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Magazine - Year 1978 - Version 2

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सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी का पेट न चीरें।

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इसे विचित्र विसंगति ही कहना चाहिए कि हम शरीर के लिए ही जीवन निछावर करने की नीति अपनाने पर भी उसी की सब से अधिक उपेक्षा करते हैं। उपेक्षा ही क्यों, कहा तो यह भी जा सकता है कि उसके प्रति शत्रुता तक बरतते हैं।

प्रातः उठने से लेकर रात्रि को सोने तक के कार्यों पर दृष्टि डालें तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि सारा श्रम, समय, मनोयोग शरीर और उसके साथ जुड़े हुए परिकर के निमित्त खपाया जाता रहा है। पेट की भूख और इन्द्रियों की लिप्साएं तरह−तरह की फरमाइशें प्रस्तुत करती हैं और उसके साधन जुटाने के लिए कई प्रकार के ताने−बाने बुनने पड़ते हैं। दिन में आराम और रात्रि में विश्राम का प्रबन्ध करना पड़ता है। मन मस्तिष्क भी शरीर का ही एक अवयव है उसकी अपनी आदतें और माँगे हैं। बड़प्पन की अहंता उसके भीतर उठती रहती है। उसके लिए शरीर सज्जा से लेकर अमीरी की खर्चीले ठाट−बाट बनाने के लिए निरन्तर दौड़−धूप करनी पड़ती हैं। बड़प्पन वैभव निरन्तर बढ़े और स्थिर रहे इसकी चेष्टाएं तृष्णा कहलाती हैं। इन्द्रिय सुखानुभूति की, वासना की माँग पूरी करने के साथ ही तृष्णा की जरूरतें सामने आ खड़ी होती हैं। इसी खाई को पाटने में दिन भर का पूरा समय और जीवन का लम्बा विस्तार खप जाता है। एक शब्द के लिए इसी को यों भी कह सकते हैं। शरीर ही जीवन की गाड़ी धकेलता है किन्तु उसकी सारी कमाई अपने लिए ही खर्च करा लेता है। इसे और भी स्पष्ट करना हो तो यों कह सकते हैं कि हम शरीर के लिए ही जीवित रहते हैं।

जीवन व्यय का एक और क्षेत्र है− परिवार। यह भी शरीर यात्रा की ही परिधि में आता है। जिन अभिभावकों ने भरण−पोषण किया है उनका ऋण चुकाना भी आवश्यक है। विवाह के आधार पर जिन साथी के शरीर और मन का लाभ उठाया गया है उसे सुविधाएं देने के रूप में मूल्य चुकाना चाहिए। रति सुख का मूल्य संतान पालन के रूप में चुकाना पड़ता है। परिवार के उच्च−स्तरीय आदर्श भी हैं पर सामान्यतया उसमें शरीरगत आदान-प्रदान ही मुख्य होते हैं। इसलिए परिवार निर्वाह को शरीर सुविधा को ऋण मुक्ति और मूल्य चुकाने के रूप में विनिर्मित हुआ समझा जा सकता है।

इन पंक्तियों की चर्चा का विषय यह है कि बहुमूल्य मानव जीवन सम्पदा का उपयोग आखिर होता किस निमित्त है? उसके साथ जुड़ी हुई क्षमता किस प्रयोजन में लगती और क्या उपार्जन करती है। पूरी छान−बीन करने पर निष्कर्ष एक ही निकलता है कि शरीर मन और परिवार के निमित्त ही जीवन की पूरी अवधि और क्षमता लगी रहती है। यह तीनों देखने और कहने भर के लिए ही अलग हैं वस्तुतः इन्हें शरीर के अविच्छिन्न अवयव ही कहना चाहिए। मन कोई अलग पदार्थ नहीं है। मस्तिष्क ही मन है। मस्तिष्क को शरीर से अलग कैसे किया जा सकता है। परिवार का चाहे ऋण चुकाना पड़ रहा है अथवा सुविधाएं पाने का मूल्य दिया जा रहा हो, दोनों ही दृष्टियों से उसे शारीरिक आवश्यकताओं की परिधि में ही सम्मिलित रखना पड़ेगा। समीक्षक को यही कहना पड़ेगा कि औसत मनुष्य शरीर के खोखले में निवास करता है और उसी के निमित्त अहर्निश प्रयत्नरत बना रहता है। जीवन शरीर में से उत्पन्न होता है और इसी के निमित्त अपनी सारी क्षमताएं समर्पित किये रहता है। सच्चे अर्थों में वही वास्तविक इष्टदेव है जिसकी पूजा उपासना में आत्मा का पुजारी विविध−विधि उपचार करता और साधन जुटाता रहता है।

यह नीति उचित है या अनुचित? शरीर के अतिरिक्त उसके स्वामी आत्मा का भी कुछ हित साधन होना चाहिए या नहीं? होना चाहिए तो किस प्रकार? यहाँ इन प्रश्नों पर विचार नहीं हो रहा है। विचारणीय यह है कि जब शरीर ही सब कुछ ठहरा और आराध्य बना तो कम से कम इतना तो होना ही चाहिए था कि उसके वास्तविक हित का ध्यान रखा गया होता। जब शरीर से इतना काम लिया जा रहा है− अथवा उसी के लिए जिया जा रहा है तो आवश्यक यह भी है कि उसे स्वस्थ और सुदृढ़ भी बनाये रखा जाय? जिस पेड़ के फूलों और फलों में लाभ उठाया जा रहा है उसकी जड़ें सींचने का ध्यान रखा जाना चाहिए।

इन्द्रिय लिप्साएं बड़प्पन की वितृष्णाएं− शरीर रूपी वृक्ष के फल−फूल हैं। उन्हें तोड़ते तो रहा जाय पर पोषण और संरक्षण का ध्यान न रखा जाय तो यह अदूरदर्शिता ही होगी। इस उपेक्षा से तो वह स्वार्थ सिद्ध भी नहीं होता, जिस में निरन्तर लगे रहने की बदनामी और आत्म प्रताड़ना सहनी पड़ती है। सिंचाई और सुरक्षा के अभाव में वृक्ष कितने दिन तक हरा भरा रखा जा सकेगा? और कब तक उससे कितनी मात्रा में फल−फूल बटोरे जा सकेंगे? दुर्बलता, रुग्णता से ग्रसित शरीर कष्ट भुगतता रहेगा। लादा हुआ काम निपटा नहीं सकेगा और अनेक दबावों से संत्रस्त होकर असमय में ही अपना अस्तित्व गँवा बैठेगा।

शरीर की संरचना ऐसे कुशल कलाकार के हाथों ऐसी सुदृढ़ सामग्री के सहारे हुई है कि यदि उसे तोड़ा-फोड़ा न जाय तो वह लम्बी अवधि तक अपना काम ठीक तरह करती रह सकती है। उसके स्वार्थ या परमार्थ जो भी साधना हो साधा जाय, किन्तु इतना तो ध्यान रहना ही चाहिए कि वाहनों और औजारों तक को सही रखने के लिए जब सतर्कता बरतनी पड़ती है तो शरीर की सुरक्षा की ही क्यों उपेक्षा की जानी चाहिए।

यह तथ्य है कि शरीर की शक्ति को शरीर के लिए खर्च किया जाता है पर वह नियोजन बहुत ही उथला होता है उसमें ललक लिप्सा जुटाने बुझाने तक ही बात सीमित रह जाती हैं। स्थिरता और आवश्यकता की बात तो एक प्रकार से ध्यान में ही नहीं रखी जाती।

शरीर से काम लेना है तो उसे कष्ट मुक्त और सक्षम बनाये रहने का भी प्रबन्ध करना चाहिए। अन्यथा शरीर के लिए सौंपा हुआ काम पूरा करना कठिन हो जायगा। इतना ही नहीं वह कष्ट पीड़ित रहने लगेगा और अपनी व्यथा से आप ही जलता−गलता रहेगा। यह कैसी विसंगति है कि जिस शरीर को इष्टदेव मानकर जीवन की सारी सम्पदा ही उसके चरणों पर अर्पित की जा रही है उसकी जड़ें काटने, दुर्बल और रुग्ण बनाने तथा असमय में ही अस्तित्व गँवा देने के लिए बाध्य किया जा रहा है। इसे शरीर प्रेम कहा जाय या द्वेष? चालू विसंगतियों को देखते हुए यह निर्णय कठिन पड़ता है कि शरीर के प्रति अपनाया गया वर्तमान दृष्टिकोण कहाँ तक बुद्धिमत्तापूर्ण और लाभदायक है।

नशा मौज के लिए पिया जाता है? जिसकी मौज के लिए यह खर्चीला व्यसन अपनाया गया है, उस पर क्या बीतती है यह भी देखा जाना चाहिए। नशीली वस्तुएं काया के भीतरी अवयवों को कितनी क्षति पहुँचाती हैं, उनकी कुशलता पर कितना प्रहार करती हैं यह भी देखा जाना चाहिए। धन की बर्बादी, बौद्धिक प्रखरता की घटोत्तरी, बदनामी की बात यदि महत्वहीन मालूम पड़ती हो तो भी इतना तो सोचना ही चाहिए जिसके लिए एक हाथ से मौज के साधन जुटाये जा रहे हैं दूसरे हाथ से उसके अस्तित्व के लिए खतरा तो उत्पन्न नहीं किया जा रहा है। नशे की मौज मस्ती कहीं विपत्ति के सरंजाम समेट कर तो नहीं ला रही है।

शरीर की एक इकाई जीभ को प्रयत्न करने के लिए मिष्ठान्न और पकवानों के सरंजाम जुटाये जायं यह बात समझ में आ सकती है क्योंकि उसमें काया के एक अंग को गुदगुदी अनुभव करने का अवसर मिलता है। किन्तु यह समझ में नहीं आता कि दुष्पाच्य आहार की अधिक मात्रा पेट पर लाद कर उसे अशक्त बनाया जाय और अपच में उत्पन्न होने वाली विषाक्तता का ध्यान न रखते हुए समूचे पाचन तन्त्र को ही लड़खड़ा दिया जाय।

जननेन्द्रिय की सरसता समझ में आती है, पर अतिवादी नीति अपना कर उस संवेदना केन्द्र को ही क्षत−विक्षत और अशक्त बना दिया जाय। जो सरलता पूर्वक देर तक मिलता रह सकता था उसे नष्ट, भ्रष्ट करके रख दिया जाय उसमें क्या समझदारी रही। यह तो वैसा ही बन पड़ा जैसा कि सोने का एक अण्डा रोज देने वाली मुर्गी का किसी ने अति लालच में पेट चीरा था और फिर उस आजीविका स्रोत से सदा के लिए हाथ धो बैठा था।

आँखों से काम लेने में सुखद दृश्य देखने का आनन्द मिलता है सो ठीक है पर सोने के लिए बनाई गई और अंधेरी रखी गई सृष्टी की सुखद संरचना रात्रि में ही भी देर तक जगते रहा जाय और आँखों पर तेज रोशनी का दबाव डाला जाय तो यह अन्धता को निमन्त्रण देते हुए देर तक मनोरंजक दृश्य देखने में रात्रि बिताने में क्या समझदारी रही। आंखें गँवाने के मूल्य पर खरीदा गया मनोरंजन अन्ततः कितना महँगा पड़ा, आखिर इसका भी तो कुछ हिसाब−किताब रखा जाना चाहिए।

बहुत ठंडे गरम पदार्थों का अपना मजा है सो भी ठीक है किन्तु दाँतों को असमय में ही गिरा देने वाली इस मौज को कितनी कीमत चुकानी पड़ी, कुछ इसका भी अनुमान लगाया जाना चाहिए। भारी और कसे हुए कपड़े पहनने में शोभा बढ़ती है या नहीं इस पर विचार भले ही न किया जाय, पर त्वचा तक स्वच्छ वायु और धूप रोशनी न पहुँचने पर उसकी क्षमता की कितनी हानि होगी यह भी देखा जाना चाहिए। आलस्य में पड़े रहने से चैन मिलता है, पर श्रम के अभाव में कल पुर्जे कितने अशक्त होते चले जाते हैं उसे क्यों भुला दिया जाता है?

सामान्य व्यवसायी अपने कारोबार में लाभ और हानि दोनों पक्षों का विचार करके तब अपनी सन्तुलित नीति अपनाते हैं। हम जीवन व्यवसाय में मौज वाले पक्ष को ही ध्यान में रखें और स्वास्थ्य बर्बाद करके मौज करने वाले का ही सफाया कर दें तो इसे क्या कहा जाय? यह तो सामान्य दुकानदार जितनी समझदारी भी नहीं हुई। जीवन व्यवसाय के व्यवसायों को कम से कम इतना तो देखना ही चाहिए कि लाभ की ललक में घाटे ही घाटे के उपक्रम तो बनते नहीं चले जा रहे हैं।

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Version 2
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Type: SCAN
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