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Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रायश्चित प्रक्रिया के चार चरण

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मनुष्य के किये हुए दुष्कर्म ही साँसारिक सुख और आत्मिक प्रगति में प्रमुख बाधा बनकर खड़े रहते हैं। पैर में काँटा लग जाने पर- सारे शरीर को कष्ट होता है और नींद नहीं आती। जब तक उसे निकाल बाहर न किया जाय तब तक चैन नहीं पड़ता। विषैला पदार्थ खा लेने पर पेट में जलन होती है, भारी कष्ट होता है और मृत्यु संकट सामने आ खड़ा होता है। वमन विरेचन द्वारा उसे जब तक बाहर न निकाल दिया जाय तब तक वह संकट दूर नहीं होता। आँख में तिनका और कान में मच्छर घुस जाय तो बेचैनी उत्पन्न होगी और वह तब तक बनी ही रहेगी, जब तक कि उन्हें निकाल न दिया जाय। पाप कृत्यों के बारे में भी यहीं बात है। वे बन पड़े हों तो उन्हें प्रायश्चित के द्वारा निकाल बाहर करना ही एक मात्र उपाय है।

प्रमुख प्रश्न उन दुष्कर्मों का है जो भूतकाल में बन पड़े है और जिनके लिए आत्मा प्रताड़ना ही शारीरिक, मानसिक रोगों को उत्पन्न करती रहती है। उसी उद्विग्नता में मन चंचल बना रहता है। न उपासना में लगता है न सत्कर्मों में। इस काँटे को निकालना ही चाहिए। भोजन के साथ मक्खी पेट में चली गई हो तो उलटी कर देना ही एकमात्र उपाय है। भूतकाल में बने पड़ें पापों का प्रायश्चित करके ही उनका शमन समाधान किया जा सकता है।

प्रायश्चित का अर्थ है-स्वेच्छापूर्वक दण्ड भुगतना। इसके लिए तैयार हो जाने से यह सिद्ध होता है कि अपराधी को सच्ची सद्बुद्धि उपजी है, उसे वस्तुतः अपनी भूल पर दुःख है। जो किया है उसका दण्ड बहादुरी से भुगतने की तैयारी है। ऐसा बहादुर ही भविष्य में वैसा न करने की प्रतिज्ञा को निभा सकता है। जिसमें इतना साहस नहीं है। मात्र शब्दाडम्बर से ही अपना बचाव चाहता है उसकी सचाई सर्वथा संदिग्ध है। प्रत्याक्रमण से-प्रतिरोध से बचने के लिए कई लोग गिड़गिड़ाते माफी माँगते देखे जाते हैं। नम्रता के शब्द भर कह देने से क्रुद्ध और दुःखित व्यक्ति को शाँत कर देने-आत्मा और परमात्मा को बहका देने की नीति चतुरता पूर्ण तो है, पर उसमें भविष्य के सुधार का कोई विश्वस्त आश्वासन नहीं है। माफी माँगने के साथ साथ भविष्य में न करने की बात आमतौर से जीभ द्वारा कह दी जाती है, पर उसमें गहराई का पुट तभी माना जा सकता है जब पश्चाताप के साथ प्रायश्चित भी जुड़ा हुआ हो। इसके बिना क्षमा याचना का कोई महत्व नहीं रह जाता वह अपराधी का एक और नये रंग रूप का छल भर कहा जाएगा ।

भारतीय संस्कृति में दुष्कर्मों के प्रायश्चित का विधान है। स्वयं दण्ड भुगतने के लिए तैयार होना एक सत्साहस हैं। उसमें व्यक्ति की सचाई और साहसिकता टपकती है। ईश्वर से क्षमा, प्रार्थना करने-किसी नदी, सरोवर से नहाने-देव दर्शन-व्रत उपवास, छुटपुट दान पुण्य के कर्मकाण्डों से अपराधी वृत्ति के मुड़ने बदलने की सम्भावना भर प्रकट होती है। इतने भर से वे गाठें नहीं खुल जातीं जो दुष्कर्मों के फलस्वरूप अंतःक्षेत्र में कैन्सर नासूर के फोड़ों की तरह जड़ जमा कर बैठ गई हैं। इन्हें उखाड़ने के लिए कड़े और गहरे आपरेशन की जरूरत पड़ती है। ग्रह सब उतना ही वजनदार होना चाहिए जितना कि किया गया दुष्कर्म भारी था।

प्रायश्चित के चार चरण हैं-

(1) जीवन भर के दुष्कर्मों की सूची बनाकर उनके द्वारा दूसरों को पहुँची हानि का स्वरूप समझना।

(2) दुष्कर्मों का चिन्तन कर आत्म विश्लेषण करना, उन्हें न दोहराने का संकल्प एवं विज्ञजनों के समक्ष उनका प्रकटीकरण करते हुए प्रायश्चित का संकल्प लेना।

(3) पश्चाताप के प्रतीक रूप में व्रत, उपवास, जप, अनुष्ठान आदि प्रायश्चित कृत्य करना ।

(4) व्यक्ति अथवा समाज को जो हानि पहुँची हो उसकी क्षति पूर्ति करने के लिए यथासम्भव अधिकतम प्रयत्न करना।

यह चारों चरण मिला देने से ही प्रायश्चित का एक समग्र स्वरूप बनता है। इनमें से बातें पूरी कर लेना और भरी से कन्नी काटना इस बात का प्रमाण नहीं कि अपराधी को अपनी भूल पर वस्तुतः दुःख है और वह उसके निराकरण के लिए वस्तुतः इच्छुक है। चतुरता हर क्षेत्र में बरती जाती है। प्रायश्चित के नाम पर भी यत्किंचित् चिन्ह पूजा करके ऐसे ही बला टाली जा रही हो तो भर से बात कुछ बनने वाली नहीं है। अन्तः करण में दबे हुए अनौचित्य को उखाड़ने के लिए प्रायश्चित भी वजनदार होना चाहिए।

इन चारों चरणों का अधिक स्पष्टीकरण यह है कि पाप कर्म इसलिए बनते और बढ़ते रहते हैं कि कर्ता उनके द्वारा होने वाली हानियों पर ध्यान नहीं देता। उन्हें अन्य लोगों द्वारा

भी अपनाई जाने वाली सामान्य क्रिया-प्रक्रिया मान लेता है और ऐसे ही हलके मन से उन्हें करता चला जाता है । बाद में वे अभ्यास बन जाते हैं । धन, अधिकार, आतंक, उपयोग जैसे कई लाभ मिलने लगते हैं तो उनका आकर्षण और भी अधिक बढ़ जाता है। पीछे वह आदत, स्वभाव का अंग बन जाती है और बाहर वालों के समझाने, बुझाने एवं डाँट-डपटने से भी नहीं छूटती। कुमार्ग से विरत होने का एक ही मार्ग है कि उस मार्ग पर चलने वाले को उसकी हानियाँ स्वयं दृष्टिगोचर हों और प्रतीत हो कि इस दिशा में चलकर वह अब तक अपना तथा दूसरों का कितना अहितकर चुका । गतिविधियाँ जारी रहीं तो और भी कितनी हानि हो सकती है।

दुष्कर्मों, दुष्प्रवृत्तियों और दुर्भावनाओं से दूसरों का अहित और अपना हित होने की बात सोची जाती है, पर वस्तुस्थिति इसके सर्वथा विपरीत है। कुमार्ग की कँटीली राह पर चलने से अपने ही पैर काँटों से विंधते हैं, अपने ही अंग छीलते और कपड़े फटते हैं। झाड़ियों को भी कुछ हानि तो होगी, पर इससे क्या? घाटे में तो अपने को ही रहना पड़ता। अपना मस्तिष्क विकृत होने से प्रगति के रचनात्मक कार्यों में लग सकने वाली शक्ति नष्ट हुई। अनावश्यक गर्मी बढ़ाने से यह बहुमूल्य यन्त्र विकृत मनःस्थिति गड़बड़ाने से क्रिया कलाप उलटे हुए और विपरीत परिस्थितियों की बाढ़ आ गई। हर दृष्टि से यह अपना ही अहित है। अस्तु बुद्धिमत्ता इसी में है कि सन्मार्ग पर चला जाय, सत्प्रवृत्तियों को अपनाया जाय और अन्तःकरण को सद्भावनाओं से भरा पूरा रखा जाय।

इस के चिन्तन से ही वह विरोधी प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सकती है जिसके कारण दुष्कर्मों के प्रति भीतर से घृणा उपजती है, पश्चाताप होता है। यह घृणा और पछतावा ही वे आधार हैं जिनके सहारे भविष्य में वैसा न होने की आशा की जा सकती है। अन्यथा कारणवश उपजा सदाचरण का उत्साह, श्मशान वैराग्य की तरह ठण्डा हो जाएगा और फिर उसी पुराने ढर्रे पर गाड़ी के पहिये लुढ़कने लगेंगे। प्रथम चरण पश्चाताप की उपयोगिता इसी दृष्टि से है कि अन्तःकरण में अनाचार विरोधी प्रतिक्रिया इतने उग्र रूप से उभरे कि भविष्य में उस प्रकार के आचरण की गुँजाइश ही शेष न रह जाय।

दूसरा चरण मन की गाठें खोल देने का है। इसमें दूसरों का नहीं अपना ही लाभ है। अनैतिक दुराव के कारण मन को भीतरी परतों में एक विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक ग्रन्थियाँ बनती हैं। उनके कारण केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोग भी उठ खड़े होते हैं। यह प्रकृति निर्मित-स्वसंचालित दण्ड व्यवस्था है जिसके कारण अपना आपा ही न्यायाधीश बनकर अनाचार के दुष्परिणाम प्रस्तुत करता रहता है। यह ग्रन्थियाँ व्यक्तित्व को बुरी तरह लड़खड़ा देती हैं। उसे विकृत, बेढंगा, बेहूदा और बेसिलसिले का बना देती हैं। ऐसा व्यक्ति कुढ़ता कुढ़ाता, खीजता खिजाता देखा जाता हैं- हंसने हंसाने का सहयोग देने, पाने की उसकी स्थिति ही नहीं रह जाती। यदि इस स्थिति से छुटकारा न मिले तो अर्ध विक्षिप्त, अर्ध मृतक, अर्धांगग्रसित रोगी की तरह गया-गुजरा-उपहासास्पद तिरस्कृत जीवन बिताना पड़ता है। विकसित व्यक्तित्व का लाभ यदि समझा जा सके तो उसका मूल्य चुकाने की भी तैयारी करनी चाहिए। खुला ‘मन, स्वच्छ मन, निष्कपट मन, दुराव रहित मन ही व्यक्तित्व को गौरवान्वित स्थिति तक पहुँचाने में समर्थ हो सकता है।

मानसोपचार में रोगी अब तक के जीवन के सामान्य जीवन-क्रम को विस्तारपूर्वक सुनाने के लिए कहा जाता है। चिकित्सक उन संस्मरणों को रुचिपूर्वक सुनता जाता है। उस प्रसंग में उन घटनाओं की भी चर्चा हो जाती है। जितने अचेतन मन पर कोई अवांछनीय छाप डाली और मानसिक स्तर लड़खड़ा गया। मन में चुभा वह काँटा यदि निकल गया तो वह विक्षिप्त व्यक्ति स्वयमेव अच्छा होने लगता है और कष्ट कट जाता है। शरीर में विष का प्रवेश हो जाय तो उसे किसी न किसी उपाय से निकाल बाहर करना ही प्राण रक्षा का एकमात्र उपाय होता है। ठीक उसी प्रकार अनैतिक दुराव की ग्रन्थियों को निकाल बाहर करने से ही वह मनः स्थिति प्राप्त होती हैं जो सुविकसित जीवन-क्रम बनाने के लिए नितान्त आवश्यक है। इस दृष्टि से उन दुरावों को प्रकट करना आवश्यक है।

असत्य को सबसे बड़ा पाप माना गया है। कपट और छल-छिद्र को रामायण में अध्यात्म मार्ग का सबसे बड़ा अवरोध और ईश्वर विरोधी विग्रह माना गया है। व्यभिचार में यों हत्या, अपहरण जैसा कोई अत्याचार नहीं हैं, पर चूँकि उसमें दुराव अपनाना पड़ता है ,अस्तु उतने भर से अतीव हानिकारक परिस्थितियाँ बन जाती हैं और अनिष्टकारक प्रतिक्रियाएँ होने लगती हैं। असत्य के कई विशेष प्रसंगों की अपवाद रूप से समय की आवश्यकता के रूप में अपनाना पड़ता है। किन्तु सामान्यतया उसे इसी कारण पाप ठहराया गया है कि उसमें दुराव का भयंकर दोष छिपा हुआ है और इस कारण विकृतियों की अवांछनीय शृंखला ही चल पड़ती है।

अनैतिक दुरावों के प्रकटीकरण में यह खतरा भी है कि ओछे व्यक्ति उन जानकारियों का अनुचित प्रयोग कहने वाले की बदनामी करने तथा हानि पहुँचाने के लिए कर सकते हैं। अस्तु निस्संदेह उस प्रकटीकरण के लिए ऐसे सत्पात्रों को ही चुनना चाहिए जिनकी उदारता एवं दूरदर्शिता असंदिग्ध हो। चिकित्सक के आगे रोगी को अपने यौन रोगों की वस्तुस्थिति बताती पड़ती है। उदार चिकित्सक उन कारणों को प्रकट करते नहीं फिरते जिनकी वजह से वह रोग उत्पन्न हुए। उनका दृष्टिकोण रोगी की कष्ट निवृत्ति भर होता है। ऐसे ही उदार चेता एवं उपयुक्त मार्ग दर्शन कर सकने में समर्थ व्यक्ति ही इस योग्य होते हैं जिनके सामने अपने मन को दुराव ग्रन्थियाँ खोली जा सकें। हर किसी के सामने इस प्रकार के वर्णन करते फिरने में और भी उलटी और नई झंझट भरी परिस्थितियाँ उठ खड़ी होने की सम्भावना रहती है। अस्तु इस संदर्भ में जहाँ रोगी और चिकित्सक की स्थिति हो वहीं प्रकटीकरण की बात सोचनी चाहिए।

ईसाई धर्म में प्रवेश करने वाले को ‘बपतिस्मा’ लेना पड़ता है। उस संस्कार के समय मनुष्य को अब तक के अपने पाप पादरी के सम्मुख एकान्त में कहने होते हैं। उस धर्म में मृत्यु के समय भी यही करने की धर्म परम्परा है। मरणासन्न के पास पादरी पहुँचता है। उस समय अन्य सब लोग चले जाते हैं। मात्र पादरी और रोगी ही रहते हैं। वह व्यक्ति अपने पापों को पादरी के सामने प्रकट करता है। इस प्रकार उसके मान पर चढ़ भार हल्का हो जाता है। पादरी शान्ति सद्गति की प्रार्थना करता है और रोगी को आश्वस्त करके महा प्रयाण के लिए विदा करता है। बपतिस्मा और मरण काल में इस स्वीकारोक्ति को-कन्फैशन को अत्यन्त पवित्र और आवश्यक माना गया है। मनःशास्त्र के अनुसार यह प्रथा नितान्त श्रेयस्कर ठहराई गई है।

प्रायश्चित में प्रकटीकरण को एक अति महत्वपूर्ण अंग माना गया है। अनैतिक कृत्यों के दुराव को कभी किसी के सामने प्रकट न किया जाय तो मनःक्षेत्र में वह उर्वरता उत्पन्न न हो सकेंगी जिसमें आध्यात्मिक सद्गुणों का अभिवर्धन सम्भव होता है।

प्रायश्चित का तीसरा चरण है-दण्ड स्वरूप ऐसे अपने ऊपर दबाव डालना जिनकी स्मृति देर तक बनी रहे और उस परिवर्तन की छाप को अन्तःचेतना गहराई तक धारण कर ले। बच्चे को कभी-कभी अधिक गड़बड़ी फैलाने पर अभिभावक हल्की चपत जड़ देते हैं या दूसरे प्रकार से धमका देते हैं। उससे बच्चे पर सामान्य समझाने-बुझाने की अपेक्षा अधिक गहरा असर पड़ता है और वह सीख जाता है कि इस प्रकार की गड़बड़ी पर अभिभावक कितने अधिक रुष्ट होते हैं। इस दृष्टि से वह धमकाना थोड़ा कष्टकर होने पर भी परिणाम की दृष्टि से श्रेयस्कर होता है। उससे गड़बड़ी के दुहराये जाने की सम्भावना घटती है।

स्कूलों में भी बच्चों को पैसे का जुर्माना, खड़ा कर देना, परीक्षा से रोक लेना आदि दण्ड दिये जाते हैं ताकि उनकी अनुचित गतिविधियों को रोका जा सके । जेल में जो कैदी गड़बड़ी करते हैं उन्हें बेड़ी, खड़ी हथकड़ी, कड़ा परिश्रम, तनहाई , छूटने में मिलने वाले समय की रिआयत को काट लेना आदि कई तरह के सामयिक दण्ड मिलते हैं। इसका उद्देश्य इतना भर होता है कि जेल व्यवस्था तोड़ने पर अधिकारी वर्ग रुष्ट हैं और दण्ड देने पर उतारू हैं। इससे कैदी के मन पर छाप पड़ती है और भविष्य में उस गलती को दुहराने से डरता है। प्रायश्चित रूप में अपने आपको दण्ड देने में यह पद्धति तप-तितीक्षा के नाम से विनिर्मित की गई है।

व्रत, उपवासों में कई तरह के विधि-विधान हैं। चांद्रायण, कृच्छ चांद्रायण आदि का विशेष रूप से उल्लेख है और भी कई हलके-भारी व्रत-उपवास अस्वाद, आहार, एक समय खाना आदि की विधि-व्यवस्थाएँ मिलती हैं। पैदल तीर्थयात्रा, परिक्रमा इसी प्रकार है जैसे पुलिस फौज में अपराधी सिपाहियों को दौड़ने की ‘दलील’ कराई जाती है। सर्दी-गर्मी का सहना, कम वस्त्र पहनना, नंगे पैर रहना, भूमिशयन, मौन धारण, रात्रि जागरण, खड़े रहना, आदि कितने ही विधानों का शास्त्र में उल्लेख मिलता है। जप, अनुष्ठान, पाठ आदि भी इस संदर्भ में कराये जाते हैं । इन सब में थोड़ी-सी शारीरिक एवं मानसिक कठिनाई सहन करनी पड़ती है। इससे अनीति आचरण के दुष्परिणाम और छोड़ देने के लिए किये संकल्प का ध्यान भविष्य में भी बना रहता है। यह अन्तः चेतना पर परिवर्तन की छाप छोड़ने का अच्छा उपाय है। इसलिए इस तीसरे चरण को प्रायश्चित विधान में समुचित स्थान दिया गया है।

चौथा चरण सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक हैं। प्रथम तीन चरणों को उसका भूमिका माना जा सकता है। असली और प्रभावशाली बात है- क्षति पूर्ति । जो हानि पहुँचाई गई है उसकी पूर्ति होनी चाहिए। सड़क पर गड्ढा खोदकर यदि दूसरों के लिए उसमें गिरने का कष्ट कारक आचरण किया गया है तो उसकी क्षति पूर्ति इसी प्रकार होगी कि जितना श्रम गड्ढा खोदने में किया जाय। गड्ढा पट जाने पर ही उस अनाचार की भरपाई होगी, जिसके कारण अनर्थ होता रहा। विघातक कृत्य के वजन का विधेयात्मक कार्य करने पर ही सन्तुलन बनता है और क्षति पूर्ति सम्भव होती है। पाप के वजन के बराबर पुण्य करने पर तराजू के पलड़े बराबर होते हैं।

हमारी भावी रीति नीति सज्जनता युक्त होनी चाहिए। इन दिनों मनःक्षेत्र में जो दोष, दुर्गुण भरें हों, उन्हें भविष्य में चरितार्थ न होने देने का निश्चय करना चाहिए। सज्जनता ही हर दृष्टि से लाभदायक नीति है। यदि अनाचार से लड़ना पड़े तो उसे बहादुरी से उस धर्म युद्ध में उतरा जाय, पर उस मोर्चे पर भी शालीनता को हाथ से न जाने दिया जाय। द्वेष के स्थान पर सुधार को लक्ष्य कर कुमार्गगामियों से लड़ा जा सकता है। उसमें अनीति का प्रतिकार भी हो जाएगा और द्वेष की लपट से अपने आपको जलाने की-प्रतिपक्षी की अपेक्षा अपने को ही अधिक हानि पहुँचाने वालो विपत्ति भी सिर पर न बरसने पायेगी। आत्म-रक्षा की आवश्यकता समझी गई हो तो सबसे पहले भीतर घुसे दुर्भावों से और व्यवहार में आने वाले दुष्कर्मों से अपना पिण्ड छुड़ाना चाहिए।

सरकारी खजाने की कोई खजांची रकम लेकर भागे। पीछे वह अपनी भूल स्वीकार करे और प्रायश्चित करना चाहे तो उसे पहला कदम यही उठाना पड़ेगा कि जो रकम उड़ाई गई थी, उसमें से जितना कुछ बचा हो उसे तो तत्काल वापिस जमा करा दिया जाय और शेष के लिए किश्तों में धीरे-धीरे चुका देने की पेशकश की जाय तो समझौता होने की-मुकदमा न चलने और जेल न भुगतने की सम्भावना बन सकती है। जो रकम हड़पी भी गई थी उसे डकार लिया जाय और ऐसे ही व्रत, उपवास करके क्षमा याचना करके दण्ड से छुटकारा पा लिया जाय ऐसा नहीं हो सकता।

प्रायश्चितों के साथ दान पुण्य के विधान जुड़े रहते हैं। इसमें धन दान और श्रमदान दोनों की ही व्यवस्था है। क्षति पूर्ति इसी रूप में ही दो पहलू हैं। क्षति पूर्ति के लिए एक का या दोनों का प्रयोग किया जा सकता है। क्षति यदि शारीरिक, मानसिक की गई है तो आवश्यक नहीं कि उसी रूप में उसे पूरा किया जाय। धन के रूप में भी उसे चुकाया जा सकता है। कारखानों में, दुर्घटनाओं में किसी का अंग भंग हो जाने पर उसकी क्षति पूर्ति मुआवजे का धन दिलाकर कराई जाती है। मान हानि के मुकदमों में बदले में मानहानि नहीं कराई जाती, वरन् अपराधी से कहा जाता है कि वह धन देकर क्षति पूर्ति करे।

यदि धन न हो तो श्रम देकर उसकी पूर्ति हो सकती है। जुर्माना न दे सकने वाले अपराधी को अमुक समय तक जेल में रहकर समाज की क्षति पूर्ति करनी पड़ती है। अपराध व्यक्ति विशेष के साथ किसी संस्थान के साथ हुआ, पर सरकार उसका जुर्माना वसूल करती है। कारण स्पष्ट है। सरकार समाज की प्रतिनिधि है। व्यक्ति विशेष के साथ हुए अपराध भी प्रकारान्तर से समाज के साथ बरता गया अनाचार ही है। अस्तु समाज को अधिकार है कि वह अपने किसी घटक के साथ बरती गई अनीति का प्रतिशोध ले और शासन तन्त्र के माध्यम से उसे दंडित करे।

आवश्यक नहीं कि जिस व्यक्ति को जिस तरह हानि पहुँचाई गई हो उसकी, उसी रूप में पूर्ति की जाय। बहुत बार वैसा सम्भव ही नहीं रहता। यौन सदाचार नष्ट करने पर उसकी क्षति पूर्ति ठीक उसी रूप में सम्भव नहीं हो सकती। जो व्यक्ति मर गये हैं या अविज्ञात स्थान को चले गये हैं उनका उसी रूप में कैसे बदला चुकाया जाय? यहाँ यही मानकर चलना होता है कि सारा समाज एक हैं। व्यक्ति उसी के घटक हैं। शरीर के एक अंग के साथ किया गया दुर्व्यवहार समूचे शरीर को कष्ट पहुँचाता है। गाल पर चपत मार देने से मात्र गाल को ही कष्ट नहीं हुआ, समूचे व्यक्ति का अपमान है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति विशेष के साथ किये गये दुर्व्यवहार को पूरे समाज की क्षति माना जा सकता है और उसका बदला समाज सेवा के रूप में चुकाया जा सकता है। फैलाई गई दुष्प्रवृत्तियों की भरपाई के लिए आवश्यक है कि उतने ही परिमाण में सत्प्रवृत्तियाँ फैलाने वाले लोक मंगल के कार्य किये जाय। इस प्रयोजन में धन एवं श्रम का अधिकाधिक उपयोग करना चाहिए। यदि हानि पहुँचाने के बदले उससे अधिक वजन के सेवा कार्य किये गये तो इसमें भी लाभ ही लाभ है। पुण्य की बढ़ी हुई मात्रा अपने लिए उज्ज्वल भविष्य का आधार बनेगी। चिन्ता तो तब होनी चाहिए जब पाप की तुलना में पुण्य कम परिमाण में बन पड़ रहा हो।

यहाँ यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि पाप तो बहुत भारी किये हैं उनके बदले में उतना पुण्य तो बन नहीं पड़ेगा। इसलिए थोड़ा करने से क्या लाभ? तब न करना ही ठीक हैं। हमें सोचना चाहिए कि जितना चुक सके उतना चुकाने के लिए तो पूरी ईमानदारी और पूरी शक्ति के साथ प्रयत्न किया ही जाय। यदि वस्तुतः विवशता ही होगी तो परमेश्वर परिस्थितियों को समझते हैं वे भावना के अनुरूप निर्वाह भी कर सकते हैं। दिवालिये से एक अंश लेकर ही ऋण देने वाले उसका छुटकारा कर देते हैं। बैंकें भी अपनी पूँजी डूबती देखकर कर्जदार से समझौता करती हैं और कम लेकर भी झगड़ा समाप्त कर लेती हैं। साहूकार जब देखते थे कि आसामी के पास कुछ नहीं है तो जितना वह दे सके लेकर छुटकारा लिख देते थे ताकि भविष्य के लिए लेन देन फिर शुरू हो सके। ऐसी व्यवस्था भगवान के यहाँ तथा समाज के विधान में भी है। यदि प्रायश्चित की क्षति पूर्ति के लिए सच्ची व्याकुलता है और ईमानदारी के साथ शक्ति भर प्रयास किया गया है तो उस सद्भावना की यथार्थता को परखते हुए विधि विधान में भी इतनी लोच लचक विद्यमान है कि उतने भर से पाप कृत्यों का समाधान हो सके और अन्तःकरण के परिमार्जन का वह लाभ मिल सके जो प्रायश्चित विधान का मूलभूत उद्देश्य है।

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