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धर्म को मत-मतान्तरों में मत उलझाओ। उसे सिद्धान्त वाद-विवादों, शास्त्र-चर्चाओं और कर्मकाण्डों में मत उलझाओ। धर्म तो जीवन है-जीवन यज्ञ का मूर्तिमान रूप है।
जो भी काम करो-जहाँ भी काम करो-धर्म और कर्त्तव्य समझकर करो। अपनी परीक्षा समझो और उसे श्रेष्ठतम स्तर का-श्रेष्ठतम उपयोग में आ सकने योग्य बनाने का प्रयत्न करो। आदर्शवादी दृष्टिकोण के साथ समग्र तत्परता के साथ किया हुआ कर्म ही धर्म है। पूजा के समय ही नहीं, हर घड़ी धर्मात्मा रहने की आवश्यकता है।
दैनिक जीवन ही वह मन्दिर है जिससे धर्म के देवता की पूजा की जा सकती है। उसके पुजारी तुम्हीं हो सकते हो-केवल तुम्हें। जीवन यज्ञ है। उसमें तुम्हीं मन्त्र बनो, तुम्हीं अग्नि और तुम्हीं आहुति। पवित्र धर्मानुष्ठान के लिए न कि इससे कम से काम चलता है और न इससे अधिक की आवश्यकता है।
-सन्त श्री वास्वानी
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