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Magazine - Year 1978 - Version 2

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आत्म साधन के तीन चरण

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उच्चस्तरीय अध्यात्म साधना के भाव पक्ष के तीन चरण हैं- (1) भजन (2) मनन और (3) चिन्तन। तीनों का सन्तुलन ही समग्र साधना का स्वरूप है। तीनों में से एक की भी कमी अन्न, जल और वायु में से एक की कमी होने जैसा है। जीवन−यात्रा के लिये जैसे ये तीनों जरूरी हैं, जीवन साधना के लिए उसी तरह भजन, मनन, और चिन्तन तीनों जरूरी हैं। इन्हें ही गायत्री महामन्त्र के तीन चरणों की सूक्ष्म प्रेरणाओं की त्रिवेणी कहा जा सकता है।

सामान्यतः शरीर की मांसपेशियों पर क्रियाकलापों का तनाव बना रहता है और मन−मस्तिष्क पर विषयों के आकर्षण की उत्तेजनाएं छाई रहती हैं। उच्चस्तरीय भजन के लिए शरीर व मन मस्तिष्क का इन स्थितियों से ऊपर उठना जरूरी है। इसके लिए शरीर को शिथिल और मन को उदासीन करना होता है। थोड़े से अभ्यास से यह सहज सम्भव हो जाता है।

शरीर को शिथिल करने के लिए शिथिलीकरण मुद्रा एवं शवासन का अभ्यास वांछित है। आराम कुर्सी पर या पेड़, दीवार आदि पर टिककर अथवा कोमल बिस्तर का सहारा लेकर शरीर को निद्रानिमग्न यानि निष्प्राण की−सी स्थिति में ले जाना चाहिए। ताकि शरीर पूर्ण विश्राम की स्थिति में रह सके। मानसिक दृष्टि से इस स्थिति का ध्यान भूमिका कहा जाता है। शरीर के शिथिलीकरण के बाद ही ध्यान सम्भव है। पद्मासन, बुद्ध पद्मासन जैसे तनाव उत्पन्न करने वाले आसनों से अन्य प्रयोजन तो सिद्ध हो सकते हैं, पर ध्यान में कठिनाई हो जाती है। ध्यान के लिए मांसपेशियों की शिथिलता जरूरी है।

शारीरिक शिथिलता के साथ ही मन को रिक्त करना आवश्यक है। इसके लिए मन में शून्यता को परिव्याप्त करने का अभ्यास करना होता है। इसकी सहज विधि यह है कि प्रलयकाल की स्थिति का स्मरण किया जाय। बाजार में बिकने वाले प्रलय दृश्य− वाले चित्रों का सहारा सजीव कल्पना के लिए लिया जा सकता है। मन को अधिकाधिक शान्त बनाते हुए सोचा जाए कि प्रलयकाल की तरह नीचे निस्सीम जलराशि की अनन्त नीलिमा है और ऊपर नील आकाश का निरतिशय विस्तार है। कोई भी व्यक्ति या पदार्थ कहीं नहीं। सर्वत्र परम शान्तिदायिनी नीलिमा एवं नीरवता ही व्याप्त है। मन को आकर्षित करने लायक कहीं कुछ बचा ही नहीं है। परमशून्यता की इस स्थिति में अपनी निर्मल चेतना कमल−पत्र पर शिशु की तरह लेटी तैर रही है। जैसे बालक अपने ही पैर का अंगूठा पीता है, वैसे ही आत्मचेतना स्वरस का पान कर रही है। बस, चारों ओर परम शान्ति है। अभ्यास में यह दृढ़ होगा। क्रमशः प्रगाढ़ मानसिक शान्ति की स्थिति बनती जाएगी। यही भावपरक ध्यानयोग का पूर्वार्ध है। ऑपरेशन के समय हिलना−डुलना प्रतिबंधित रहता है। एक का रक्त जब दूसरे के शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है, तो भी हिलना−डुलना वर्जित होता है। भजन के समय भी ऐसी ही शान्त स्थिति आवश्यक है।

इसका अगला चरण यह है कि सर्वसमर्थ, सर्वशक्तिमान, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर को अपनी सम्पूर्ण सत्ता में अवतरित होते हुए अनुभव किया जाय। ब्रह्म−चेतना का ब्रह्माण्डव्यापी दिव्य प्रकाश, समुद्र लहरा रहा है। अपनी स्थिति उसमें निमग्न एक मछली जैसी ही तो है। विराट चेतना समुद्र की हम सब मछलियाँ हैं। भावना की जाए कि (1) वह दिव्य आलोक अपने रोम−रोम में भरा रहा है। इससे अंग−अंग ओज, शक्ति एवं संयम से परिपूर्ण हो उठा है। (2) यही परम प्रकाश मस्तिष्क में विवेक और प्रखर प्रतिभा के तेजस् के रूप में चतुर्दिक् परिव्याप्त हो रहा है। (3) अन्तरात्मा के संस्थान में, हृदय−क्षेत्र में यही आलोक दिव्य भावना एवं आनन्द के प्रवाह की तरह अनुभव किया जाना चाहिए। परम ज्योति की प्रदीप्त अग्नि अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीर में समाविष्ट है और उससे हमारे तीनों शरीर आलोकित हो रहे हैं, ऐसा निरन्तर अनुभव करना ही ध्यान विद्या है।

प्रशांत चित्त में इस आलोक साधना के अभ्यास के साथ ही मनन साधन भी वांछित है। ये सभी भावनात्मक साधनाएं हैं। जिनके लिए ब्राह्ममुहूर्त का अनिवार्य बन्धन नहीं। सुविधा और समय के अनुसार इसे आगे−पीछे भी किया जा सकता है पर एकान्त स्थान तथा शान्त वातावरण जरूरी है, तभी अभीष्ट परिणाम सम्भव है। आंखें बन्दकर विचार किया जाए कि हमारा शरीर मृत अवस्था में पड़ा है। प्राण रूपी हंस इसमें से निकलकर किसी ऊँचे स्थान पर बैठा है। वह इस शव का परीक्षण कर रहा है। एक−एक अंग उघाड़कर, उलट−पलटकर देख रहा है। विचार करना चाहिए कि यह शरीर कपड़ों से भरी एक पोटली जैसा ही है। इसकी सामयिक उपयोगिता है। प्रत्येक अंग की समुचित देखभाल व सही उपयोग ही इसे स्वस्थ रखता है। अन्ततः तो इसे नष्ट होना ही है। इस शरीर में मस्तिष्क रूप यह डिब्बा है, जिसमें चार आभूषणों की तरह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार है। अहंकार ही मैं-पन की भावना में सबको समेटे है। बुद्धि हमारे अपने संस्कारों व जानकारी की प्रतिक्रिया मात्र है। मन भाव सम्प्रेषण का माध्यम है। विषयों के प्रति इसकी उछल−कूद की निरर्थकता व चपलता को समझा जाना चाहिए मृत्यु की अनिवार्यता का स्मरण करना चाहिए और अपने जीवन−लक्ष्य तथा वर्तमान क्रियाकलापों की तुलना की जानी चाहिए। अपने वास्तविक चेतना स्वरूप, जीवन−लक्ष्य, शरीर और आत्मा के संबंधों को स्वरूप, श्रेयस और प्रेयस का अन्तर इन सबका समुचित विचार करना चाहिए।

इस तरह ये दो विधियां हुईं। पहली ध्यान−साधना द्वारा आत्म सत्ता के ब्रह्मसत्ता में विलय की अनुभूति तथा अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व को ब्रह्म−चेतना से ओतप्रोत अनुभव करना। दूसरी मनन द्वारा आत्मबोध अर्थात् जीवन−लक्ष्य का स्मरण, अपनी ऐन्द्रिक तृष्णाओं और आत्मिक आवश्यकताओं का अन्तर समझना। दोनों अभ्यास जितनी अधिक गहराई से किए जाएंगे तथा भावना जितनी ही प्रगाढ़ वह गहरी होगी अन्तर्ज्योति उतनी ही प्रखर−प्रदीप्त होती चली जाएगी। इससे श्रेष्ठतम उपलब्धियाँ भी सरल होती जाएंगी।

ध्यान और मनन के साथ ही तीसरे चरण चिन्तन का भी आश्रय आवश्यक है। शारीरिक और मानसिक गतिविधियों को उत्कृष्ट आदर्शों के आधार पर अनुशासित सन्तुलित रखना ही चिन्तन का उद्देश्य है। इसके लिए प्रातः उठते ही दिनभर को अपने लिए जीवन का एक अनुपम उपहार मानना और उसके सर्वोत्तम सदुपयोग का संकल्प कर तदनुरूप योजना बनाना अनिवार्य है। माना जाय कि एक ही दिन के लिए यह जन्म है और आज ही रात को मृत्यु देवी की गोद में विश्राम करना है। अतः समय की सम्पदा और भावों के वैभव का श्रेष्ठतम समायोजन कर लिया जाना चाहिए, ताकि इस एक दिन के जीवन का अधिकाधिक लाभ लिया जा सके और इस मार्ग की सभी बाधाएं दूर की जा सकें। ‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मृत्यु’ का तथ्य सामने होने पर यह कुछ कठिन न होगा। प्रातःकाल जागरण से रात्रिकालीन विश्राम तक की समयचर्या का निर्धारण किया जाना चाहिए। जिन पर परिवार को जिम्मेदारी है, उन्हें आठ घण्टा कमाने के लिए, छह घण्टा सोने के लिए, चार घण्टा नित्य नैमित्तिक कामों के लिए और शेष 6 घण्टे में से 2 घण्टे अन्य फुटकर घरेलू कामों का भ्रमण, पारिवारिक जनों में सम्पर्क आदि के लिए लगाना चाहिए। बाकी बचे 4 घण्टे अपने जीवनोद्देश्य की पूर्ति में लगाना चाहिए।

इनमें से प्रत्येक कार्य के पीछे गहरी भावनात्मक होनी अनिवार्य है, तभी कर्म उत्कृष्ट स्तर का एवं अधिक कुशलता के साथ सम्पन्न होगा। प्रत्येक क्रिया-कलाप के पीछे उच्च आदर्शों की प्राणवान भावनाएं रहीं, तो मनोगत आकांक्षा भी तीव्र व व्यवस्थित रहेगी। ऐसी स्थिति में शारीरिक अनुशासन भी जबर्दस्त रहेगा ही और कर्म समग्र प्रखर तथा सही शुद्ध होगा। ऐसे कर्म ही सत्−संस्कारों के आधार बनते हैं।

चिन्तन की उत्कृष्टता इसी में है कि अपनी ही तरह औरों को भी ईश्वरीय−चेतना से समान मात्रा में सम्पन्न मानकर उनके प्रति सम्मान, स्नेह और कर्त्तव्य की भावना रखी जाए। मानसिक प्रतिक्रियाएं हमारी अपनी हलचलें हैं। ऐसा स्मरण रहे, तो दूसरों से व्यवहार में उत्तेजना की बजाय संयम ही रहेगा। उत्तेजना का कारण हमारी अपनी मानसिक दुर्बलता होती है और उसे हम विषयों, पदार्थों, सहकर्मियों या अन्य व्यक्तियों पर आरोपित कर देते हैं। इसकी प्रतिक्रिया में दूसरी ओर से भी उत्तेजना ही होती है। जबकि संयमित व्यवहार की प्रतिक्रिया शिष्टता और सौजन्य के रूप में हमें लाभ पहुँचाती है। अपनी पत्नी को अपने संरक्षण में रखी, ईश्वर की पुत्री, बच्चों को ईश्वरीय उद्यान के सुरभित पुष्प और अन्य परिजनों को भी इसी तरह ईश्वरीय अनुग्रह के भरपूर चेतना−पुंज मानकर अपने को उनके प्रति कर्त्तव्य−निर्वाह का अवसर अपनी ही कसौटी के लिए दिया गया माना जाय, तो फिर हमारे व्यवहार में प्यार तो भरपूर होगा, किन्तु मोह नहीं। तब परिजनों के अप्रीतिकर आचरण के प्रति करुणापूर्ण समझदारी और सहिष्णुता ही रहेगी। उनके दोषों के सुधार का अपनी शक्ति भर प्रयास तो अवश्य ही करणीय प्रतीत होगा, किन्तु उसमें न तो व्यर्थ का दर्प होगा, न ही आवश्यकता खीझ और न ही आसक्तिजन्य उत्तेजना तथा परिणामस्वरूप हताशा ही मन को क्षुब्ध करेगी। सद्गुणों के विकास−अभिवर्धन का प्रयास तो अपना व परिजनों का भी वांछित है, किन्तु उस दिशा में उपस्थिति कठिनाइयों से उद्विग्नता का कोई कारण नहीं। ऐसी विकसित मनःस्थिति में शिशु−पोषण, परिवार−पालन उद्वेग और चिन्ता का भण्डार नहीं, गृहस्थयोग का, सेवा साधना का ही अवसर उपहार प्रतीत होगा। स्नेह, सेवा, प्यार की भावनाओं से भरपूर, वातावरण वाला परिवार सम्वेदना, कोमलता नेतृत्व, सुसंचालन, सौजन्य, सद्भाव, सुव्यवस्था, सन्तुलन, समन्वय आदि योग्यताओं के विकास का माध्यम बनता है। यही गुण जीवन−समर में उच्चतर उपलब्धियों के आधार बनते हैं। सुव्यवस्थित परिवार निश्चय ही तपोवन हैं और उनके निवासियों को तपोवन में घर बनाने की कोई आवश्यकता नहीं हैं।

अपनी आन्तरिक इच्छाओं−आकांक्षाओं के प्रति भी वैसी ही विवेक−बुद्धि आवश्यक है। जीवन के प्रयोजन को निश्चित कर, फिर उसमें विपरीत इच्छाओं का अनुवर्तन, मार्ग का भटकाव और समय, श्रम तथा शक्तियों−साधनों का दुरुपयोग ही लगेगा, अतः उधर मन वैसी तेजी से न खिंचेगा। पुनःपुनः स्मरण चिन्तन, मनन से तो मन में अवांछित इच्छाओं के प्रति विरक्ति ही दृढ़ हो जाएगी। शरीर की आवश्यकताएं प्रयोजन−पूर्ति में साधक या बाधक होने की कसौटी पर कसी जाएंगी। ईश्वरीय प्रयोजन का वाहन शरीर सुदृढ़−स्वस्थ रहे, यही आवश्यक है।

भजन, मनन और चिन्तन की त्रिवेणी में दिनभर सतत् स्नान करते हुए किए गए कर्म की वास्तविक अध्यात्म साधना का आनन्द अनुदान देते हैं। रात्रि को सोते समय बिस्तर पर जाने पर दिनभर के कर्तव्यों का शक्ति एवं निष्ठा में निर्वाह करने का स्मरण किया जाय। शेष रहे कार्य तथा दायित्व ईश्वर को सौंपकर पूर्ण निश्चिन्तता के साथ अनासक्त कर्मयोगी की तरह निद्रा−मृत्यु की गोद में विश्राम किया जाय। यही ‘हर दिन नया हर जन्म, हर रात नई मृत्यु’ सूत्र पर आचरण की विधि है। यही श्रेष्ठतम साधना है।

ढीली−पोली दिनचर्या ही विकृतियों−विभ्रान्तियों का क्रीड़ास्थल बनती है। जागरूक व सतर्क मनःस्थिति से तो दुष्ट दुर्भाव दूर ही भागते हैं। यदि आक्रमण का दुस्साहस भी कभी करें, तो चिन्तनशील व्यक्ति के पास उनके विरोधी सद्विचारों की प्रचण्ड सेना तैयार रहती है। दुर्भावनाओं−कुविचारों के अनुरूप आचरण से होने वाली हानि तथा उनके विरोधी सदाचार के पालन से प्राप्त शान्ति−सन्तोष और शक्ति का गम्भीर ऊहापोह सदा ही सत्पथ पर ले जाता है। सत्पथ पर सतत् यात्रा से ही सदा श्रेष्ठ उपलब्धियाँ करतलगत होती रही हैं और होती रहेंगी।

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