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Magazine - Year 1977 - Version 2

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Language: HINDI
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देववाद की रहस्यमयी अभिव्यंजनाएँ

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पौराणिक देव प्रतीकों के सम्बन्ध में उनके स्वरूप, आयुध, वाहन, गुण आदि का जो वर्णन किया गया है, उसे वस्तुस्थिति माने बिना भी काम चल सकता है। प्रतीकों का उपयोग उसी तथ्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए जिनके लिए कि तत्त्ववेत्ताओं ने उनकी संरचना की है। इस प्रतीक मान्यता के पीछे विश्व की रचना प्रक्रिया से लेकर नीति और सदाचार के व्यवहार वाद तक की समावेश है। इन गूढ़ रहस्यों को समझने का प्रयत्न करने के लिए गहराई में उतरना होगा तभी हम देव पहेलियों में छिपे अति महत्त्वपूर्ण तत्त्वज्ञान का लाभ उठा सकेंगे

आइन्स्टीन की यह उक्ति कि “अन्वेषक को अधिकार है कि वह ऐसी कोई भी नियम-पद्धति एवं व्याख्या सूत्र रच डाले, जो नये वैज्ञानिक परीक्षणों से भी पुष्ट हो सके”, आध्यात्मिक एवं पौराणिक क्षेत्र के लिए भी उतनी ही लागू होती है। पौराणिक कथा-चित्र और प्रतीक निरंकुश कल्पना की मनोरंजक रचनाएँ नहीं हैं, बल्कि जैसा कि जर्मन विद्वान् हेनरिख जीभर ने अपने ग्रंथ मिथ्स एण्ड सिम्बल्स इन इण्डियन आर्ट एण्ड सिविलाइजेशन’ में कहा है- “विष्णु, रुद्र, शिव, ब्रह्म आदि विविध पौराणिक प्रतीक युगों के अनुभूति जीवन तथ्यों तथा सत्य की ही अभिव्यक्तियाँ है।”

भारतीय वेदों ने ब्रह्म की विराट-लीला को, अनन्त सत्य की विभिन्न अभिव्यक्तियों को पुराण प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्ति किया हैं। इन अभिव्यञ्जनाओं को समझने के लिए भारतीय दर्शन, सांस्कृतिक चेतना, सौंदर्य दृष्टि, कला-प्रतिमान जीवन-मूल्य सामाजिक गठन और सामाजिक समप्रेषणीयता के विविध स्वरूपं तथा अभिव्यक्तियों के प्रचलित उपकरणों को समझाना होगा।

ब्रह्मा, विष्णु, शिव ओर शक्ति आदि की बहुरंगी मिथक गाथाएँ सृष्टि, स्थिति प्रलय और गति के विराट् यथार्थ की लोक-मानस के अनुकूल भाषा में की गयी अभिव्यक्तियाँ है। इसी अभिव्यक्ति का प्रयास विभिन्न मन्दिरों एवं भित्ति चित्रों आदि द्वारा किया गया है।

भारतीय मेधा की प्रचण्ड सामर्थ्य और प्रखर ऐश्वर्य हर पौराणिक-प्रतीकों में अभिव्यक्त हुआ है। इनकी अभिव्यंजनाएँ एक साथ बहुआयामी है। जब हम इनके यथार्थ स्वरूप को न समझकर इनका सपाट अर्थ निकाल कर सम्भव कल्पनाओं और स्वप्नों के संसार में खोले रहते हैं। हम वस्तुतः इन देव-शक्तियों का भी अपमान करते हैं और भारतीय मेधा का भी, अपने पूर्वज ऋषियों का भी।

उदाहरण के लिए हमें शिव से सम्बन्धित विभिन्न पुरा-कथाओं और प्रतीकों को देखे एक फ्राँसीसी विद्वान् न शिव को “नान डाईमेंशनल मिथ” कहा है यानी सीमातीत पुराण-प्रतीक मिथ्य और पुरा-कथाएँ सम्पूर्ण मिथ्य, उस फ्राँसीसी लेखक के अनुसार ‘नान डाईमेंशनल’ है।”

शिव के मन्दिरों और मूर्तियों के स्वरूप और प्रकार भी अनन्त है। भव्य और विराट शिव-मंदिरों में भी शिव है तथा पत्थर की एक छोटी सी बटिया के रूप में किसी वट-वृक्ष या अन्य किसी वृक्ष के सहारे भी वे उतनी ही मस्ती से खड़े है।

शिव-पूजा भारत में आदिकाल से ही प्रचलित है। लिंग-पूजा तो उत्तर-पाषाण काल में भी होती थी। मोहन जोदड़ो से पशुपति की आकृति प्राप्त हुई है। हड़प्पा में नटराज का धड़ पाया गया है। हजारों वर्ष से शिव-पूजा की परम्परा के प्रमाण मिले है॥

नेपाल के पशुपति नाथ का मन्दिर विश्व प्रसिद्ध है। भूटान में भी शिव-पूजा प्रचलित है। मक्का में मौजूद सगे-असवद भी शिव लिंग का ही प्रतिरूप बताया जाता है। ईरान जैसे मुस्लिम देशों में भी शिव मन्दिर पाये गये है। भारत में उत्तर में बद्रीनाथ-केदारनाथ और दक्षिणी ध्रुव में रामेश्वर तक महादेव की महिमा व्याप्त है।

शिव शब्द ही मंगल का पर्याय है। हेनरिख जी भर के अनुसार सृजन के प्रारम्भिक उपक्रम में, ब्रह्म तत्त्व का मिथक विभाजन नारी तत्त्व तथा पुरुष तत्त्व के रूप में व्यक्त हुआ है यही ब्रह्म-माया शिव-शक्ति विष्णु आदि के रूप में वर्णित हुआ है।

इतिहास मर्मज्ञ विद्वानों के अनुसार शिव एक ऐतिहासिक पुरुष थे। कालान्तर में लोक श्रद्धा एवं लोक प्रवृत्तियों के विभिन्न मान्यताओं शिव के विभिन्न प्रतीक स्वरूपों का विकास हुआ। शिव की पुरा-कथाएँ लोक-संस्कृति की अनूठी अभिव्यंजनाएँ है।

शिव का नटराज स्वरूप सृजन और विध्वंस की परस्पर विरोधी प्रक्रियाओं की संयुक्त अभिव्यक्ति है। बिना विनाश के सृजन अर्थहीन है और बिना सृजन के विनाश अर्थहीन हैं। उन्मुक्त सृजन और निर्द्धनद विनाश, दोनों स्थितियाँ एक आन्तरिक उल्लास पर टिकी है, जिससे मस्त होकर नटराज नृत्य करते हैं उनके ऊपरी दक्षिण हाथ में है, डमरू, जो अपने आप में एक अर्थ गर्भ प्रतीक है। डमरू को ध्वनि का प्रतीक कहा जाता है।

कालिदास ने पार्वती और परमेश्वर शिव को वाक् और अर्थ की तरह संयुक्त एवं अभिन्न कहा है। तथा जगत का माता-पिता कहकर वन्दना की है। यह शिव के अर्द्ध नारीश्वर स्वरूप की ही स्तुति है।

गोस्वामी तुलसीदास ने भवानी और शंकर को श्रद्धा एवं विश्वास का स्वरूप कहा है।

एक ओर शिव-गहन साधना, तपश्चर्या के देवता है, तो दूसरी और अनूठे दाम्पत्य प्रेम के,, अनुपम प्रणय के, प्रेम, सद्भाव और समाज-कल्याण के। वे नृत्य-उल्लास और लालित्य के, भाषा, शास्त्रों, कलाओं के प्रवर्तक हैं, तो विनाशकारी रुद्र भी है, प्रलयंकर शंकर है।

शिव का तीसरा नेत्र विवेक-ज्योति के रूप में प्रसिद्ध है। शिव इसी तीसरे नेत्र के, विवेक-ज्योति के कारण ज्ञान के देवता है।

एलोरा की गुफा में अर्द्ध नारीश्वर की भव्य मूर्ति है। शिव का अर्द्ध नारीश्वर रूप तो भारतीय संस्कृति के सर्वोच्च आदर्श की अभिव्यक्ति है। पुरुष अर्थ है, तो नारी वाणी। बिना वाणी के अर्थ प्रकट ही नहीं हो सकता। बिना अर्थ के वाणी की सार्थकता नहीं दोनों का मेल ही मनुष्य की समस्त प्रवृत्तियों का आधार है।

पुरा-तात्त्विक प्रमाणों से पता चलता है कि शिव-पूजा कभी विश्व-व्यापी थी। मध्य एशिया तथा बृहत्तर भारत में अभी भी उसके अवशेष है।

अठारह पुराणों में से पाँच का शिव के साथ सम्बन्ध है।पुराणों में शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों का वर्णन है। जो सम्पूर्ण भारत में फैले है।

शिव का तांडव नृत्य रौद्र भी है और सुन्दर भी। यह युग-चक्र है, इतिहास-प्रवाह है। नृत्य के पद-चाल में, विभिन्न भाव-भंगिमाओं में इतिहास की बहुरंगी घटनाएँ है, जय-पराजय है, किन्तु इन सबके बीच है निर्विकार सर्वशक्तिमान, विराट् समाधिगम्य शिव निर्दोष और निर्लिप्त है।

शिव-नटराज के कलात्मक निरूपणों में पदार्थ और ऊर्जा की चक्रीय गति का प्रतीक रहता है। मुद्रा में समाधि की शान्ति और ताण्डव का रौद्र भाव संयुक्त है। शिव के नृत्य में अनूठा लालित्य है, निर्मलता है, गहन प्रशान्त गतिशीलता है।

शिव महाकाल है। ऐतिहासिक घटना-चक्र उनमें उठने वाली तरंगें मात्र है। महत्त्वपूर्ण घटनाएँ अनभिज्ञ है। पर दृष्टि घटनाओं में नहीं उलझना चाहिए, बल्कि सदा प्रवाह पर रहनी चाहिए। ऐसा ही डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी कहा था- “घटना को नहीं, प्रवाह को देखो।”

शिव का दाम्पत्य प्रेम अद्वितीय और अनिर्वचनीय है। सती ने सहसा मृत्यु-वरण कर लिया, तो शोक संतप्त, दुःख कातर, वियोग-विहल शिव सती का शव कन्धे पर रखकर सम्पूर्ण संसार का अपने सशक्त कदमों से नापते चल दिये। देवगण डर गये ‘शिव को इस तरह डरा भरते देख! उन्होंने सती के शव के खण्ड-खण्ड कर दिया। शिव विचलित हो गये। जहाँ-जहाँ उनके पैर पड़े वही-वही सती के पवित्र शव के खण्ड भी गिरे और वे स्थान पवित्र तीर्थ-स्थल हो गये, शक्ति पीठ हो गये।

शिव एक और करुणा और प्रेम के- सादगी और कोमलता के उद्गम है, तो दूसरी ओर प्रचण्ड उग्रता के संहार के भी। उनके तृतीय नेत्र के, विवेक-ज्योति के दोनों ही पक्ष समान महत्त्व के है।

शैव-दर्शन में रसेश्वर सम्प्रदाय भी आता है। इससे स्पष्ट है कि आयुर्वेद, रसायनशास्त्र में भी शैव विद्वान् पारंगत रहे है। इसी तरह पाणिनि का व्याकरण भी शैव-आगम के ही अंतर्गत माना जाता है। भर्तृहरि ने वाक् के विभिन्न स्तरों-बैखरी मध्यमा व पश्यन्ति की विवेचना की है। इससे पता चलता है कि शिव-उपासक किस तरह ज्ञान-साधक भी होते हैं। लेकिन आज तो वैखरी शिव के उपासक बनते हैं, जबकि शास्त्र का कथन है- शिवों भूत्वां शिवं यजेत्।

शकर नीलकंठ है। हलाहल पान से उनका कण्ठ नीला पड़ गया है। संसार का विष वे कल्याण के लिए चुपचाप पी जाते हैं,? पर सदा प्रसन्न वदन रहते हैं। व समर्थ, अशान्त और अविकसित लोगों भूत-प्रेतों के भी वे आश्रय धाम है। प्राणि मात्र के वे प्रिय है, आराध्य है।

विवेक-ज्योति के कारण वे विगत काम के कर्ता है। उनके मस्तिष्क से ज्ञान की गंगा प्रवाहित होकर निखिल विश्व का कल्याण करती है। सन्तुलन का चन्द्रमा उनके निरद्विग्न मस्तक पर सदा शोभित रहता है।

पौराणिक उपाख्यानों की प्रतीकात्मकता की पुष्टि विश्व भर के पौराणिक प्रतीकों के साम्य से भी होती है।

भारत के शिव और यूनान के डायोनिसस में साम्य है और पुराण-विद् इन्हें एक ही मानते हैं। मिस्र में ओसाइरिस की उपासना का भी इससे ही साम्य पाया जाता है।

शिव और डायोनिसस दोनों को नृत्य का जनक और प्रवर्तक माना जाता है इसी तरह यह साम्य भी विचारणीय है कि यूनान व भारत, दोनों जगह इन नृत्यों तथा संगीत का उद्देश्य सौन्दर्य चेतना की सन्तुष्टि के साथ ही विभिन्न मनोवैज्ञानिक तथा रहस्यात्मक भावनाओं की सन्तुष्टि भी रहा है।

विश्व भर में इन नृत्यों तथा संगीत का प्रयोग मन को एक तीव्र हर्षोन्मादक स्थिति तक पहुँचाने के साथ ही आध्यात्मिक विश्व से संपर्क के लिए भी होता रहा है कि डायोनिसस के सम्मान में गाये जाने वाले ‘डाई थ्राम्स’ और भारत में चण्डी-गीतों के भाव तथा नृत्य-मुद्राओं में भी कई चीजें समान है।

सीरिया, लेबनान, ईरान, यूगोस्लाविया, अल्जीरिया, मोरक्को, तुर्की आदि देशों में ‘जिक्र’ (एक धार्मिक विधि) क्रिया जाता है। इनके संगीत के ढंग व विविध हाव-भाव पूरी तरह भारतीय हाव-भावों से साम्य रखते हैं। ‘जिक्र’ के कई तरीके तान्त्रिक योग के कुछ अभ्यासों से सर्वथा साम्य रखते हैं।

शिव की ही तरह अन्य देवताओं के चित्र-चरित्र रहस्यों से भरे-पूरे है। देववाद के स्वरूप एवं प्रतिपादन के पीछे छिपे हुए रहस्यों को समझने का यदि गम्भीरतापूर्वक प्रयत्न किया जाय तो प्रतीत होगा कि उसमें व्यक्ति के चिन्तन तथा व्यवहार को उच्चस्तरीय बनाने वाली ऐसी कितनी ही महत्त्वपूर्ण दिशा धाराओं का समावेश है, जिनका अवगाहन करके हम स्वयं देव स्तर पर पहुँच सकते हैं।

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