलने के लिए कहा जाय तो वह न बोल सकेगा। इसी प्रकार इतना वजन उठाने के लिए कहा जाय और उसकी शारीरिक क्षमता से बाहर हो, तो भी वह इन प्रयोगों में न बन पड़ेगा। आत्म हत्या कर लेने जैसे आदेश भी सम्मोहित व्यक्ति को स्वीकार्य नहीं होते। इसका तात्पर्य इतना ही है कि प्रदर्शनों में इतनी ही सफलता मिलेगी जितनी कि किसी अनुशासित व्यक्ति से जीवित अवस्था में सहमत करके कराया जा सकता है। प्रकारान्तर से इन्हें काम काजी सहमति से लादी हुई सफलता भर कह सकते हैं।

सत्संग और कुसंग का प्रभाव सर्वविदित है। ऋषियों के आश्रमों में सिंह और गाय एक घाट पानी पीते थे। यह उस आत्म-चेतना का ही प्रभाव था जो प्रचंड होने के कारण अपने क्षेत्र में एक प्रकार से सम्मोहन का वातावरण उत्पन्न किये रहती थी। नारद जी के थोड़े से सम्पर्क से ही प्रहलाद, ध्रुव, पार्वती, बाल्मीकि आदि अनेकों को दिशा मिली और जीवन क्रम उलट गये। भगवान बुद्ध के सम्पर्क में आने वाले अंगुलिमाल, आम्रपाली जैसी अगणित अधम जन उच्चस्तर पर पहुँचे। गाँधी जी के प्रभाव से अगणित व्यक्ति त्याग और बलिदान के क्षेत्र में उतरे और बढ़े चढ़े आदर्श उपस्थित करते रहे। इसे प्राण तत्त्व की प्रखरता का- सुविस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ आलोक ही कह सकते हैं। परकाया प्रवेश एवं सम्मोहन विज्ञान के अनुसार भी इस प्रभाव प्रक्रिया की व्याख्या की जा सकती है।

परकाया प्रवेश उच्चस्तरीय अध्यात्म विज्ञान की परिधि में आने वाली महत्त्वपूर्ण विधि व्यवस्था है। इसका उपभोग सदुद्देश्य के लिए-सज्जनता सम्पन्न आत्माओं द्वारा-सद्भावना पूर्वक किया जा सके तो उसका प्रभाव उसी प्रकार श्रेयस्कर होगा जैसा कि चिकित्सा विज्ञान आदि के द्वारा सम्भव होता है।

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