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Magazine - Year 1977 - Version 2

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इस सुव्यवस्थित सृष्टि का भी नियामक है

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प्रत्येक कर्म का कोई अधिष्ठाता, प्रत्येक रचना का कोई कलाकार अवश्य होता है। आगरे का ताजमहल संसार के सर्व प्रसिद्ध सात आश्चर्यों में से एक है। उसके निर्माण में प्रतिदिन 20 हजार मजदूर काम करते थे, इतिहासकारों के अनुमान के अनुसार उसका निर्माण 6 करोड़ रुपये में हुआ। उसके निर्माण में साढ़े अट्ठारह वर्ष लगे। उसमें राजस्थान के आया संगमरमर, तिब्बत की नीलम मणि, सिंहल की सिपास्लाजुली मणि, पंजाब के हीरे, बगदाद के पथराग रत्न लगे हैं। इतनी सारी व्यवस्था और साधन सामग्री जुटाने में एक व्यक्ति की बुद्धि काम कर रही थी। वह था शाहजहां। ताजमहल की रचना के साथ शाहजहां चिरकाल अमर है।

कोरिया का मेमोरियल संसार का दूसरा आश्चर्य । 62 हाथ लम्बी उतनी ही चौड़ी चहारदीवारी के मध्य 40-40 हाथ ऊँचे 36 स्तम्भ जो नीचे मोटे पर ऊपर क्रमशः पतले होते गये हैं। सीढ़ियों पर नीचे से ऊपर तक संगमरमर की बहुमूल्य मूर्तियों की सजावट। प्रसिद्ध कलाकार पाइथिस और माटीराम द्वारा विनिर्मित इस समाधि मन्दिर का निर्माण केवल एक व्यक्ति की इच्छित रचना है वह थीं वहाँ की महारानी “आर्टीमिसिया”।

20 लाख रुपये की लागत से बनी 25 फुट ऊँची ओलम्पिया की जुपिटर प्रतिमा एथेंस के सम्राट् पैराक्लीज की हार्दिक इच्छा का अभिव्यक्त रूप है। इफिसास का डायना मन्दिर चाँदफिन की कल्पना का साकार है तो अजन्ता की 29 गुफाओं में 5 मन्दिरों और 24 बौद्ध विहारों में प्रवर सेन युग के आचार्य सुनन्द का नाम अंकित है। सिकन्दरिया का प्रकाश स्तम्भ सिकन्दर के संकल्प का मूर्तिमान् है। 263 हाथ के घेरों में 22 फुट ऊँचे ठोस घेरे में खड़ा किया गया बेबीलोन का लटकता हुआ बाग (हैंगिंग गार्डन) बेबीलोन साम्राज्ञी ने बनवाया रोम का कोलोसियस, पीसा की मीनार, रोडस की पीतल की मूर्ति मिस्र के पिरामिड चार्टेज गिरजाधर डेविड, मोजेज, सिस्टाइन चैपिल की प्रतिमाएँ, एफिल टावर (पेरिस) हृइट हाउस अमेरिका, लाल किला दिल्ली आदि जितनी भी सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ हैं, उनके रचनाकार आला मस्तिष्क और भाव सम्पन्न आत्माएँ रही हैं किसी भी साँसारिक निर्माण को स्वनिर्मित नहीं कहा जा सकता इसी से रचना के साथ रचनाकार का नाम अविच्छिन्न रूप से चलता है।

यह छोटे छोटे उपादान बिना कर्ता के अभिव्यक्ति नहीं पा सके होते तो इतना सुन्दर संसार जिसमें प्रातःकाल सूरज उगता और प्रकाश व गर्मी देता है। रात थको को अपने अंचल में विश्राम देती, तारे पथ प्रदर्शन करते, ऋतुएँ समय पर आतीं और चली जाती हैं। हर प्रकृति का सुव्यवस्थित स्वच्छता अभियान सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चल रहा है। करोड़ों की संख्या में तारागण किसी व्यवस्था के अभाव में अब तक न जाने कब के लड़ मरे होते। यदि इन सब में गणित कार्य न कर रहा होता तो अमुक दिन, अमुक समय सूर्य ग्रहण चन्द्र ग्रहण, मकर संक्रान्ति आदि का ज्ञान किस तरह हो पाता। यह सोद्देश्य कर्म और सुन्दरतम रचना बिना किसी ऐसे कलाकार के सम्भव नहीं हो सकती थी जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एकरस देखता हो, सुनता हो, साधन जुटाता हो, नियम व्यवस्थाएँ बनाता हों, न्याय करता हो और जीव मात्र को पोषण संरक्षण प्रदान करता हो।

नियामक के बिना नियम व्यवस्था, प्रशासक के बिना प्रशासन चल तो सकते हैं, पर आधे घण्टे से अधिक नहीं जब कि पृथ्वी को ही अस्तित्व में आये करोड़ों वर्ष बीत चुके। परिवार के वयोवृद्ध के हाथ सारी गृहस्थी का नियन्त्रण होता है। गाँव का एक मुखिया होता है तो कई गाँवों के समूह की बनी तहसील का स्वामी तहसीलदार, जिले का मालिक कलक्टर, राज्य का गवर्नर और राष्ट्र का राष्ट्रपति। मिलों तक के लिए मैनेजर कम्पनियों के डायरेक्टर न हों तो उनकी ही व्यवस्था ठप्प पड़ जाती है और उनका अस्तित्व डावाँडोल हो जाता है फिर इतनी बड़ी और व्यवस्थित सृष्टि का प्रशासक, स्वामी और मुखिया न होता तो संसार न जाने कब का विनष्ट हो चुका होता। जड़ में शक्ति हो सकती है व्यवस्था नहीं। नियम सचेतन सत्ता ही बना सकती है, सो इन तथ्यों के प्रकाश में परमात्मा का विराट् चरितार्थ हुए बिना नहीं रहता।

2 फरवरी 1947 के नेशनल हेराल्ड में एक लेख छपा था-वैज्ञानिक भगवान में विश्वास क्यों करते हैं? इस लेख में विद्वान लेखक ने बताया है कि संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम पर काम करता है, यदि इसमें रत्ती भर भी अव्यवस्था और अनुशासन हीनता आ जाये तो विराट् ब्रह्माण्ड एक क्षण को भी नहीं टिक पाता। एक कण के विस्फोट से अनन्त प्रकृति में आग लग जाती और संसार अग्नि ज्वालाओं के अतिरिक्त कुछ न होता।

नियामक विधान किसी मस्तिष्कीय सता का अस्तित्व में होना प्रमाणित करता है। हमारे जीवन का आधा सूर्य है। वह 10 करोड़ 30 लाख मील की दूरी से अपनी प्रकाश किरणें भेजता है जो 8 मिनट में पृथ्वी तक पहुँचती हैं। दिन भर में यहाँ के वातावरण में इतनी सुविधाएँ एकत्र हो जाती हैं कि रात आसानी से कट जाती है। दिन रात के इस क्रम में एक दिन भी अन्तर पड़ जाये तो जीवन संकट में पड़ जाये। सूर्य के लिए पृथ्वी समुद्र में एक बूँद का सा नगण्य अस्तित्व रखती है फिर, उसकी तुलना में रूस के साइबेरिया प्रान्त में एक गड़रिये के घर में जी रहीं एक चींटी का क्या अस्तित्व हो सकता है, पर वह भी मजे में अपने दिन काट लेती है।

सूर्य अनन्त अन्तरिक्ष का एक नन्हा तारा है ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ ने एक एटलस छापा है उसमें सौर मण्डल के लिए एक बिन्दु मात्र रखा है और तीर का निशान लगा कर दूर जाकर लिखी है-हमारा सौर मण्डल यहाँ नहीं है” यह ऐसा ही हुआ कि कोई कहे मेरी आँख का आँसू समुद्र में गिर गया। सूर्य से तो बड़ा “रीजल” तारा ही है जो उससे 15 हजार गुना बड़ा है। “अन्टेयर्स” सूर्य जैसे 3 करोड़ 60 लाख गोलों को अपने भीतर आसानी से सुला सकता है। जून 1967 के “साइन्स टुडे” में “ग्राहम बेरी” ने लिखा है। पृथ्वी से छोटे ग्रह भी ब्रह्माण्ड में हैं और 5 खरब मील की परिधि वाले भीमकाय नक्षत्र भी। किन्तु यह सभी विराट् ब्रह्माण्ड में निर्द्वन्द्व विचरण कर रहे हैं और यदि कहीं कोई व्यवस्था न होती तो यह तारे आपस में ही टकरा कर नष्ट भ्रष्ट हो गये होते।

सूर्य अपने केन्द्र में 1 करोड़ साठ लाख से0ग्रे0 गर्म है, यदि पृथ्वी के ऊपर अयन मण्डल (आइनोस्फियर) की पट्टियाँ न चढ़ाई गई होती। सूरज अपने स्थान से थोड़ा सा खिसक जाये तो ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघल कर सारी पृथ्वी को डूबो दे यही नहीं उस गर्मी से कड़ाह में पकने वाली पूड़ियों की तरह सारा प्राणि जगत ही पक कर नष्ट, हो जाये । थोड़ा ऊपर हट जाने पर समुद्र तो क्या धरती की मिट्टी तक बर्फ बनकर जम सकती है। यह तथ्य बताते हैं ग्रहों की स्थिति और व्यवस्था अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण की गई है। यह परमात्मा के अतिरिक्त और कौन चित्रकार हो सकता है।

गृह-नक्षत्रों की बातें छोड़ दे। परमाणुओं के जिस तालाब में हम जलचरों की तरह जीते हैं उसके एक परमाणु में ही 27 लाख किलो कैलोरी गर्मी भरी है उसे प्रकृति ‘ने शोषिह तह व प्रसुप्त न रखा होता तो जीवन का अस्तित्व एक दिन भी न ठहर पाता। परमाणु के-इलेक्ट्रान प्रति सेकेण्ड 135000 किलोमीटर की प्रचण्ड गति से चलते हैं यदि यह चार्ज क्रियाशील रहा तो पृथ्वी के समस्त प्राणी 16 सेकेण्ड में ही सूर्य पर जा पटके गये होते। ऐसी विद्युत चुम्बकीय आँधी चलती जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को थर-थराकर रख देती। परमात्मा कभी-कभी अपने अस्तित्व के दिग्दर्शन के लिए अपनी इस संहारक क्षमता का प्रयोग तो करता है, पर मात्र मानव की प्रसुप्त-आध्यात्मिकता को झकझोरने के लिए। जैसे पिता बालक की उद्दण्डता तब तक बर्दाश्त करता है, जब तक और किसी का अहित न हो। डाँटा तो वह कभी-कभी ही डराने, धमकाने और अनुशासन में बनाये रखने के लिए करता है।

यह सब सत्य इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि संसार को बनाने वाला अद्भुत गणितज्ञ, विलक्षण इंजीनियर, सुयोग्य चिकित्साधिकारी, मौसम वेत्ता और परमाणु वैज्ञानिक है, उस सत्ता के अस्तित्व से इनकार करना अपने आप को पतन में धकेलने के बराबर है। उसे प्राप्त करने का प्रबल पुरुषार्थ आवश्यक है। जिसने उसे पा लिया उसने अपना जीवन धन्य कर लिया समझना चाहिए।

सर्व नियामक सत्ता की प्रबन्ध व्यवस्था का पता जीवन का आविर्भाव से ही चल जाता है। जीवन की उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सृष्टि में ऐसा प्रबन्ध है कि वे सरलतापूर्वक पूरी हो जाया करें। साँस के बिना प्राणी एक क्षण को भी जीवित नहीं रह सकता, सो वह प्रचुर मात्रा में सर्वत्र उपलब्ध है। उसके बाद जल की आवश्यकता है उसके लिए थोड़ा प्रयत्न करने से ही काम चल जाता है। तीसरी आवश्यकता अन्न की है सो उसके लिए साधन न जुटा सकने वाले प्राणियों के लिए फल-फूल की प्राकृतिक व्यवस्था हैं वहीं बुद्धिवादी जीव थोड़े प्रयत्न का अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं इसके बाद के समस्त उपादान आवश्यकता के अनुपात में प्रयत्न और परिश्रम से प्राप्त होते रहते हैं। इन सार्वभौम आवश्यकताओं की पूर्ति बिना संचालक-व्यवस्थापक के कैसे सम्भव हो सकती थी।

नैतिकता के सर्वमान्य सिद्धान्तों से न केवल जीव समुदाय जुड़ा है अपितु कर्ता ने वह अनुशासन स्वयं पर भी पूरी तरह लागू किया है। भूण जैसी अत्यधिक कोमल संवेदनशील सत्ता को विकसित होने के लिए खुला छोड़ दिया जाता तो प्राण-धारी के लिए उपयोगी वायु, शाप और अन्य प्राकृतिक परिस्थितियाँ ही उसे नष्ट-भष्ट कर डालती सो उसके लिए वातानुकूलित और सर्व सुविधा सम्पन्न निवास माँ के गर्भाशय की व्यवस्था क्या किसी अत्यधिक प्रबुद्ध सत्ता के अस्तित्व का प्रमाण नहीं। जहाँ चारों तरफ से बन्द कोठरी में ही उसे विकास की समस्त सुविधाएँ उचित मात्रा में मिलती रहती हैं। जन्म के पूर्व ही उसके लिए सन्तुलित आहार माँ के दूध जैसा उपलब्ध कराकर उसे अत्यधिक करुणा दरसाई । असहाय असमर्थ शिशु के लिए न केवल भौतिक सहायताएँ अपितु उसके लिए जिन भावनात्मक सुविधाओं की आवश्यकता थी वह समस्त उसे कुटुम्ब में, समुदाय और समाज में मिल जाती हैं । इस तरह जीवन सत्ता परिपक्व रूप में सामने आ जाती है इतने पर भी यह कितने आश्चर्य की बात है कि दूसरों के सहारे बढ़ा विकसित हुआ जीव न केवल सामाजिक कर्तव्यों के प्रति कृतघ्नता का परिचय देने लगता है, अपितु अपने परमपिता , अपनी मूलसत्ता को ही भुला बैठता है।

इतने पर भी वह दयालु पिता उस शिशु के यौवन में प्रवेश करते ही उसकी पितृत्व, कामेच्छा और भावनात्मक सहयोग की पूर्ति के लिए जोड़ी मिलाने, नर को नारी में नारी को नर में अपनी पूर्णता प्राप्त करने की सुविधा जुटाई, रोग निरोध की तथा साँसारिक प्रतिकूलताओं में अपने अस्तित्व की रक्षा की जन्म-जात सुविधाएँ भी प्रदान की हैं । रोगों से लड़ने की शक्ति रक्त कणों में शारीरिक अवयवों की सुरक्षा त्वचा के द्वारा देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान और विचार करने के लिए बढ़िया मस्तिष्क इतनी सुन्दर मशीन आज तक न कोई बना सका और न बना सकना सम्भव है जो इच्छानुसार हर परिस्थिति में मुड़ने, लचकने, संभालने में सक्षम है। आँख जैसी रेटिना, कान जैसा पर्दा गुर्दे जैसे सफाई अधिकारी, हृदय जैसे पोषण संस्थान और पाँव जैसा सुन्दर आर्क बनाने वाली सत्ता कितनी बुद्धिमान होगी इसकी तलना न किसी इंजीनियर से हो सकती है न डाक्टर से । वह प्रत्येक कला-कौशल का ज्ञाता, सर्व निष्णात और सर्व प्रभुता सम्पन्न दानी केवल परमात्मा ही हो सकता है इससे कम मानना न केवल उस परमात्मा की अवमानना होगी अपितु यह एक प्रकार से स्वयं का ही आत्मघात होगा।

इतने पर ही उसके अनुदान समाप्त नहीं हो जाते अग्नि में चिनगारी, पदार्थ में-परमाणु सूर्य में किरणों की तरह वह स्वयं भी मनुष्य की हृदय गुहा में बैठकर उसे प्रतिपल आत्मोत्कर्ष की प्रेरणा देता रहता है। गलत मार्ग पर चलने से पहले ही उसकी प्रेरणा रोकती है, पर मनुष्य अन्तःकरण की उस पुकार को अनसुनी कर स्वेच्छाचारिता बरतता और उस अपराध का दण्ड, रोग, शोक, क्लेश, कलह और मानसिक सन्ताप के रूप में भुगतता रहता है। फिर भी उसकी वासनाएँ शान्त नहीं होती, वह अपनी वासनाओं की, तृष्णा की, अतृप्त कामनाओं की प्यास बुझाने के लिए मानवेत्तर योनियों में भटकता है, तो भी उसकी दया, करुणा, उदारता एक पल को भी साथ नहीं छोड़ती और उसे निरन्तर ऊपर उठने, कामनाओं से मुक्ति पाकर शाश्वत, सनातन और दिव्य आनन्द की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती रहती है। फिर भी इस सता के अजस्र अनुदानों की ओर से आँख फेरकर मनुष्य प्यासा का प्यासा बना रहता है। माया के मूढ़ भ्रमजाल में पड़ा जीवन के बहुमूल्य क्षण मिट्टी के मोल नष्ट करता रहता है।

वैज्ञानिक सृष्टि की नियामक विधि-व्यवस्था प्रत्येक अणु में विद्यमान दिव्य चेतना को नहीं झुठलाती । हर्बर्ट स्पेंसर की दृष्टि में भगवान् एक विराट शक्ति है जो संसार की सब गतिविधियों का नियन्त्रण उसी प्रकार करता है जिस प्रकार घर का मुखिया, गाँव का प्रधान, जिले का कलेक्टर और प्रान्त का गवर्नर । राज्य के नियमों का हम इसलिए पालन करते हैं क्योंकि हमें राज्य दण्ड का भय होता है। नैतिक, नियमों का पालन न करने पर हमें भय लगता है जब कि हम उसके लिए पूर्ण स्वतन्त्र होते हैं। यह बात इस का प्रमाण है कि संसार में कोई सर्वोच्च सत्ता काम करती है इस तथ्य से यह भी स्पष्ट है कि वह प्रजावत्सल और न्यायकारी भी है।

दार्शनिक कान्ट ने इन्पेंसर के कथन को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है- नैतिक नियमों की स्वीकृति ही परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण और पूर्ण नैतिकता ही उसका स्वरूप है। संसार का बुरे से बुरा व्यक्ति भी किसी न किसी के प्रति नैतिक अवश्य होता है। चोर डकैत और कसाई तक अपने बच्चों के प्रति दयालु और कर्तव्य-परायण होते हैं जब कि वे जीवन भर कुत्सित कर्म ही करते रहते हैं। अपने भीतर से नैतिक नियमों की स्वीकृति इस बात का पुष्ट प्रमाण हे कि संसार केवल नैतिकता के लिए ही जीवित है। उसी से संसार का निमार्ण पालन और पोषण हो रहा है। इसलिए परमात्मा नैतिक शक्ति के रूप में माना जाने योग्य है।

हैब्रू ग्रन्थों में ईश्वर को “जेनोवाह” कहा गया है जेनोवाह का शाब्दिक अर्थ हैं -वह जो सदैव सत्य नीति ही प्रदान करता है। दार्शनिक व्लेटो ने उसे-अच्छाई का विचार” कह है। संसार के प्रत्येक व्यक्ति यहाँ तक कि जीव-जन्तुओं में भी अच्छाई की चाह रहती है। अच्छाई में ही आनन्द और आत्म-तृप्ति मिलती है। अच्छाई शरीर और सौंदर्य की जो संयम और सदाचार द्वारा सुरक्षित हो, अच्छाई समाज की जो’ ईमानदारी’ नेकनीयत, विश्वास, सहयोग और परस्पर प्रेम व भाईचारे की भावना से सुरक्षित हो, अच्छाई प्रकृति की जो रंग-बिरंगे फूलों,भाले पशु-पक्षियों के कलरव उनकी क्रीड़ा द्वारा सुरक्षित हो। इस तरह संसार में सर्वत्र अच्छाइयों के दर्शन करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं। परमात्मा इस तरह अच्छाई का वह बीज है जो आँखों को दिव्य मनोरम और बहुत प्यारा लगता है।

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