
कर्मफल का प्रारब्ध में भुगतान
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कर्म का प्रतिफल भौतिक जगत में उपलब्ध होते पग-पग पर दृष्टिगोचर होता है, सत्कर्म और दुष्कर्म का भला-बुरा परिणाम भी मनुष्य को मिलकर ही रहता है। उस सुनिश्चित व्यवस्था से शास्त्रकारों ने सर्वसाधारण को इस प्रकार अवगत कराया है-
कर्मणःफलनिर्वित्ति स्वयमश्नाति कारकः।
प्रत्यक्षं दृश्यते लोके कृतस्यापकृतस्य च॥
शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा।
कृतं फलति सर्वत्र ना कृत भुज्यते क्वाचिद्॥
अर्था वा मित्र वर्गो वा ऐश्वर्यवा कुलान्वितम्।
श्रीश्चापिदुर्लभाभोक्तु तथैवाकृतकर्मभिः॥
स्यं चेतु कर्मफलं न स्यात् सर्वमेवाफलं भवेत्।
लोको दैवमालक्ष्य उदासीनो भवेन्ननु॥
अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैवमनुवर्तते।
वृथा भ्राम्यति सम्प्राप्यपर्तिं क्लीवमिवांगना॥
कृतः पुरुष कारस्तु दैवमेवानुवर्तते।
न दैवमकृते किञ्चिद् दातुमर्हति॥
पांडवानां कृतं राज्यं धार्तराष्ट्रमहाबलैः।
पुनः प्रत्याहृतं चैव न दैवाद् भुजसंश्रयात्॥
यथा तैलसंक्षयाद् दीपः प्रह्वासमुपगच्छति।
तथा कर्मक्षमाद् दैवं प्रह्वासमुपवच्छति॥
-महाभारत अनु. अ. 6
कर्म की फल सिद्धि को स्वयं कर्त्ता भोगता है, अच्छे और बुरे कर्म का संसार में प्रत्यक्ष परिणाम देखा जाता है। शुभ कर्म से सुख एवं पाप कर्म से दुख होता है। किए हुए कर्म का फल मिलता है। कर्म के बिना फल कहीं भी भोगा नहीं जाता। धन या मित्र या ऐश्वर्य या कुलीनता और लक्ष्मी का भी भोगना कर्महीन जनों के लिए दुर्लभ है। यदि कर्म का फल न होता तो कर्म निष्फल हो जावें और सभी लोग भाग्य का आश्रय लेकर निश्चय कर्म करने से उदासीन हो जावें। जो जन मनुष्योचित कर्म न करके दैव के भरोसे रहता है, वह नपुंसक पुरुष-स्त्री की भाँति व्यर्थ जीवनयापन करता है। पुरुषार्थ किया हुआ ही दैव के रूप में आता है, दैव पुरुषार्थ किये बिना किसी को कुछ नहीं दे सकता है। पाण्डवों का राज्य धृतराष्ट्र के पुत्रों द्वारा छीना हुआ पुनः बाहुबल से प्राप्त किया दैव से नहीं। जैसे-तैल के क्षय से दीपक क्षीणता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार कर्म के क्षय से दैव भी क्षीण हो जाता है।
अवश्यमेव लभते, फलं पापस्य कर्मणः।
भर्तः पर्यागते काले कर्ता नास्त्यत्र संशयः॥
बाल्मी.यद्ध.स. 111॥।
पाप कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त होता है। हे पते! समय आने पर कर्त्ता फल पाता है, इसमें संशय नहीं है।
हे उत्तम पुरुष! जो कोई भी शुभ या अशुभ कर्म करता है वह पुरुष अवश्य ही उसके फल को प्राप्त होता है। इसमें संशय नहीं है।
सुशीघ्रमपि धावन्तं विधानमनुधावति।
शेते सह शयानेन येन-येन यथा कृतम्॥
उपतिष्ठिति निष्ठन्तं गच्छन्तमनुगच्छति।
करोति कुर्वतः कर्म छायेवानुविधीयते।
येन-येन यथा यद्यत् पुरा कर्म समाहितम्।तत्तदेव नरो भुड्ते नित्यं विहितमात्मना॥
महा. शान्ति. अ. 181
जिसने जो कर्म किया है वह कर्म शीघ्र दौड़ते हुए के साथ दौड़ता है, सोये हुए के साथ सोता है।
बैठे हुए के साथ बैठता है और चलते हुए के साथ चलता है, करते हुए के साथ करता है। सारांश यह कि किया हुआ कर्म छाया के समान मनुष्य के साथ रहता है।
जिस-जिस ने जैसे जो-जो पहले कर्म किया है। वह-वह ही मनुष्य अपने किये कर्मों को नित्य भोगता है।
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