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Magazine - Year 1977 - Version 2

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प्राणायाम का उद्देश्य और स्वरूप

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‘प्राण’ का अर्थ है-वह जीवन तत्व जो प्रकृत पदार्थों के साथ सम्बद्ध होते हुए प्राणियों के शरीरों से लेकर निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। इस सम्बन्ध में एक भ्रामक मान्यता यह है कि प्राण सम्भवतः साँस के साथ चलने वाली वायु का नाम है। सम्भवतः यह भ्रम ‘प्राण वायु’ शब्द के प्रचलन से फैला है। वायु में प्राण घुला हो सकता है, पर स्वयं प्राण वायु के सीमा बन्धन में सीमित नहीं है। यों आक्सीजन को भी प्राण वायु कहने का रिवाज है। इस आक्सीजन में जीवन धारण करने वाली क्षमता का संकेत भर है। प्राण को अमुक गैस या वायु में सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता।

जिस प्रकार ‘ईथर’ ताप, विद्युत, प्रकाश विकिरण आदि प्रकृत पदार्थ इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं, उसी प्रकार प्राण भी जीवन के रूप में संव्याप्त हैं। उसका परिचय शरीरधारियों में क्रियाशीलता, विचारणा एवं भावनाओं के रूप में कार्यान्वित होते हुए देखा जा सकता है। यह सब कुछ बन्द हो जाय तो समझा जा सकता है कि प्राण निकल गया।

प्राण की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहता है- प्राणयति जीवयति इति प्राण।” अर्थात् जो प्राणि मात्र के जीवन का आधार बनकर रहता है वह प्राण है।

वायु और प्राण का परस्पर वैसा ही सम्बन्ध है जैसा शब्द और वायु का। ध्वनि प्रवाह वायु के द्वारा ही होता है। चन्द्रमा पर हवा नहीं है, अस्तु वहाँ दो व्यक्ति अति समीप खड़े होने पर भी परस्पर वार्तालाप नहीं कर सकते। होठ, जीभ आदि सब कुछ चलने और बोलने का पूरा प्रयत्न करने पर भी मुँह से शब्द नहीं निकलेंगे और दूसरे के कानों तक बिना हवा के किसी ध्वनि का पहुँच सकना सम्भव न होगा। रेडियो प्रवाह से बहने वाली विद्युतधारा शब्द को तरंगों में बदल कर सुदूर स्थानों तक ले जाती है और फिर अभीष्ट स्थान पर उसे फिर से शब्द में बदल लिया जाता है वह विज्ञान अलग है। पर सामान्यतया वायु और शब्द की संगति स्पष्ट है। इसी प्रकार वायु के साथ प्राण तत्व के घुले रहने की बात भी स्पष्ट है।

निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त ब्रह्म और प्रकृति के सम्मिश्रण से बनने वाले प्राण की मनुष्य जीवन में अत्यधिक उपयोगिता है। वह शरीर में बलिष्ठता और सुन्दरता के रूप में दृश्यमान होता है। मनःक्षेत्र में उसे साहसिकता, बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के रूप में देखा जा सकता है। अन्तरात्मा में उसी का आलोक श्रद्धा, सद्भावना और उत्कृष्टता के रूप में विकसित होता है। शक्ति के बल पर ही संसार के सारे क्रिया कलाप चलते हैं। जीवनी शक्ति के बल पर व्यक्तित्व के विकास की संभावनाएं बनती हैं। प्राण इसी जीवनी शक्ति का नाम है। वह शरीर के जिस भी अवयव में-जितनी अधिक मात्रा में विद्यमान रहता है वह उतना ही सक्षम एवं विकसित देखा जाता है। मस्तिष्क में उसकी ज्योति ज्ञान बनकर चमकती है। हृदय में दृढ़ता और पराक्रम उत्पन्न करती है। नेत्रों में प्रतिभा-वाणी में प्रभावशीलता के रूप में उसे देखा जा सकता है। होठों पर मुसकान और ललाट पर आशा की किरणों में उसे प्रकट होते हुए देखा जा सकता है।

प्राण तत्व को अभीष्ट परिमाण में उपलब्ध किया जा सकता है और अपने वर्चस्व को विकसित किया जा सकता है। इसके लिए स्थूल माध्यम में नासिका रंध्र ही होते हैं, पर सूक्ष्म रूप में संकल्प शक्ति का वह चुम्बकत्व काम करता है जिसके आधार पर साँस के साथ प्राण भी अभीष्ट परिमाण में खींच सकना और धारण कर सकना सम्भव हो सकता है।

शरीर यात्रा को चलाते रहने योग्य प्राण तो हर किसी को मिला है। उसे व्यक्तिगत विद्युत, जीवनी शक्ति एवं शक्ति ऊर्जा के रूप में मापा आँका जा सकता है। इस सामान्य से आगे बढ़ कर जब असामान्य मात्रा में उसे ग्रहण और धारण करने की इच्छा होती है तो फिर प्राणायाम विज्ञान का आश्रय लिया जाता है।

प्राणायाम का श्वास-प्रश्वास क्रिया से बहुत थोड़ा सम्बन्ध है। फेफड़ों में अधिक हवा भरना ताकि उनके कुछ भाग जो पूरी साँस न लेने से निष्क्रिय एवं अशक्त पड़े रहते हैं उन्हें क्रियाशील बनाना-गहरी श्वास प्रश्वास क्रिया का प्रधान प्रयोजन है। जल्दी साँस लेने से रक्त संचार की गति में तीव्रता आने से भी थोड़ा लाभ हो सकता है, पर यह सामान्य शारीरिक लाभ है। इन्हें दूसरे व्यायामों में भी किया जा सकता। प्राणायाम की गरिमा का मुख्य कारण यह है कि अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में फैले हुए प्राण तत्व (विटल फोर्स) का अधिक मात्रा में आकर्षित करना और उसके द्वारा शरीर और मन के कतिपय शक्ति संस्थानों को समर्थ एवं नियन्त्रित बनाना।

स्वसंचालित श्वास प्रश्वास क्रिया- वेगसनर्व के द्वारा गतिशील रहती है और इस ‘वेगसनर्व’ का सीधा सम्बन्ध अचेतन मन से है। इसे सामान्य इच्छा शक्ति से घटाया, बढ़ाया या रोका, चलाया नहीं जा सकता। इसे प्राणायाम द्वारा आहूत प्राण तत्व ही प्रभावित कर सकता है। कहना न होगा कि इस क्रिया में जितनी सफलता मिलती जाती है उतना ही प्राणतत्त्व का वेगसनर्व के माध्यम से समस्त शरीर पर अधिकार होता चला जाता है। उस सफलता के बाद साँस केवल साँस नहीं रह जाती मात्र वायु का आवागमन और रक्त में से दूषित तत्व छाँटने, निकालने के अतिरिक्त एक नया आधार और मिल जाता है। तब साँस के साथ प्राण तत्व की एक विशेष विद्युत घुली रहती है और उसका प्रभाव किसी भी अंग पर कुछ भी हो सकता है।

स्वसंचालित नाड़ी संस्थान (ओटोनाभिक नर्वस सिस्टम) जो किसी अन्य उपाय से नियन्त्रण में नहीं आता प्राण तत्व का प्रभाव स्वीकार कर लेता है। तब नाड़ी तन्तुओं के सहारे प्राण की एक विलक्षण शक्ति किसी भी प्रत्यक्ष परोक्ष अवयव में भेजी जा सकती है और उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध किये जा सकते हैं। शरीर शास्त्री जानते हैं कि शरीर में रहने वाली क्रिया शक्ति से मस्तिष्कीय ज्ञान शक्ति की समर्थता दस गुनी अधिक है और उससे भी दस गुनी अधिक सामर्थ्य स्वसंचालित नाड़ी प्रक्रिया में है। अर्थात् शारीरिक क्षमता की तुलना में स्वसंचालित क्षेत्रों में सौ गुनी सामर्थ्य काम करती है। उसे यदि नियन्त्रण में लेकर इच्छानुसार प्रयुक्त किया जा सके तो मनुष्य सामान्य क्रियाशीलता की अपेक्षा सौ गुनी क्रियाशीलता अपने में विकसित कर सकता है। हारमोन जैसे तत्व जो शारीरिक और मानसिक विकास को जादुई ढंग से प्रभावित करते हैं, अन्य किसी उपाय से भी दवादारू से भी प्रभावित नहीं होते, पर यदि नाड़ी तन्तुओं, श्वास प्रश्वास लहरियों और माँस पेशियों के आकुंचन प्रकुञ्चन द्वारा उन तक प्राण तत्व का प्रभाव पहुँचाया जा सके तो हारमोन, नाड़ी गुच्छक, उपत्यिकाएँ ग्रन्थियाँ, कोशिकाएँ तथा अवयवों की कार्य पद्धतियाँ निश्चित रूप से प्रभावित की जा सकती हैं।

प्राण तत्व को कई बार दैवी शक्ति (कास्मिक एनर्जी) कहा जाता है और कई मानव तत्त्ववेत्ता उसे प्रत्यक्ष जीवन (विजुअल लाइफ) कहते हैं।

प्रत्येक साँस के साथ हम आकाश से हवा ही नहीं खीचते उसके साथ एक विद्युत भी खींचते हैं। यह विशेष विद्युत सामान्य बिजली की तरह जड़ तत्वों के अंतर्गत नहीं आती क्योंकि उसमें जीवन भी भरा रहता है। ऐसा जीवन जो जीवाणुओं की तरह हलचल ही नहीं करता, वरन् उसमें चेतना और विचारणा भी भरी पड़ी है। यह दिव्य विचारकर्ता ईश्वरीय प्रवाह है जो यदि हम उसे ग्रहण कर सकने की स्थिति में हों तो ईश्वरीय सन्देशों तथा उसके द्वारा चल रहे इस जगत या अन्य लोकों में क्रिया कलापों को देखने, सुनने और समझने में समर्थ हो सकते हैं। प्राणायाम हमें प्राण को उन सूक्ष्म तरंगों से

भी सम्बद्ध कर सकता है जिसके माध्यम से विश्व व्यापी हलचलें हो रही हैं। इन सूक्ष्म प्राण तरंगों से सम्बन्ध बनाया जा सके तो इस विश्व के घटना क्रमों तथा व्यक्तियों के आन्तरिक ढाँचों में आश्चर्यजनक हेर फेर प्रस्तुत किया जाना सम्भव हो सकता है।

मोटे तौर पर नाक से साँस खींचने की, छोड़ने की और रोकने की विधि विशेष को प्राणायाम कहते हैं। खींचने को पूरक, रोकने को कुम्भक और छोड़ने को रोचक कहा जाता है। रोकने के दो तरीके हैं-एक साँस को भीतर भर कर रोके रहना जिसे अन्तः कुम्भक कहते हैं। दूसरा साँस को निकाल देने के बाद बाहर की हवा को भीतर प्रवेश करने से रोकना-बिना साँस लिए काम चलाना इस बाह्य कुम्भक कहते हैं। दो प्रकार का कुम्भक और एक एक प्रकार के पूरक रेचक, इस प्रकार प्राणायाम को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। यों यह, चारों ही क्रियाएँ अपने ढंग से स्वतः ही होती रहती हैं और उनका ध्यान भी नहीं रहता। पर जब उसी प्रक्रिया को विशेष क्रम से, विशेष ध्यानपूर्वक, विशेष भावना और उत्कंठा के साथ सम्पन्न किया जाता है तो उसे प्राणायाम कहा जाता है।

प्राणायाम के अनेकों भेद उपभेद हैं। साधारणतया 84 प्राणायाम की चर्चा होती रहती हैं। उनमें से शीतली, सीत्कारी, उज्जयी, भस्त्रिका आदि आठ मुख्य हैं। उनके भिन्न भिन्न विधान, प्रयोजन तथा परिणाम हैं। पर सभी में एक बात समान यह विश्वास विकसित किया जाता है कि नाक के साथ अन्दर प्रवेश करने वाली वायु के साथ प्रचुर परिमाण में प्राण तत्व भरा पड़ा है और वह प्राणायाम क्रिया करते समय उद्दीप्त हुई संकल्प शक्ति के सहारे भीतर खिंचता चला आ रहा है और उसकी प्रतिष्ठापना शरीर के रोम रोम में होती चली जा रही है। यह अभिव्यक्ति जितनी ही प्रखर होगी उसी अनुपात से उभरा हुआ संकल्प संव्याप्त प्राण को अधिक मात्रा में खींचने और धारण करने में सफल हो सकेगा।

साँस खींचते समय प्राण तत्व का प्रचुर परिमाण में खिंचना, रोकते समय उसका रोम रोम में बस जाना, छोड़ते समय अन्तर की विकृतियों को अपने साथ घसीटते हुए ले चलना और ऐसे सुदूर क्षेत्र में फेंक देना जहाँ से फिर लौटने की सम्भावना न हों। यही तीन संकल्प पूरक, कुम्भक और रेचक के साथ साथ किये जाते हैं। संकल्प में जितनी प्रखरता होगी प्राणायाम उतना ही सफल रहेगा। यदि ऐसे ही उथले मन से साँस खींचते, छोड़ते रहा जाय तो उसके क्रमबद्ध होने पर मात्र फेफड़ों का व्यायाम भर हो सकता है। प्राणायाम का वह लाभ नहीं मिल सकता जिसकी साधना विज्ञान में बढ़ी चढ़ी महिमा बताई गई है।

व्यायाम विज्ञान के शरीर के विभिन्न अवयवों की परिपुष्टि के लिए अनेक साधना बताये गये हैं। उनमें से फेफड़े को मजबूत बनाने के लिए गहरी साँस लेने (डीप ब्रीदिंग) का विधान भी है और इसकी शरीर शास्त्रियों ने कई विधियाँ बताई हैं। साधारणतया लोग हल्की साँस लेते हैं और उससे फेफड़ों का मध्य भाग ही प्रभावित होता है। उनके ऊपर नीचे के भागों में थोड़ी सी ही हवा पहुँचती है, अस्तु वहाँ एक प्रकार से निष्क्रियता ही छाई रहती है। जहाँ निष्क्रियता होगी वहाँ स्वभावतः दुर्बलता रहेगी। सफाई का अवसर कम मिलने से वहीं रोग कीटाणुओं के जाम बैठने का अवसर मिलता है। फेफड़े सम्बन्धी रोगों की संख्या तथा स्वरूप अब बढ़ता ही जा रहा है। क्षय, खाँसी, दमा, प्लूरिसी, साँस फूलना, व्रोंकाइटिस आदि रोग फेफड़ों की दुर्बलता के कारण ही बढ़ते हैं और यह दुर्बलता फेफड़ों के पूरे भाग को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन की कमी तथा समुचित श्रम करने का अवसर न मिलने से उत्पन्न होती है। इस विपत्ति बचने के लिए गहरी साँस लेने के जो तरीके खोजे गये हैं, आरोग्य विज्ञान के क्षेत्र में उन्हीं को प्राणायाम कहा जात है। इस दृष्टि से भी उनकी उपयोगिता है, पर अध्यात्म क्षेत्र में प्राणायाम को जिस आधार पर महत्व दिया जाता है वह जीवनी शक्ति का सम्बन्ध ही है। इसमें अंतरात्मा के विकास का अवसर मिलता है और बढ़ती हुई प्रखरता के आधार पर आत्मोत्कर्ष का वह द्वारा खुलता है जिसमें प्रवेश करने के उपरान्त ही जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर सकना सम्भव होता है।

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